प्रिय मित्र, मैं आज एक बार फिर वर्तमान व्यवस्था के संकट और उसके समाधान के प्रश्न पर चर्चा करना चाहता हूँ. सारी दुनिया में आज केवल अपने मुनाफ़े के लिये सक्रिय पूँजी के लूट-तन्त्र का ही शासन है. सारी दुनिया में जन-सामान्य के लिये जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा कर सकने से अधिक जुटा पाना किसी भी तरह से नामुमकिन है. पिछली शताब्दी में रूस और चीन सहित अनेक देशों में पूँजी की गुलामी के विरुद्ध सफल क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए और समाजवादी समाज-व्यवस्था की रचना की गयी. आज की पीढ़ी के लिये वे सभी क्रान्तिकारी प्रयोग इतिहास की कहानी बन कर रह गये हैं. अपने देश में अनेक धाराओं और उपधाराओं में बिखरा क्रान्तिकारी आन्दोलन अभी तक किसी निर्णायक मोड़ तक नहीं पहुँच सका है.
ऐसे में हमारे सामने एक तो यह प्रश्न है कि वह कौन-सी वजह है, जिसके चलते इस देश में अनेक जन-उभारों का प्रेरक और साक्षी होने पर भी अभी तक हमारे क्रान्तिकारी आन्दोलन को निर्णायक परिवर्तनकारी सफलता नहीं मिल सकी और दूसरा यह भी प्रश्न है कि वह कौन-सी वजह थी जिसके चलते सफल क्रान्तियों वाले देशों में भी एक बार फिर से पूँजीवाद की पुनर्स्थापना तो सफलतापूर्वक हो गयी, परन्तु क्यों अभी तक उन देशों में पूँजीवादी समाज-व्यवस्था और शासन-सत्ता बनी हुई है; और आज उन सभी देशों के जन-गण के सामने किन परिवर्तनकामी प्रयोगों की सम्भावना है.
मानवता के इतिहास में अपने उद्भव से आज तक अकेला मार्क्सवाद ही परिवर्तन के विज्ञान के तौर पर स्थापित है. इसकी विश्लेषक दृष्टि अचूक है. फिर इस वैज्ञानिक दृष्टिकोण के औजार को लागू करने में चूक कहाँ हो रही है ! इसे लागू करने वाले समाज-वैज्ञानिक आज ऐतिहासिक तौर पर असफल क्यों हैं ! दुनिया में वर्ग-संघर्ष तो सतत जारी है, परन्तु वर्गीय शोषण क्यों जैसे का तैसा चलता चला जा रहा है ! हम इसे आज तक छू भी नहीं सके, इसे ध्वस्त कर ले जाना तो बहुत दूर की कल्पना है. हमारी समझ और तौर-तरीके में कौन-सी खामी है ! आइए, एक बार ठहर कर सोचें कि वास्तव में क्रान्ति क्या है और आज की जटिल और संश्लिष्ट समाज-व्यवस्था के ताने-बाने में कौन-सी कमियाँ हैं, जो असह्य हो चुकने के बाद भी अभी भी बनी हुई हैं ! वह दौर कैसा था जब सफल क्रांतियाँ हो रही थीं ! और आज के दौर में क्रान्तिकारी व्यवस्था-परिवर्तन सम्भव भी है क्या ! यदि हाँ, तो कैसे !!
हमारे अनेक मित्र क्रान्ति की सम्भावना को ही सिरे से खारिज़ करते हैं. उनका मानना है कि अब कोई क्रान्ति सम्भव है ही नहीं. उनके अनुसार चूँकि कोई क्रान्ति नहीं हो सकती, इसलिये इसी व्यवस्था को ही थोड़ा-बहुत ठोक-पीट कर बेहतर और जीने के काबिल बनाया जाना चाहिए और ऐसा किया जा सकता है. क्या उनका ऐसा सोचना तर्क-संगत है ! नहीं. क्योंकि वे हमारे जर्जर हो चुके फटे कुरते में केवल जगह-जगह नये-नये पैबन्द भर लगा सकते हैं. वे अपनी सारी शुभकामनाओं के बावज़ूद अपनी अवस्थिति के चलते अन्ततः केवल सुधारवाद की भूल-भुलैया में उलझ कर चकराते रह जाने के लिये विवश हैं.
