Wednesday, 7 December 2022
शहीद-ए-आज़म भगत सिंह ने कहा था...
बन्धुओ, 23 मार्च 1931 को शहीद-ए-आज़म भगत सिंह ने अपने दो सथियों सुखदेव और राजगुरु के साथ फाँसी के फन्दे को चूमा था. प्रस्तुत हैं उस युगद्रष्टा के आज भी प्रासंगिक विचार –
“रहेगी हवा में मेरे ख़याल की बिजली;
ये मुश्त-ए-खाक है फ़ानी रहे, रहे, न रहे.”
युवक (16 मई, 1925) : युवावस्था में मनुष्य के लिये दो ही मार्ग हैं – वह चढ़ सकता है उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर, गिर सकता है अधःपात के अन्धेरे खन्दक में. चाहे तो त्यागी हो सकता है युवक, चाहे तो विलासी बन सकता है युवक. वह देवता बन सकता है, तो पिशाच भी. संसार में युवक का ही साम्राज्य है. इतिहास युवक के ही कीर्तिमान से भरा पड़ा है. युवक ही रणचण्डी के ललाट की रेखा है. युवक स्वदेश की यश-दुन्दुभि का तुमुल निनाद है. वह सागर की लहरों के सामान उद्दण्ड है, महाभारत के भीष्म-पर्व की पहली ललकार के समान विकराल है, रावण के अहंकार की तरह निर्भीक है, प्रह्लाद के सत्याग्रह की तरह दृढ़ और अटल है. विशाल हृदय की आवश्यकता हो, तो युवकों के हृदय टटोलो. आत्मत्यागी वीर की चाह हो, तो युवकों से माँगों. भावुकता पर उसी का सिक्का है. सृष्टि की एक विषम समस्या है युवक. विचित्र है उसका जीवन. अद्भुत है उसका साहस. अमोघ है उसका उत्साह.
वह निश्चिन्त है, असावधान है. लगन लग गयी, तो रात भर जागना उसके बायें हाथ का खेल है. वह इच्छा करे, तो समाज और जाति को उद्बुद्ध कर दे, राष्ट्र का मुख उज्वल कर दे, बड़े-बड़े साम्राज्य उलट डाले. पतितों के उत्थान और संसार के उद्धारक सूत्र उसी के हाथ में है. वह इस विशाल विश्व-रंगस्थल का सिद्ध-हस्त खिलाड़ी है.
अगर रक्त की भेंट चाहिए, तो सिवाय युवक के कौन देगा? संसार की क्रान्तियों और परिवर्तनों के वर्णन छाँट डालो, उनमें केवल ऐसे युवक ही मिलेंगे, जिन्हें बुध्दिमानों ने ‘पागल छोकड़े’ या ‘पथभ्रष्ट’ कहा है. पर जो सिड़ी हैं, वे क्या खाक समझेंगे? सच्चा युवक तो बिना झिझक मृत्यु का आलिंगन करता है, बेड़ियों की झंकार पर राष्ट्रीय गान गाता है और फाँसी के तख़्ते पर अट्टहासपूर्वक आरूढ़ हो जाता है. फाँसी के दिन युवक का ही वजन बढ़ता है. जेल की चक्की पर युवक ही उद्द्बोधन मन्त्र गाता है, कालकोठरी के अन्धकार में धँसकर वही स्वदेश को अन्धकार से उबारता है.
ऐ भारतीय युवक, तू क्यों गफ़लत की नींद में पड़ा बेख़बर सो रहा है? उठ, आँखें खोल, देख. तेरी माता फूट-फूट कर रो रही है. क्या उसकी विकलता तुझे तनिक भी चंचल नहीं करती? धिक्कार है तेरी निर्जीविता पर. तेरे पुरखे भी नतमस्तक है इस नपुंसत्व पर. यदि अब भी तुझमे टुक हया बाकि हो, तो उठ कर माता के दूध की लाज रख. उसके उद्धार का बीड़ा उठा, उसके आँसुओ की एक-एक बूँद की सौगन्ध ले और बोल मुक्त कण्ठ से वन्दे मातरम्.
विद्यार्थी और राजनीति (जुलाई, 1928): भारी शोर है कि विद्यार्थी राजनीतिक कामों में हिस्सा न लें. हमारी शिक्षा निक्कमी होती है और फ़िज़ूल होती है. और विद्यार्थी युवा-जगत अपने देश की बातों में कोई हिस्सा नही लेता. उन्हें इस सम्बन्ध में कोई ज्ञान नहीं होता है. जब वे पढ़कर निकलते हैं, तब ऐसी कच्ची-कच्ची बातें करते हैं कि सुनकर अफ़सोस होता है. जिन नौजवानों को कल देश की बाग-डोर लेनी है, उन्हें आज ही अक्ल के अन्धे बनाने की कोशिश की जा रही है. इससे जो परिणाम निकलेगा, वह हमें ख़ुद ही समझ लेना चाहिए. लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार के उपाय सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं होना चाहिए? यदि नहीं, तो हम उस शिक्षा को भी निक्कमी समझते हैं. जो सिर्फ़ क्लर्की करने के लिये ही हासिल की जाये, ऐसी शिक्षा की जरुरत ही क्या है?
देश को ऐसे देश-सेवकों की ज़रूरत है, जो अपना तन-मन-धन देश पर अर्पित कर दें. लेकिन क्या बुड्ढों में ऐसे आदमी मिल सकेंगे? क्या परिवार और दुनियादारी के झंझटों में फँसे सयाने लोगों में से ऐसे लोग निकल सकेंगे? यह तो वही नौजवान निकल सकते हैं, जो किन्ही जंजालों में न फँसे हों और जंजालों में पड़ने से पहले विद्यार्थी या नौजवान तभी सोच सकते हैं, यदि उन्होंने कुछ व्यावहारिक ज्ञान हासिल किया हो. सिर्फ गणित और भूगोल की परीक्षा के पर्चों के लिये रट्टा ही न लगाया हो.
ड्रीमलैंड की भूमिका (15 जनवरी 1931): आँख मूँद कर अमल करने या जो कुछ लिखा है, उसे वैसा ही मान लेने के लिये न पढ़ो. पढ़ो, आलोचना करो, सोचो और इसकी सहायता से स्वयं अपनी समझदारी बनाओ.
अदालत में बयान (6 जून 1929): हम अपने देश के इतिहास, उसकी मौजूदा परिस्थिति और अन्य मानवोचित आकांक्षाओं के मननशील विद्यार्थी होने का विनम्रतापूर्वक दावा भर कर सकते हैं. हमें ढोंग और पाखण्ड से नफ़रत है.
