इस दुनिया में सब अपना है !
अपना ही है प्यारे साथी !
गाँव हमारा, शहर हमारा, देश हमारा !
और हमारी अपनी ही ‘धरती माता’ है !
यह सब कुछ हम सब का ही है !
वह सब कुछ भी अपना ही है !
सब अपनी मेहनत का फल है !
रंग-बिरंगी सारी दुनिया अपनी ही है !
इस दुनिया में सब अपना है !
अपने पुरखों का सपना है !
इस दुनिया में उनका क्या है ?
केवल “मैं-मैं” ! “मेरा-मेरा” !!
वह भी कितना बौना-सा है !
बिलकुल सर्कस के जोकर-सा !
इधर से उधर उछल-कूद कर
अपनी अकड़ दिखाता रहता !
अन्दर-अन्दर सब से डरता,
बाहर से डरवाता रहता !
उसे देख कर बच्चे भी तो हँस देते हैं !
भला हम ही क्या नहीं मज़ाक उड़ाते उनका !
इसके अधिक भला क्या उनका,
कुछ भी है अपनी दुनिया में !
नहीं, नहीं,
कुछ भी तो नहीं है !
उनको केवल एक भरम है !
सब कुछ पर उनका कब्ज़ा है !
क्या वे सब कुछ ले पायेंगे !
क्या हम सब कुछ दे पायेंगे !
सोचो साथी,
अभी लड़ाई की तैयारी करते हैं हम !
तनिक भी नहीं डरते हैं हम !
जीवन का विज्ञान बताता आया हमको !
जान रहे हैं -
“लड़ने वाला नहीं हारता,
वही हमेशा जीता करता !
वे ही जैसे हरदम भागे,
वैसे ही फिर से भागेंगे !”
(14.4.14. 11p.m.)
दलित-साहित्य की इस लोकप्रिय कविता के प्रतिवाद में
ठाकुर का कुआँ - ओमप्रकाश वाल्मीकि
"चूल्हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का ।
भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का ।
बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फ़सल ठाकुर की ।
कुआँ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या ?
गाँव ?
शहर ?
देश ?"
(नवम्बर, 1981)
(कविता-कोश)
http://ppsfin.blogspot.in/2013/09/blog-post_9662.html
(कविता-कोश)
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