उसी सुधारवाद के नारे लगाते सामने आते हैं अन्ना-रामदेव-अरविन्द केजरीवाल और विकल्प देने की घोषणा करते हैं. अब यह प्रश्न किया जा सकता है कि क्या विकल्प देने की बातें करने वाले अन्ना-रामदेव-अरविन्द सफल विकल्प दे सकते हैं ! गेंद अब ‘आप’ के पाले में है, जिसे देखिए मुँह उठाये ‘आप’ बनने को आमादा है. सब को अब तो यही लग रहा है कि ‘आप’ ही विकल्प है. जब ‘आप’ की सरकार बनी, तो दिल्ली में यह हो गया, और जब ‘आप’ की सरकार गिरी, तो देश में वह हो गया. क्या हो गया, मेरे दोस्त ! क्या व्यवस्था बदल गयी ! या ‘आप’ की सरकार अगर पूरे देश में भी बन जाये, तो क्या व्यवस्था बदल जायेगी ! नहीं न ! क्या सुधारवाद ही व्यवस्था का विकल्प है ! तो उत्तर मिलता है कि ‘ईमानदार पूँजीपति’ जैसा कुछ होना नामुमकिन है. और सुधारवाद पूँजीवाद का विकल्प नहीं हो सकता है.
कुछ मित्रों का मानना है कि क्रान्ति होनी तो है, मगर कब और कैसे होगी यह तो मालूम ही नहीं है. तब फिर जब तक क्रान्ति नहीं हो जाये, तब तक क्या किया जाना चाहिए – इस सवाल का उत्तर देने के नाम पर भी तरह-तरह के नुस्खे आजमाये जा रहे हैं. क्योंकि जब तक क्रान्ति हो, तब तक शोषित-पीड़ित मानवता की ‘सेवा’ तो की ही जानी चाहिए. और सेवा करने के लिये धन-जन-मन-तन-गन सबकी ज़रूरत पड़ती ही है. तो यह सब जुटाने के लिये थोड़ा-बहुत झपसटई तो करनी पड़ेगी ही. और ऐसा कुछ भी गोरखधन्धा करने में जो भी ख़ुद को सक्षम मानते हैं, वे एक एन.जी.ओ. बना लेते हैं और फिर शुरू हो जाता है ग़रीबों की सेवा के नाम पर ‘ब्रीफकेस दो और ब्रीफ़केस लो’ का खुला खेल फ़रुक्खाबादी ! चूँकि सारी की सारी योजनाएँ ग़रीबों की सेवा करने के नाम पर ही बनायी जाती हैं मगर मूलतः सेवा अमीरों की ही करती हैं. इसलिये ‘एन.जी.ओ.-एन.जी.ओ.’ खेलते-खेलते उनकी अपनी ग़रीबी तो दूर हो जाती है क्योंकि इस खेल में लाखों-करोड़ों का वारा-न्यारा होता है. और चलते-चलाते नाम-मात्र को ही सही, ले-दे कर ग़रीबों का भी कुछ न कुछ भला भी हो ही जाता है. मगर मेहनत की लूट की मुनाफ़ाखोर चक्की उसी रफ़्तार से चलती रहती है.
ऐसे में हर युवक के सामने यह ज्वलन्त प्रश्न है कि कोई भी युवक करे तो क्या करे ! और फिर जब हम अपने चारों ओर नज़र दौड़ाते हैं, तो पाते हैं कि अधिकतम युवक किसी न किसी तरीके से कोई न कोई नौकरी तलाशने के चक्कर में छोटे-बड़े शहरों से लेकर महानगरों तक किराये के कमरों में खाना बनाते-खाते प्रतियोगिताओं की तैयारी में रात-दिन एक किये हुए हैं. ‘बेरोज़गार’ पैदा करने वाली इस व्यवस्था से अपने लिये नौकरी माँगने वालों की सभी कतारों में बहुत भीड़ है. कन्धे से कन्धे छिले जा रहे हैं. भारी-भरकम घूस और किसी न किसी नेता या अधिकारी की पहुँच की बैसाखियाँ जुटाने की हर तरह की जो भी मुमकिन कोशिशें हो सकती हैं, वैसी सभी तरह की कोशिशें जारी हैं. चपरासी की नौकरी का भी रेट सात लाख के घूस तक पहुँच चुका है. और नौकरी है कि सबको मयस्सर है ही नहीं. केवल एक प्रतिशत को सरकारी और केवल दस प्रतिशत को प्राइवेट नौकरी मिल सकती है. शेष नब्बे प्रतिशत युवा नौकरी की दौड़ से असफल करार दिये जाने के बाद छाँट कर वापस लौटा दिये जाते हैं.