नौजवान भारत सभा, घोषणापत्र (13 अप्रैल 1928): नौजवान साथियो, हमारा देश एक अव्यवस्था की स्थिति से गुज़र रहा है. चारों तरफ एक-दूसरे के प्रति अविश्वास और हताशा का साम्राज्य है. देश के बड़े नेताओं ने अपने आदर्श के प्रति आस्था खो दी है और उनमें से अधिकांश को जनता का विश्वास प्राप्त नहीं है. ऐसी ही नाज़ुक घड़ियों में कार्यकर्ताओं की ईमानदारी की परख होती है, उनके चरित्र का निर्माण होता है, वास्तविक कार्यक्रम बनता है, और तब नये उत्साह, नयी आशाएँ, नये विश्वास और नये जोश-ओ-ख़रोश के साथ काम आरम्भ होता है. इसलिये उसमें मन ओछा करने की कोई बात नहीं है. हम अपने को एक नये युग के द्वार पर खड़ा पाकर बड़े भाग्यशाली हैं. अपनी उपजाऊ भूमि और खानों के बावज़ूद भारत सबसे ग़रीब देशों में से एक है. क्या यह जीने योग्य ज़िन्दगी है? नौजवानो, जागो, उठो, हम काफ़ी देर सो चुके. हमने केवल नौजवानों से ही अपील की है क्योंकि मानव-प्रगति का सम्पूर्ण इतिहास नौजवान आदमियों और औरतों के खून से लिखा है, क्योंकि सुधार हमेशा नौजवानों की शक्ति, साहस, आत्मबलिदान और भावनात्मक एकता के बल पर ही प्राप्त हुए हैं. क्रान्ति का मतलब केवल मालिकों की तब्दीली नहीं है. बल्कि एक नयी व्यवस्था का जन्म – एक नयी राजसत्ता है. युवकों के सामने जो कार्य है, वह काफ़ी कठिन है और उसके साधन बहुत थोड़े हैं. उनके मार्ग में बहुत-सी बाधाएँ भी आ सकती हैं. लेकिन थोड़े किन्तु निष्ठावान व्यक्तियों की लगन उन पर विजय पा सकती है. युवकों को आगे आना चाहिए. उन्हें अपने दिल में यह बात रख लेनी चाहिए कि सफलता मात्र एक संयोग है, जबकि बलिदान एक नियम. उनके जीवन अनवरत असफलतओं के जीवन हो सकते हैं. फिर भी उन्हें यह कह कर कि अरे यह सब तो भ्रम था, पश्चाताप नहीं करना होगा.
विद्यार्थियों के नाम पत्र (19 अक्टूबर 1929): नौजवानों को क्रान्ति का सन्देश देश के कोने-कोने में पहुँचाना हैं, फैक्ट्री-कारखानों के क्षेत्रों में, गन्दी बस्तियों और गाँवों की जर्जर झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रान्ति की अलख जगानी है.
क्रान्ति क्या है (6 जून 1929): क्रान्ति में व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिये कोई स्थान नहीं है. वह बम और पिस्तौल का सम्प्रदाय नहीं है. क्रांति से हमारा अभिप्राय है − अन्याय पर आधारित मौज़ूदा समाज-व्यवस्था में आमूल परिवर्तन. समाज का प्रमुख अंग होते हुए भी आज मज़दूरों को उनके प्राथमिक अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूँजीपति हड़प जाते हैं. दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने को मुहताज हैं. दुनिया भर के बाज़ारों को कपड़ा मुहैया करने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन ढकने भर को भी कपड़ा नहीं पा रहा है. सुन्दर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गन्दे बाड़ों में रहकर ही अपनी जीवन-लीला समाप्त कर जाते हैं. इसके विपरीत समाज के जोंक शोषक पूंजीपति ज़रा-ज़रा सी बातों के लिये लाखों का वारा-न्यारा कर देते हैं.
देश को आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है और जो लोग इन बातों को महसूस करते हैं, उनका कर्त्तव्य है कि साम्यवादी सिद्धान्तों पर समाज का पुनर्निमाण करें. जब तक यह नहीं किया जाता और मनुष्य द्वारा मनुष्य का और एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण, जो साम्राज्यशाही के नाम से विख्यात है, समाप्त नहीं कर दिया जाता, तब तक मानवता को उसके क्लेशों से छुटकारा मिलना असम्भव है. क्रान्ति से हमारा मतलब अन्ततोगत्वा एक ऐसी समाज-व्यवस्था की स्थापना से है, जो इस प्रकार के संकटो से बरी होगी. यह है हमारा आदर्श. इस आदर्श की पूर्ति के लिये एक भयंकर युद्ध का छिड़ना अनिवार्य है. सभी बाधाओं को रौंद कर आगे बढ़ते हुए उस युद्ध के परिणामस्वरूप सर्वहारा वर्ग के अधिनायक-तन्त्र की स्थापना होगी. जनता की सर्वोपरि सत्ता को स्थापना श्रमिक वर्ग का अन्तिम लक्ष्य है. क्रान्ति की इस पूजा-वेदी पर हम अपना यौवन नैवेद्य के रूप में लाये हैं, हम सन्तुष्ट हैं और क्रान्ति के आगमन की उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहे है. पिस्तौल और बम इन्कलाब नहीं लाते, इन्कलाब की धार विचारों की सान पर तेज होती है.
सम्पादक मॉडर्न रिव्यू को पत्र (22 दिसंबर, 1929): क्रान्ति का अर्थ प्रगति के लिये परिवर्तन की भावना एवं आकांक्षा है. लोग साधारणतया जीवन की परम्परागत दशाओं से चिपक जाते हैं और परिवर्तन के विचार मात्र से ही काँपने लगते हैं. अकर्मण्यता का वातावरण निर्मित हो जाता है. ये परिस्थितियाँ समाज की उन्नति में गतिरोध का कारण बन जाती हैं. क्रान्ति की इस भावना से मनुष्य जाति की आत्मा स्थायी तौर पर ओत-प्रोत रहनी चाहिए. जिससे रूढ़िवादी शक्तियाँ मानव-समाज की प्रगति की दौड़ में बाधा डालने के लिये संगठित न हो सकें. यह ज़रूरी है कि पुरानी व्यवस्था सदैव न रहे और वह नयी व्यवस्था के लिये स्थान रिक्त करती रहे.
विप्लववाद (सितम्बर 1927): यह ख़याल कि कोई इन्कलाब करे और खून-खराबे से न डरे झटपट नहीं आ जाता. धीरे-धीरे शासक लोग ज़ुल्म करते हैं और लोग दरख्वास्तें देते हैं, लेकिन अहंकारी शासक उस तरफ़ ध्यान नहीं देते. फिर कुछ लोग हल्ला करते हैं, लेकिन कुछ नहीं बनता. उस समय फिर आगे बढ़े नौजवान इस काम को सम्भालते हैं. वे हाथों-हाथ काम करना चाहते हैं, मरना और मारना चाहते हैं और इस ढंग से ही जीत प्राप्त करना चाहते हैं. ऐसे लोगों को विप्लवी या इंकलाबी कहते हैं. पहले वे गुप्त काम करते हैं और बाद में बदल कर खुल्लमखुल्ला लड़ाई करने को तैयार हो जाते हैं. यदि किसी देश में शान्ति हो और लोग सुख-चैन से बैठे हों, तो वहाँ उतनी देर इन विचारों का प्रचार नहीं हो सकता. जब तक कि उन्हें कोई ऐसा बड़ा भारी नया विचार न दे दिया जाये, जिस पर वे परवानों की तरह कुर्बान हो जायें या ‘ज़ुल्म’ इस बात के लिये लोगों को तैयार करते हैं.
हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातान्त्रिक संघ का घोषणापत्र: भारत साम्राज्यवाद के जुए के नीचे पिस रहा है. भारत की बहुत बड़ी आबादी, जो मज़दूरों और किसानों की है, उसको विदेशी दबाव एवं आर्थिक लूट ने पस्त कर दिया है. उसके सामने दोहरा खतरा है – विदेशी पूँजीवाद का एक तरफ़ से और और भारतीय पूँजीवाद के धोखे भरे हमले का दूसरी तरफ़ से. भारतीय पूँजीवाद विदेशी पूँजी के साथ हर रोज़ बहुत-से गँठजोड़ कर रहा है. इसी कारण मेहनतकश की तमाम आशाएँ अब सिर्फ़ समाजवाद पर टिकी हैं.
लाला लाजपत राय और नौजवान (अगस्त 1928): क्या अभी केवल अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध ही क्रान्ति की जाये और शासन की बाग-डोर अमीरों के हाथ में दे दी जाये? करोड़ों जन इसी तरह नहीं, इससे भी अधिक बुरी स्थितियों में पड़ें, मरें और और तब फिर सैकड़ों वर्षों के खून-खराबे के बाद पुनः इस राह पर आयें और फिर हम अपने पूँजीपतियों के विरुद्ध क्रान्ति करें?
नौजवानों के नाम पत्र (2 फरवरी,1931): क्रान्ति के प्रति संजीदगी रखने वाले नौजवान कार्यकर्ताओं को मैं चेतावनी देना चाहता हूँ कि कठिन समय आ रहा है, वे चौकस रहें, हिम्मत न हारें और उलझनों में न फँसें. इन्कलाब का अर्थ मौज़ूदा सामाजिक ढाँचे में पूर्ण परिवर्तन और समाजवाद की स्थापना है. वास्तव में ‘राज’, यानि सरकारी मशीनरी, शासक वर्गों के हाथों में अपने हितों की रक्षा करने और उन्हें आगे बढ़ाने का यन्त्र ही है. हम इस यन्त्र को छीन कर अपने आदर्शों की पूर्ति के लिये इस्तेमाल करना चाहते हैं. हमारा आदर्श है − नये ढंग की सामाजिक संरचना, यानि मार्क्सवादी ढंग से.
हम समाजवादी क्रान्ति चाहते हैं, जिसके लिये बुनियादी ज़रूरत राजनीतिक क्रान्ति है. राजनितिक क्रान्ति का अर्थ है राजसत्ता का सामान्य जनता की कोशिशों से क्रान्तिकारी पार्टी के हाथों में आना. इसके बाद पूरी संजीदगी से पूरे समाज को समाजवादी दिशा में ले जाने के लिये जुट जाना होगा. क्रान्ति के लिये जिन शक्तियों पर हम निर्भर हो सकते हैं वे हैं किसान और मज़दूर. सर्वहारा श्रमिक वर्ग की क्रांति, सर्वहारा के लिये. मैं आतंकवादी नहीं, एक क्रान्तिकारी हूँ, जिसके दीर्घकालीन कार्यक्रम सम्बन्धी ठोस व विशिष्ट विचार हैं.
न तो क्रान्ति के लिये भावुक होने की ज़रूरत है और न ही यह सरल है. ज़रूरत है निरन्तर संघर्ष करने, कष्ट सहने और क़ुर्बानी भरा जीवन बिताने की. अपना व्यक्तिवाद पहले ख़त्म करो. व्यक्तिगत सुख के सपने उतार कर एक ओर रख दो और फिर काम शुरू करो. इंच-इंच कर आप आगे बढ़ेंगे. इसके लिये हिम्मत, दृढ़ता और मजबूत इरादे की ज़रूरत है. कितने ही भारी कष्ट व कठिनाइयाँ क्यों न हों, आपकी हिम्मत न काँपे. कोई भी पराजय या धोखा आपका दिल न तोड़ सके. कितने भी कष्ट क्यों न आयें, आपका क्रान्तिकारी जोश ठण्डा न पड़े.
समाज का पूँजीवादी ढाँचा नष्ट होना अटल है. व्यापक मन्दी का जारी रहना लाजमी है और बेरोज़गारों की फ़ौज तेजी से बढ़ेगी और यह बढ़ भी रही है, क्योंकि पूँजीवादी उत्पादन-व्यवस्था ही ऐसी है. यह चक्कर पूँजीवादी व्यवस्था को पटरी से उतार देगा. इसीलिये क्रान्ति अब भविष्यवाणी या सम्भावना नहीं, वरन ‘व्यावहारिक राजनीति’ है, जिसे सोची-समझी योजना और कठोर अमल से सफल बनाया जा सकता है. भारत में हम भारतीय श्रमिक के शासन से कम कुछ नहीं चाहते. भारतीय श्रमिकों को – भारत में साम्राज्यवादियों और उनके मददगारों को हटा कर जो उसी आर्थिक व्यवस्था के पैरोकार हैं, जिसकी जड़ें शोषण पर आधारित हैं – आगे आना है.
दुर्भाग्य से भारतीय क्रान्ति का बौद्धिक पक्ष हमेशा दुर्बल रहा है, इसलिये क्रान्ति की अत्यावश्यक चीजों और किये जाने वाले कामों के प्रभाव पर ध्यान नहीं दिया जाता रहा. इसलिये एक क्रान्तिकारी को अध्ययन-मनन अपनी पवित्र ज़िम्मेदारी बना लेना चाहिए.