असफलता का कलंक अपने माथे पर लिये महानगरों से वापस घर लौटने वाले या फिर उसी महानगर में किसी तरह से जीने का जुगाड़ भिड़ाने के चक्कर में जूझने वाले युवाओं के सामने हरदम अर्धबेरोज़गारी की परिस्थिति बनी रहती है. तब वे कोई न कोई छोटी-मोटी प्राइवेट नौकरी करके या फिर ट्यूशन करते हुए या प्राइवेट स्कूलों में कम वेतन पर पढ़ाते हुए या कोचिंग चलाते हुए अपनी अर्थव्यवस्था किसी भी तरह चलाते रहने को विवश हो जाते हैं. एक तरफ़ उनकी उम्र अधिक हो चुकी होती है, तो दूसरी तरफ़ उनको अब और फाइनेंस करने के लिये परिवार के लोग तैयार नहीं हो पाते. उनकी अपनी ख़ुद की पारिवारिक ज़िम्मेदारी भी बढ़ चुकी होती है.
एक ओर तो ऐसे युवकों का या तो समूची व्यवस्था से मोहभंग हो चुका होता है, या अभी भी उनके अधूरे सपने उनका पीछा करते रहते हैं. कई बार वे अपनी असफलता के लिये अपने आप को ही अक्षम मान लेते हैं, ख़ुद को ही कोसने लगते हैं और ख़ुद को ही अपराधी मान बैठते हैं. उनको अब आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं सूझता है. क्या ऐसे हताश अवसादग्रस्त युवकों को आपने नहीं देखा है ! अगर हममें से किसी को उनको यह समझाना है कि क्रान्ति क्या है, तो क्या केवल मोटी-मोटी पोथी पढ़ने से या लम्बी-लम्बी लन्तरानियाँ हाँकने से ही हमारी बात उनको इस तरह समझ में आ जायेगी कि वे क्रान्ति करने को ही अपनी ज़िन्दगी का मकसद बना लें. उनके सामने तो रोटी का संकट है. तो फिर उनको क्रान्ति के बारे में समझाने का सही तरीका क्या है !
और दूसरी ओर वे युवक हैं, जो प्रतियोगिता की तैयारी में हर तरह से हलकान हो रहे हैं, जिनके दिमाग में अभी भी सतरंगे सपने ठूँस-ठूँस कर भरे हुए हैं और जो यह मानते हैं कि बस एक अदद नौकरी मिलने भर की देर है कि ज़िन्दगी की सारी परेशानियाँ दूर हो जायेंगी और ज़िन्दगी हर तरह से सुरक्षित हो जायेगी ! वे भला क्यों और कैसे क्रान्ति के सपने देखने तक पहुँच सकते हैं !
अच्छा चलिए, मान लिया कि ये और वे सभी के सभी आपकी ‘बात’ समझ गये और क्रान्ति करने के लिये तैयार भी हो गये, तो उनको आप क्या करने के लिये कहेंगे ! यह कहेंगे कि घर छोड़ दो ! झोला उठा लो ! देखो, हम लगातार क्रान्तिकारी किताबें छाप रहे हैं, तुम घूम-घूम कर हमारे द्वारा छापी गयी क्रान्तिकारी किताबें बेचो ! लोगों के बीच जाकर क्रान्तिकारी विचारों का प्रचार करो ! संगठन बनाओ ! जब वे पूछेंगे कि जियेंगे कैसे, खायेंगे क्या और खर्च करने के लिये पैसे कहाँ से पायेंगे, तो आप क्या कहेंगे ! समाज में जो लोग किसी तरह से अपनी रोटी जुटा रहे हैं, उनके ही मत्थे यह भी खर्च मढ़ने के अलावा कोई और रास्ता है क्या आपके पास ! फिर तो सारे ही बेरोजगारों के लिये ‘क्रान्ति का रोज़गार’ सुनहरा विकल्प बन जाना चाहिए और सारे बेरोजगारों को क्रान्तिकारी ही बन जाना चाहिए. मगर ऐसा भी नहीं हो पा रहा है. क्यों ! क्योंकि साफ़ है कि क्रान्ति बेरोजगारों की बेरोज़गारी दूर करने वाला विकल्प नहीं बन सकती है.