क्रान्ति के लिये कोई छोटा रास्ता नहीं है. पूँजीवादी व्यवस्था चरमरा रही है और तबाही की ओर बढ़ रही है. यदि हमारी शक्ति बिखरी रही और क्रान्तिकारी शक्तियाँ एकजुट होकर न बढ़ सकीं, तो ऐसा संकट आयेगा कि हम उसे सँभालने के लिये तैयार नही होंगे.
तीसरी इन्टरनेशनल, मास्को के अध्यक्ष को तार (24 जनवरी, 1930): लेनिन-दिवस के अवसर पर हम सोवियत रूस में हो रहे महान अनुभव और साथी लेनिन की सफलता को आगे बढ़ाने के लिये अपनी दिली मुबारक़बाद भेजते हैं. हम अपने को विश्व क्रान्तिकारी आन्दोलन से जोड़ना चाहते हैं. मज़दूर-राज की जीत हो. सरमायेदारी का नाश हो. समाजवादी क्रान्ति ज़िन्दाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद.
बम का दर्शन (26 जनवरी, 1930): क्रान्ति पूँजीवाद, वर्गवाद तथा कुछ विशेष लोगों को ही विशेष अधिकार दिलाने वाली प्रणाली का अन्त कर देगी. वह राष्ट्र को अपने पैरों पर खड़ा करेगी. वह मज़दूरों तथा किसानों का राज कायम कर उन सब अवांछित सामाजिक तत्वों को समाप्त कर देगी, जो देश की राजनीतिक शक्ति हथिथाये बैठे हैं.
फाँसी देने के बदले हमें गोली से उड़ा दिया जाये (20 मार्च, 1931): युद्ध छिड़ा हुआ है और तब तक चलता रहेगा, जब तक समाज का वर्तमान ढाँचा समाप्त नहीं हो जाता, जिसमें शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है − चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज़ पूँजीपति और भारतीय हों या सर्वथा भारतीय ही हों.
मैं नास्तिक क्यों हूँ (5 अक्टूबर, 1930): जब अपने कन्धों पर (नेतृत्व की) ज़िम्मेदारी उठाने का समय आया, वह मेरे क्रान्तिकारी जीवन का एक निर्णायक बिन्दु था. अध्ययन की पुकार मेरे मन में उठ रही थी – विरोधियों के तर्कों का सामना करने योग्य बनने के लिये अध्ययन करो. अपने मत के समर्थन में तर्क देने के लिये सक्षम होने के वास्ते पढ़ो. मैंने पढ़ना शुरू कर दिया. अब रहस्य और अन्धविश्वास के लिये कोई स्थान न रहा. यथार्थवाद हमारा आदर्श बना. मुझे विश्व-क्रान्ति के अनेक आदर्शों के बारे में पढ़ने का मौका मिला. मैंने अराजकतावादी बाकूनिन को, कुछ साम्यवाद के पिता मार्क्स को, किन्तु ज़्यादातर लेनिन, त्रात्सकी व अन्य लोगों को पढ़ा, जो अपने देश में सफलतापूर्वक क्रान्ति लाये थे. वे सभी नास्तिक थे. 1926 के अन्त तक मुझे इसका विश्वास हो गया कि एक सर्वशक्तिमान परम-आत्मा की बात − जिसने ब्रह्माण्ड का सृजन किया, दिग्दशन और संचालन किया – एक कोरी बकवास है. मैंने अपने अविश्वास को प्रदर्शित किया. मैं एक घोषित नास्तिक हो चुका था.
ईश्वर से मनुष्य को अत्यधिक सान्त्वना देने वाला एक आधार मिल सकता है. ‘विश्वास’ कष्टों को हल्का कर देता है, यहाँ तक कि उन्हें सुख कर बना सकता है. ‘उसके’ बिना मनुष्य को स्वयं अपने ऊपर निर्भर होना पड़ता है. तूफ़ान और झंझावात के बीच अपने पैरों पर खड़ा रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है. और जो आदमी अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश करता है और यथार्थवादी हो जाता है, उसे धार्मिक विश्वास को एक तरफ़ रख कर जिन मुसीबतों और दुखों में परिस्थितियों ने उसे डाल दिया है, उनका सामना मर्दानगी से करना होगा. निरा विश्वास और अन्धविश्वास ख़तरनाक है. यह मस्तिष्क को कुण्ठित और आदमी को प्रतिक्रियावादी बना देता है. हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और समस्त प्रकृति का ध्येय मनुष्य द्वारा अपनी सेवा के लिये प्रकृति पर विजय पाना है – यही हमारा दर्शन है.
अपनी नियति का सामना करने के लिये मुझे किसी नशे की आवश्यकता नहीं है. मैं अपना जीवन एक ध्येय के लिये कुर्बान करने जा रहा हूँ, इस विचार के अलावा और क्या सान्त्वना हो सकती है? हिन्दू पुनर्जन्म पर राजा होने की आशा कर सकता है, मुसलमान या ईसाई स्वर्ग में समृद्धि के आनन्द तथा अपने कष्टों और बलिदानों के लिये पुरस्कार की कल्पना कर सकता है. किन्तु मैं किस बात की आशा करूँ? मैं जानता हूँ, जिस क्षण रस्सी का फन्दा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख्ता हटेगा, वही पूर्णविराम होगा − वही अन्तिम क्षण होगा. मैं या मेरी ‘आत्मा’ सब वहीं समाप्त हो जायेगी. आगे कुछ भी नहीं रहेगा. एक छोटी-सी जूझती हुई ज़िन्दगी, जिसकी कोई गौरवशाली परिणति नहीं है, अपने में स्वयं एक पुरस्कार होगी – यदि मुझमें इस दृष्टि से देखने का साहस हो. बिना किसी स्वार्थ के, यहाँ या यहाँ के बाद पुरस्कार की इच्छा के बिना मैंने अनासक्त भाव से अपने जीवन को अपने ध्येय पर समर्पित कर दिया है क्योंकि मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था.
पिता को पत्र(1923): मेरी ज़िन्दगी मकसद-ए-आला यानि आज़ादी-ए-हिन्द के उसूल के लिये वक्फ़ हो चुकी है. इसीलिये मेरी ज़िन्दगी में आराम और दुनियावी ख्वाहशात बायस-ए-कशिश नहीं है. उम्मीद है आप मुझे माफ़ फरमायेंगे.