फिर भी चलिए, यह भी मान लेते हैं कि यह समस्या भी आपने किसी तरह हल कर ली और आपका क्रान्तिकारी संगठन बन गया. बना ही है. तरह-तरह के संगठन बहुत पहले से ही बने हुए हैं. अभी तक पूरे देश की एक क्रान्तिकारी पार्टी नहीं बन सकी, तो क्या हुआ ! अनेक लोगों द्वारा स्वघोषित अनेक क्रान्तिकारी ‘पार्टी’ भी बनी-बनायी है. चलिए, क्रान्तिकारी संगठन और क्रान्तिकारी पार्टी बन गयी, तो अब क्या करना होगा ! अब भी दो रास्ते हैं. पहला रास्ता है बन्दूक का रास्ता क्योंकि महान माओ ने कहा था कि “राज-सत्ता का जन्म बन्दूक की नली से होता है” ! इसलिये बन्दूक का रास्ता चुनने वाली माओवादी पार्टी के लोगों के रास्ते पर अगर जाना है, तो कम से कम एक बन्दूक तो उठाना ही होगा. और जब बन्दूक उठाने तक बात पहुँच ही गयी, तो गोली भी चलेगी ही और हत्याएँ भी होंगी ही. तो क्या ताबड़तोड़ गोली चलाना और दनादन हत्याएँ करना ‘क्रान्ति’ है ! नहीं न !
तो फिर क्या रास्ता है ! है, अभी एक और भी रास्ता बचा है और वह दूसरा रास्ता है चुनाव लड़ना और संसद और विधानसभा में पहुँच जाना और ‘क्रान्तिकारी’ सरकार बना लेना और सत्ता चलाना. तो क्या सी.पी.आई. और सी.पी.एम. चुनाव लड़ कर संसद में जा कर सरकार चला कर ‘क्रान्ति’ नहीं कर चुकीं ! क्या ‘माले’ भी चुनाव के मैदान में अपने को हर तरह से नहीं आजमा चुकी ! अरे आख़िर इस रास्ते से भी क्या हुआ ! ‘सरकार’ तो बन भी गयी और टूट भी गयी मगर यह आदमखोर ‘व्यवस्था’ फिर भी क्यों नहीं बदल सकी !
तो फिर सोचना तो पड़ेगा ही कि ऐसी विकट परिस्थिति में वास्तव में ‘क्रान्ति’ क्या है ! क्या किया जाये कि यह व्यवस्था बदल सके ! यह प्रश्न ही आज का सबसे विकट प्रश्न है और इसका उत्तर देना ही हम सब क्रान्तिकारियों का युगजन्य दायित्व. क्रान्ति को अनेक क्रान्तिकारियों ने परिभाषित किया है. उनमें से माओ की परिभाषा सबसे अधिक लोकप्रिय है. माओ का कहना है – “क्रान्ति कोई प्रीतिभोज नहीं है और न ही निबन्ध-लेखन या चित्रकारी, कढ़ाई, बुनाई. यह इतनी परिष्कृत, आरामदेह, भली, सहनशील, दयालु, संयत, उदार, विनम्र और कोमल नहीं हो सकती. क्रान्ति एक विद्रोह है, एक हिंसक कार्यवाही है, जिसके द्वारा एक वर्ग दूसरे वर्ग की सत्ता को समाप्त कर देता है.” (“हुनान में किसान आन्दोलन की जाँच पर रिपोर्ट” मार्च 1927, संकलित रचनाएँ, खण्ड-एक, पृष्ठ - 28)
तो अब तो माओ के शब्दों में रट्टू तोते की तरह आपने यह भी बता दिया कि क्रान्ति क्या है. मगर इसे करने के लिये करना क्या है ! क्या वही जो लेनिन ने रूस में और माओ ने चीन में किया था ! क्या लेनिन के समय के रूस और माओ के समय के चीन जैसी ही आज भी दुनिया बनी हुई है ! नहीं न ! 2014 की दुनिया अब वैसी ही तो बिलकुल भी नहीं है, जैसी तब की यानि कि 1917 या 1949 की दुनिया हुआ करती थी. तब से अब तक दुनिया बहुत अधिक बदल चुकी है.