(व्यक्तित्व विकास केन्द्र, आज़मगढ़. वैज्ञानिक पद्धति से कक्षा नौ से बारह तक सभी विषयों की शिक्षा. सम्पर्क : 9450735496)
Tuesday, 1 November 2022
____ सही हिन्दी के बारे में — गिरिजेश ____
(प्रिय मित्र, कल रात में मैं इस लेख को पूरा नहीं कर सका था. उसे और विस्तार से अब लिख सका. असुविधा के लिये खेद है. पंकज कुमार जी ने मुझसे यह लिखवा लिया. उनके प्रति मैं केवल साधुवाद व्यक्त कर सकता हूँ. अभी तक इस विषय पर केवल बोला ही था. भाषा-विज्ञान का बोध मुझे अपने आदरणीय गुरु जी प्रो. Prabhunath Singh Mayankसे प्राप्त हुआ. लेख में मात्र कलम मेरी है और ज्ञान उनका. ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश (19.9.15.)
प्रश्न : पंकज कुमार - "हिंदी या हिन्दी ? व्याकरण के अनुसार 'हिंदी' ग़लत है और 'हिन्दी' सही है. क्योंकि नियम है - "वर्गे वर्गान्तः". देवनागरी लिपि के पाँच वर्गों में से अनुस्वार के बाद आने वाला वर्ण जिस वर्ग का सदस्य होता है, उसी वर्ग का अन्तिम वर्ण उसकी जगह ले लेता है. हिन्दी में द वर्ण त वर्ग का है, इसीलिये आधा न बन जायेगा. त वर्ग का एक और उदाहरण देखिए – चन्दन. जबकि ट वर्ग का तीसरा वर्ण ड है, इसलिये इसमें अनुस्वार को आधा ण में बदल कर पण्डित कर देते हैं. इसी तरह प वर्ग का प्रथम अक्षर प है, तो अनुस्वार को यहाँ आधा म में बदल कर कम्पनी लिखा जाता है. मन्थन में थ त वर्ग का वर्ण है. इसमें अनुस्वार आधा न में बदलता है. जबकि क वर्ग और च वर्ग के अन्तिम वर्णों को टाइपिंग की सीमा के चलते लिखना मुश्किल है. इसलिये उनके स्थान पर अनुस्वार से ही काम चलाना पड़ रहा है. जैसे लंका, चंचल.
मात्राओं के नामों का प्रयोग बन्द हो चुका है. ‘छोटी’ मात्रा, ‘बड़ी’ मात्रा कहना ग़लत है. अपने उच्चारण में निकलने वाली वायु की मात्रा के आधार पर तीन मात्राएँ होती हैं. छोटी मात्रा का नाम ‘ह्रस्व’ है. इसमें एक निश्चित मात्रा में कम वायु निकलती है. ‘ह्रस्व’ मात्रा की दूनी मात्रा में वायु निकलने पर उसका नाम बड़ी मात्रा के बजाय ‘दीर्घ’ मात्रा है और ह्रस्व की तीन गुनी मात्रा निकलने पर उसे ‘प्लुत’ मात्रा कहते हैं. अब हिन्दी में प्लुत मात्रा का प्रयोग समाप्त हो चुका है. उदहारण है ॐ. इसे ओ3म् या ओSम् लिखा देखा गया है. हिन्दी में ‘ए’ की केवल ह्रस्व मात्रा का प्रचलन बच गया है. इसकी दीर्घ मात्रा का लोप हो चुका है. बोलने के सहारे हम इसकी दीर्घ मात्रा का उच्चारण तथा बोध कर ले जाते हैं. ह्रस्व ए के उदहारण हैं ‘गयेउ’, ‘जानेसि’ और इनका दीर्घ होगा ‘गये’ या ‘जाने’. या 'बेटवा' में ह्रस्व ए है और 'बेटा' में दीर्घ. जबकि अंग्रेज़ी में PEN और PAIN या NAME के रूप में इनके अन्तर को लिख कर व्यक्त किया जाता है.
सड़क वाला ‘छोटा’ स, शहर वाला ‘बड़ा’ श तथा रोष वाला ‘पेट-फ़ड़वा’ ष कहना ग़लत है. लोक ने उच्चारण की सुविधा के चक्कर में देशज बोली भोजपुरी की सहायता से ‘श’ को ‘स’ और ‘ष’ को ‘ख’ कर दिया है. इन तीनों मात्राओं का नामकरण इन के उच्चारण में निकलने वाली वायु के टकराने वाले स्थान के आधार पर किया गया है. ‘स’ के उच्चारण में वायु दाँतों से टकराती है. इस वजह से इसे ‘दन्त्य’ स कहते हैं. ‘श’ के उच्चारण में वायु तालु से टकरा कर सीटी की आवाज़ की तरह निकलती है. इसलिये इसका नाम ‘तालव्य’ श है. और ‘ष’ के उच्चारण में वायु तालु के पिछले भाग में जहाँ से घाँटी लटकती है, उस स्थान से टकराती है. उस स्थान का नाम ‘मूर्धा’ है. इसी कारण ‘ष’ को ‘मूर्धन्य’ कहते हैं. इसके उच्चारण के लिये जीभ को पीछे की ओर मोड़ना होता है. ऐसा करना थोड़ा कठिन होने के चलते ‘श’ से ही दोनों का काम चला लिया जाता है. या फिर इसे ‘ख’ कह दिया जाता है. कच्छा और कक्षा का भी यही मामला है. पहिनने वाले वस्त्र को कच्छा और समूह या स्थान का बोध करने वाले को कक्षा कहते हैं. लोग अपनी सुविधा के लिये सरलीकरण में दोनों को कच्छा कह लेते हैं. जब कि कक्षा के उच्चारण में ‘कक्शा’ कहना शुद्ध है. इसी तरह ‘क्षण’ को ‘छड़’, ‘उदाहरण’ को ‘उदाहरड़’ और ‘टिप्पणी’ को ‘टिप्पड़ी’ कहना ग़लत है.
लिंग और वचन के मामले में भी दोष दिखाई देता है. लडकियाँ एक वचन स्त्री लिंग की जगह बहुवचन पुल्लिंग का प्रयोग करती हैं और ‘मैं जाती हूँ.’ के स्थान पर ‘हम जाते हैं.’ बोलती रहती हैं. ‘अच्छी गीत’ गलत है और ‘अच्छा कविता’ भी ग़लत है. गीत अकारान्त होने के चलते पुल्लिंग है और ‘अच्छा गीत’ सही है. जब कि कविता आकारान्त है. इसलिये स्त्रीलिंग है. तो ‘अच्छी कविता’ सही है. एक वचन उत्तम पुरुष कर्ता ‘मैं’ भोजपुरी में है ही नहीं. उसके स्थान पर ‘मो’ है. हिन्दी में स्थानीयता के असर और भाषा के लोकानुगामिनी होने के कारण ‘मैं’ को ‘हम’ कहने का चलन है. जबकि यह बहुवचन है. हालाँकि कुछ विद्वान स्वयं को सम्मान देने का कारण बता कर ‘मैं’ की जगह ‘हम’ के प्रयोग को सही ठहराते हैं. परन्तु यह ग़लत है. भूतकाल में कर्ता कारक के चिह्न ‘ने’ और कर्म कारक के चिह्न ‘को’ का प्रयोग एक स्थान पर सही है, तो दूसरे स्थान पर ग़लत भी है. उदहारण के लिये ‘मैंने गया’ ग़लत है और ‘मैं गया’ सही है. जबकि ‘मैंने पढ़ा’ सही है और ‘मैं पढ़ा’ ग़लत है. इसी तरह ‘पत्र को लिखा’ ग़लत है और ‘पत्र लिखा’ सही है. ‘राम रावण मारा’ ग़लत है और ‘राम ने रावण को मारा’ सही. इसी तरह 'चाहिये', 'कीजिये' ग़लत है क्योंकि जिसके एक वचन पुल्लिंग में 'या' आयेगा, उसके बहुवचन में 'ये' लगेगा. उदहारण देखिए -लिया से लिये और इसलिये, आया से आये, गया से गये, आदि.ऊपर के इन दोनों उदाहरणों में 'ए' लगेगा और 'चाहिए' और 'दीजिए' सही है.
प्रश्न : पंकज कुमार - "इसलिए" सही शब्द है न ? अनुस्वार के प्रयोग में भी समस्या है , शब्दकोष के अनुसार जिंदा सही होना चाहिए।
नहीं, 'इसलिए' सही नहीं हो सकता, क्योंकि 'लिया' तो होता है, 'लिआ' नहीं होता. इस और लिये को जोड़ देने पर 'इसलिये' ही सही है.
'जिंदा' भी सही नहीं है. 'ज़िन्दा' सही है. ज़ का नुक्ता उर्दू से है और आधा न उपरोक्त नियम के अनुरूप.
पंकज कुमार - लिये शब्द किसी भी शब्दकोष में है ही नहीं। इन दिनों काफी पढ़ा है इंसबके विषय में। लिये एक जगह मिला मुझे - लिये दिये - लेन देन के अर्थ में , अब कोई प्रामाणिक व्याकरण भी नहीं है , जो भी मिली ऑनलाइन अधूरी ही है और शब्द रचना का अध्याय ही गायब है। हर जगह लिए औए इसलिए ही दिख रहा है , यह सीमा टाइपिंग की है. हिन्दी टाइपिंग में कोई भी अर्धाक्षर और संयुक्ताक्षर लिखने के लिये ‘न्युमरिक लेटर्स’ के कई बटन दबा कर उसे बनाया जाता है. उसके झमेले में उलझने के बजाय सीधे हलन्त लगाना आसान है और टाइपिस्ट इसी आसान तरीक़े से ही काम चलाना पसन्द करता है. सीधे ऑन लाइन टाइपिंग के लिये प्रयुक्त होने वाले यूनिकोड ने भाषा को अक्षर-विन्यास की दृष्टि से और बिगाड़ा है क्योंकि यूनिकोड में न तो अर्धाक्षर हैं और न ही संयुक्ताक्षर.
सरलीकरण के नाम पर भी हिन्दी में तरह-तरह के प्रयोग होते रहे हैं. जैसे क और च वर्ग के अन्तिम वर्णों का प्रयोग और संयुक्ताक्षरों का प्रयोग लगभग बन्द हो चुका है. ‘लिये’ की जगह ‘लिए’ भी इसी तरह का मामला है. शिरोरेखा का प्रयोग करने के विरुद्ध राहुल बाबा के ज़माने से ही विवाद चलता चला आ रहा है. भाषा के सरलीकरण के नाम पर अनुनासिक का प्रयोग बन्द किया जा रहा है. उसकी जगह भी अनुस्वार से ही काम चलाने का चलन चल पड़ा है. अब ‘आँख’ को ‘आंख’ और ‘गाँधी’ को ‘गांधी’ लिखने और उसे सही समझने का दौर है. समकालीन कविता ने स्वयं को परम्परा के सभी बन्धनों से मुक्त किया है. इन बन्धनों में विराम-चिह्न भी हैं. समर्थ कलमकार भी गद्य में ही नहीं, कविता में और भी खुल कर पूर्ण-विराम के साथ ही अन्य सभी विराम-चिह्नों का प्रयोग बन्द कर चुके हैं. हिन्दी भाषा में सचेत तौर पर की जा रही इन सभी विकृतियों को शास्त्र के विरुद्ध होने के बावज़ूद अबोध जन-सामान्य सहज भाव से चुपचाप स्वीकारता जा रहा है. परन्तु जिनको भाषा-विज्ञान और व्याकरण के नियमों का तनिक भी ज्ञान है, उनके लिये यह ऊँट के लिये संस्कृत में शुद्ध शब्द ‘उष्ट्र’ के बजाय कालिदास के द्वारा ‘उट्र-उट्र’ कहने की तरह त्रासद है.
___________________X___________________
____विराम-चिह्नों की सही जगह के बारे में____
प्रश्न : — वाक्य के अन्त में पूर्णविराम तुरन्त लगता है या एक स्पेस के बाद ?
उत्तर : — सभी विराम चिह्न, चाहे अल्पविराम हो, या अर्धविराम, चाहे पूर्णविराम हो, प्रश्न-चिह्न हो या विस्मयादि बोधक चिह्न या सामासिक चिह्न सब के सब अपने पहले वाले शब्द के बाद तुरन्त ही लगाये जाते हैं. उसके बाद वाले शब्द या वाक्य को लिखने के पहले एक स्पेस दिया जाता है. मगर शीर्षक चिह्न और डैश के आगे और पीछे स्पेस देना होता है.
चूँकि फेसबुक के फ़ॉन्ट्स यूनीकोड में होने के चलते मंगल या अपराजिता नामक फ़ॉन्ट्स की डिज़ाइन की सीमाएँ हैं, तो यदि तुरन्त दिया हुआ पूर्ण-विराम, प्रश्न-चिह्न या विस्मयादि बोधक चिह्न स्पष्ट न दिखे, तो हम उसके दिखाई देने के लिये उसके पहले एक स्पेस दे देते हैं.
और कोई-कोई लेखक तो नये वाक्य के आरम्भ के पहले ही एक की जगह दो स्पेस देने का प्रयोग करते रहे हैं.
अल्पविराम (,), अर्धविराम ( ; ), पूर्णविराम (|), विस्मयादि बोधक चिह्न (!), प्रश्न-चिह्न (?), शीर्षक चिह्न ( : — ) और डैश (—) ये हैं.