इस बदली हुई दुनिया में क्रान्ति करने के लिये केवल रूस या चीन की क्रान्ति का अन्धानुकरण करना ही पर्याप्त नहीं हो सकता है. इसके लिये हमें कुछ और सोचना होगा, कुछ और करना होगा. तो वह ‘और’ क्या है ! यह हम तभी बता सकेंगे, जब पहले ख़ुद सटीक रूप से यह समझ सकें कि क्रान्ति का मतलब क्या है. परन्तु हमने तो ‘क्रान्ति’ का मतलब पूरी तरह से अभी तक समझा ही नहीं है. हमने तो अभी तक केवल पिछली पीढ़ियों के सफल-विफल क्रान्तिकारियों का अन्धानुकरण करना और उनके बड़े-बड़े नाम लेकर और उनकी किताबों से कठिन-कठिन उद्धरण रट कर और उनको दोहरा कर अबोध लोगों पर अपना रुआब ग़ालिब करना ही सीखा है. हम केवल इतना भर ही समझ सके हैं कि किताबें और पत्रिकाएँ छापना और उनको बेचना क्रान्ति है, छोटी-बड़ी मीटिंगें और जन-सभाएँ करना क्रान्ति है, नाटक करना और गीत गाना क्रान्ति है, नारे लगाना और जुलूस निकालना क्रान्ति है, चुनाव लड़ना और सरकार बनाना क्रान्ति है, बन्दूक उठाना और गोली चलाना क्रान्ति है !
हम समझते हैं कि जब क्रान्ति हो जायेगी, तो हमारी सारी समस्याओं का समाधान हो जायेगा. मगर क्रान्ति कब और कैसे हो जायेगी – इसके बारे में बताने के लिये हमारे पास कोई स्पष्ट समझ और ठोस दृष्टि नहीं है. तो लोगों का यह सवाल उठाना स्वाभाविक है कि चलिए ठीक है, जब क्रान्ति हो जायेगी, तो बहुत अच्छा हो जायेगा. परन्तु जब तक क्रान्ति नहीं हो रही है, तब तक क्या कोई राहत देने वाला मरहम नहीं है ! और फिर ‘क्रान्ति’ हो जायेगी यानी कि क्या हो जायेगा !
हम सभी जानते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था ने दुनिया में सामन्तवादी व्यवस्था को परास्त करके अपना शासन आरम्भ किया. ऐसा इसीलिये मुमकिन हो सका क्योंकि उसने सामन्तवाद से बेहतर विकल्प गढ़ा और लोगों ने उसे अपने लिये उपयोगी पा कर स्वीकार किया. हम जिस व्यवस्था में जीने के लिये विवश हैं, उसकी सारी सीमाओं को पूरी तरह जानने-समझने के बावज़ूद हम क्यों उसी को झेलते चले जा रहे हैं. केवल इसलिये ही हम इस व्यवस्था की सारी विसंगतियों को झेल रहे हैं क्योंकि हमारे पास इसका कोई विकल्प नहीं है.
तो अन्ततोगत्वा प्रश्न मूलतः विकल्प का ही है. विकल्प जो आसानी से सबकी समझ में आ जाये, विकल्प जो हमारे लिये उपयोगी हो, विकल्प जो हमारी ज़िन्दगी को बेहतर बना सके, विकल्प जो अभी तक रूपायित नहीं हुआ हो, विकल्प जिसे लागू करने के लिये कोई हमें बाध्य न करे, विकल्प जिसे आत्मसात करने के लिये लोग ख़ुद ही लालायित हो जायें, वह विकल्प क्या हो सकता है !