___________________ X __________________
श्यामसुन्दर दास का हिन्दी शब्दसागर सबसे अधिक प्रामाणिक शब्दकोष है. इस के लिये लिंक यह देखिए. यह डाउनलोड भी हो जायेगा. http://dsal.uchicago.edu/dictionaries/dasa-hindi/ Hindi sabdasagara. Online version of Syamasundara Dasa's 'Hindi sabdasagara' from the Digital Dictionaries of... DSAL.UCHICAGO.EDU लिये को श्यामसुन्दरदास ने प्रयोग किया है. ...दान के ‘लिये’ निकाला हुआ अन्न । ...इसके लगाने के ‘लिये’ कुछ चूना लगी हुई मिट्टी चाहिए । ...छिलके को नरम करने के ‘लिये’ या तो गंधक की धनी देते हैं अथवा नमक और शोरा मिले हुए गरम पानी में फलों को डुबाते हैं । ...मकानों की छाजन के ऊपर के गोलकलश जो शोभा के ‘लिये’ बनाए जाते हैं । ...अंडे सेना = (१) पक्षियों का अपने अंडे पर गर्मी पहुँचाने के ‘लिये’ बैठना । ...यज्ञ की अग्नि को घेरने के ‘लिये’ जो तीन हरी लकड़ियाँ रखी जाती हैं, उनके भीतर का स्थान । http://dsalsrv02.uchicago.edu/... /phil.../ search3advanced... और 'लिए' के प्रयोग इसी कोष में यहाँ हैं.http://dsalsrv02.uchicago.edu/.../phil.../search3advanced... Hindi sabdasagara Online version of Syamasundara Dasa's 'Hindi sabdasagara' from the Digital Dictionaries of... DSALSRV02.UCHICAGO.EDU भाषा-विज्ञान में व्याकरण के इस पक्ष की विस्तार में चर्चा उपलब्ध है. भाषा-विज्ञान के लिये यह लिंक बेहतर लग रहा है.http://elearning.sol.du.ac.in/dusol/mod/book/view.php... Hindi-A / सामान्य भाषाविज्ञानभाषाविज्ञान : परिभाषा, स्वरूप, अèययन की प(तियां ELEARNING.SOL.DU.AC.IN गद्यकोश में भी है. http://gadyakosh.org/.../%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0... हिन्दी भाषाविज्ञान - Gadya Kosh - हिन्दी कहानियाँ, लेख, लघुकथाएँ, निबन्ध,... GADYAKOSH.ORG एक और है...https://hi.wiktionary.org/.../%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7... भाषाविज्ञान की शब्दावली – विक्षनरी HI.WIKTIONARY.ORG https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10205139127425613&set=a.2043969386669.2098291.1467398103&type=3&theater
प्रश्न : पंकज कुमार - "हिंदी या हिन्दी ? व्याकरण के अनुसार 'हिंदी' ग़लत है और 'हिन्दी' सही है. क्योंकि नियम है - "वर्गे वर्गान्तः". देवनागरी लिपि के पाँच वर्गों में से अनुस्वार के बाद आने वाला वर्ण जिस वर्ग का सदस्य होता है, उसी वर्ग का अन्तिम वर्ण उसकी जगह ले लेता है. हिन्दी में द वर्ण त वर्ग का है, इसीलिये आधा न बन जायेगा. त वर्ग का एक और उदाहरण देखिए – चन्दन. जबकि ट वर्ग का तीसरा वर्ण ड है, इसलिये इसमें अनुस्वार को आधा ण में बदल कर पण्डित कर देते हैं. इसी तरह प वर्ग का प्रथम अक्षर प है, तो अनुस्वार को यहाँ आधा म में बदल कर कम्पनी लिखा जाता है. मन्थन में थ त वर्ग का वर्ण है. इसमें अनुस्वार आधा न में बदलता है. जबकि क वर्ग और च वर्ग के अन्तिम वर्णों को टाइपिंग की सीमा के चलते लिखना मुश्किल है. इसलिये उनके स्थान पर अनुस्वार से ही काम चलाना पड़ रहा है. जैसे लंका, चंचल.
मात्राओं के नामों का प्रयोग बन्द हो चुका है. ‘छोटी’ मात्रा, ‘बड़ी’ मात्रा कहना ग़लत है. अपने उच्चारण में निकलने वाली वायु की मात्रा के आधार पर तीन मात्राएँ होती हैं. छोटी मात्रा का नाम ‘ह्रस्व’ है. इसमें एक निश्चित मात्रा में कम वायु निकलती है. ‘ह्रस्व’ मात्रा की दूनी मात्रा में वायु निकलने पर उसका नाम बड़ी मात्रा के बजाय ‘दीर्घ’ मात्रा है और ह्रस्व की तीन गुनी मात्रा निकलने पर उसे ‘प्लुत’ मात्रा कहते हैं. अब हिन्दी में प्लुत मात्रा का प्रयोग समाप्त हो चुका है. उदहारण है ॐ. इसे ओ3म् या ओSम् लिखा देखा गया है. हिन्दी में ‘ए’ की केवल ह्रस्व मात्रा का प्रचलन बच गया है. इसकी दीर्घ मात्रा का लोप हो चुका है. बोलने के सहारे हम इसकी दीर्घ मात्रा का उच्चारण तथा बोध कर ले जाते हैं. ह्रस्व ए के उदहारण हैं ‘गयेउ’, ‘जानेसि’ और इनका दीर्घ होगा ‘गये’ या ‘जाने’. या 'बेटवा' में ह्रस्व ए है और 'बेटा' में दीर्घ. जबकि अंग्रेज़ी में PEN और PAIN या NAME के रूप में इनके अन्तर को लिख कर व्यक्त किया जाता है.
सड़क वाला ‘छोटा’ स, शहर वाला ‘बड़ा’ श तथा रोष वाला ‘पेट-फ़ड़वा’ ष कहना ग़लत है. लोक ने उच्चारण की सुविधा के चक्कर में देशज बोली भोजपुरी की सहायता से ‘श’ को ‘स’ और ‘ष’ को ‘ख’ कर दिया है. इन तीनों मात्राओं का नामकरण इन के उच्चारण में निकलने वाली वायु के टकराने वाले स्थान के आधार पर किया गया है. ‘स’ के उच्चारण में वायु दाँतों से टकराती है. इस वजह से इसे ‘दन्त्य’ स कहते हैं. ‘श’ के उच्चारण में वायु तालु से टकरा कर सीटी की आवाज़ की तरह निकलती है. इसलिये इसका नाम ‘तालव्य’ श है. और ‘ष’ के उच्चारण में वायु तालु के पिछले भाग में जहाँ से घाँटी लटकती है, उस स्थान से टकराती है. उस स्थान का नाम ‘मूर्धा’ है. इसी कारण ‘ष’ को ‘मूर्धन्य’ कहते हैं. इसके उच्चारण के लिये जीभ को पीछे की ओर मोड़ना होता है. ऐसा करना थोड़ा कठिन होने के चलते ‘श’ से ही दोनों का काम चला लिया जाता है. या फिर इसे ‘ख’ कह दिया जाता है. कच्छा और कक्षा का भी यही मामला है. पहिनने वाले वस्त्र को कच्छा और समूह या स्थान का बोध करने वाले को कक्षा कहते हैं. लोग अपनी सुविधा के लिये सरलीकरण में दोनों को कच्छा कह लेते हैं. जब कि कक्षा के उच्चारण में ‘कक्शा’ कहना शुद्ध है. इसी तरह ‘क्षण’ को ‘छड़’, ‘उदाहरण’ को ‘उदाहरड़’ और ‘टिप्पणी’ को ‘टिप्पड़ी’ कहना ग़लत है.