हमें क्या किसी ने बिजली और मोटर-साइकिल, ट्रैक्टर और खाद, मोबाइल फोन और कम्प्यूटर, बैंक और ए.टी.एम. का इस्तेमाल करने के लिये बाध्य किया ! क्या हमारे ऊपर टी.वी. और इन्टरनेट का इस्तेमाल करने के लिये किसी के द्वारा दबाव बनाया गया ! नहीं न ! विज्ञान ने इन वस्तुओं का आविष्कार किया, बाज़ार ने इनको उपलब्ध कराया और हम सभी लोगों ने इनको अपने लिये उपयोगी पाया, तो ही जाकर हमने ख़ुद-ब-ख़ुद इनको अपने लिये जुटा लिया और इनका प्रयोग करना सीखने की कोशिश की और अब सफलतापूर्वक इन सब का प्रयोग सभी लोग कर रहे हैं. सार-संकलन करने पर इससे हमारी यही समझ बनती है कि जिस भी वैकल्पिक चीज़ को लोग अपने लिये उपयोगी पाते हैं और पहले से उपलब्ध चीज़ से बेहतर समझते हैं, उसे स्वयमेव ही स्वीकार कर लेते हैं.
अपनी समस्याओं के समाधान के लिये बेहतर विकल्प के बारे में सोचना आरम्भ करते ही हमें यह सोचना पड़ता है कि हमारी आवश्यकताएँ क्या हैं. हमारी ख़ुद अपनी और दूसरे सब लोगों की ज़िन्दगी को बेहतर और सुरक्षित बनाने के लिये हमारी मूलभूत आवश्यकताएँ हैं - सबके लिये सुलभ बेहतर रोज़गार, शिक्षा, चिकित्सा, न्याय और मनोरंजन. इसका मतलब यह है कि हमें जीवन के हर क्षेत्र में ऐसा सफल विकल्प खोजना होगा, जो वर्तमान पूँजीवादी समाज-व्यवस्था में उपलब्ध रोज़गार, शिक्षा, चिकित्सा, न्याय और मनोरंजन के साधनों में निहित विसंगतियों का समाधान दे सके और सबके लिये सहज-सुलभ हो. और हाँ, ध्यान रहे कि यह सारी खोज केवल और केवल रचनात्मक प्रयोगों के माध्यम से ही मुमकिन है.
प्रयोग तो प्रयोग है. वह विफल हो सकता है, तो सफल भी हो ही सकता है. और जैसे ही हममें से किसी ने भी जनदिशा लागू करने की कोशिश में ‘मॉडल’ खड़ा करने का कोई भी रचनात्मक प्रयोग सफलतापूर्वक कर लिया, वैसे ही निश्चित तौर पर दूसरे सभी लोग भी उस मॉडल को अपनाने के लिये पहलकदमी करेंगे ही. इसके लिये पूरे धैर्य के साथ हमें सोचना और प्रयास करना ही होगा. क्योंकि शहीद-ए-आज़म भगत सिंह ने कहा था – “क्रान्ति केवल बम और पिस्तौल का नाम नहीं है. क्रान्ति की धार विचारों की सान पर तेज़ होती है.” जन-सामान्य के सभी जनविरोधी परम्परागत तथा यथास्थितिवादी विचारों को बदलने और उनकी जगह नये जनपक्षधर विचारों को मूर्तमान करने के लिये हमें अतीत के सभी क्रान्तिकारी प्रयोगों से अपने प्रयोग के लिये केवल और केवल प्रेरणा भर ही मिल सकती है क्योंकि शास्त्रीय क्रान्तिकारी साहित्य में हर जगह केवल इतना-सा ही मार्गदर्शन मयस्सर है – “ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण करो, ठोस तरीके से सोच कर ठोस लाइन लागू करो !”.
इस रूप में क्रान्ति मानवता को मुक्त करने का नाम है, सारी समस्याओं को दूर करने का नाम है, जीवन को बेहतर और आरामदेह बनाने का नाम है, पुरानी सड़ी-गली दुनिया को ध्वस्त करने का नाम है, एक नयी दुनिया का निर्माण करने का नाम है, एक नया ज़माना लाने का नाम है, एक नया इन्सान गढ़ने का नाम है, एक नया प्रयोग करने का नाम है, एक नूतन रचना करने का नाम है, एक सर्वस्वीकार्य विकल्प को रूपायित कर देने का नाम है ! क्रान्ति सृजन का नाम है ! और यह सृजन कदापि असम्भव नहीं है. यह निश्चित तौर पर सम्भव है और अवश्यम्भावी भी !!
इन्कलाब – ज़िन्दाबाद !!!
ढेर सारे प्यार के साथ – आपका गिरिजेश
(22.2.14.)