लिंग और वचन के मामले में भी दोष दिखाई देता है. लडकियाँ एक वचन स्त्री लिंग की जगह बहुवचन पुल्लिंग का प्रयोग करती हैं और ‘मैं जाती हूँ.’ के स्थान पर ‘हम जाते हैं.’ बोलती रहती हैं. ‘अच्छी गीत’ गलत है और ‘अच्छा कविता’ भी ग़लत है. गीत अकारान्त होने के चलते पुल्लिंग है और ‘अच्छा गीत’ सही है. जब कि कविता आकारान्त है. इसलिये स्त्रीलिंग है. तो ‘अच्छी कविता’ सही है. एक वचन उत्तम पुरुष कर्ता ‘मैं’ भोजपुरी में है ही नहीं. उसके स्थान पर ‘मो’ है. हिन्दी में स्थानीयता के असर और भाषा के लोकानुगामिनी होने के कारण ‘मैं’ को ‘हम’ कहने का चलन है. जबकि यह बहुवचन है. हालाँकि कुछ विद्वान स्वयं को सम्मान देने का कारण बता कर ‘मैं’ की जगह ‘हम’ के प्रयोग को सही ठहराते हैं. परन्तु यह ग़लत है. भूतकाल में कर्ता कारक के चिह्न ‘ने’ और कर्म कारक के चिह्न ‘को’ का प्रयोग एक स्थान पर सही है, तो दूसरे स्थान पर ग़लत भी है. उदहारण के लिये ‘मैंने गया’ ग़लत है और ‘मैं गया’ सही है. जबकि ‘मैंने पढ़ा’ सही है और ‘मैं पढ़ा’ ग़लत है. इसी तरह ‘पत्र को लिखा’ ग़लत है और ‘पत्र लिखा’ सही है. ‘राम रावण मारा’ ग़लत है और ‘राम ने रावण को मारा’ सही. इसी तरह 'चाहिये', 'कीजिये' ग़लत है क्योंकि जिसके एक वचन पुल्लिंग में 'या' आयेगा, उसके बहुवचन में 'ये' लगेगा. उदहारण देखिए -लिया से लिये और इसलिये, आया से आये, गया से गये, आदि.ऊपर के इन दोनों उदाहरणों में 'ए' लगेगा और 'चाहिए' और 'दीजिए' सही है.
प्रश्न : पंकज कुमार - "इसलिए" सही शब्द है न ? अनुस्वार के प्रयोग में भी समस्या है , शब्दकोष के अनुसार जिंदा सही होना चाहिए।
नहीं, 'इसलिए' सही नहीं हो सकता, क्योंकि 'लिया' तो होता है, 'लिआ' नहीं होता. इस और लिये को जोड़ देने पर 'इसलिये' ही सही है.
'जिंदा' भी सही नहीं है. 'ज़िन्दा' सही है. ज़ का नुक्ता उर्दू से है और आधा न उपरोक्त नियम के अनुरूप.
पंकज कुमार - लिये शब्द किसी भी शब्दकोष में है ही नहीं। इन दिनों काफी पढ़ा है इंसबके विषय में। लिये एक जगह मिला मुझे - लिये दिये - लेन देन के अर्थ में , अब कोई प्रामाणिक व्याकरण भी नहीं है , जो भी मिली ऑनलाइन अधूरी ही है और शब्द रचना का अध्याय ही गायब है। हर जगह लिए औए इसलिए ही दिख रहा है , यह सीमा टाइपिंग की है. हिन्दी टाइपिंग में कोई भी अर्धाक्षर और संयुक्ताक्षर लिखने के लिये ‘न्युमरिक लेटर्स’ के कई बटन दबा कर उसे बनाया जाता है. उसके झमेले में उलझने के बजाय सीधे हलन्त लगाना आसान है और टाइपिस्ट इसी आसान तरीक़े से ही काम चलाना पसन्द करता है. सीधे ऑन लाइन टाइपिंग के लिये प्रयुक्त होने वाले यूनिकोड ने भाषा को अक्षर-विन्यास की दृष्टि से और बिगाड़ा है क्योंकि यूनिकोड में न तो अर्धाक्षर हैं और न ही संयुक्ताक्षर.
सरलीकरण के नाम पर भी हिन्दी में तरह-तरह के प्रयोग होते रहे हैं. जैसे क और च वर्ग के अन्तिम वर्णों का प्रयोग और संयुक्ताक्षरों का प्रयोग लगभग बन्द हो चुका है. ‘लिये’ की जगह ‘लिए’ भी इसी तरह का मामला है. शिरोरेखा का प्रयोग करने के विरुद्ध राहुल बाबा के ज़माने से ही विवाद चलता चला आ रहा है. भाषा के सरलीकरण के नाम पर अनुनासिक का प्रयोग बन्द किया जा रहा है. उसकी जगह भी अनुस्वार से ही काम चलाने का चलन चल पड़ा है. अब ‘आँख’ को ‘आंख’ और ‘गाँधी’ को ‘गांधी’ लिखने और उसे सही समझने का दौर है. समकालीन कविता ने स्वयं को परम्परा के सभी बन्धनों से मुक्त किया है. इन बन्धनों में विराम-चिह्न भी हैं. समर्थ कलमकार भी गद्य में ही नहीं, कविता में और भी खुल कर पूर्ण-विराम के साथ ही अन्य सभी विराम-चिह्नों का प्रयोग बन्द कर चुके हैं. हिन्दी भाषा में सचेत तौर पर की जा रही इन सभी विकृतियों को शास्त्र के विरुद्ध होने के बावज़ूद अबोध जन-सामान्य सहज भाव से चुपचाप स्वीकारता जा रहा है. परन्तु जिनको भाषा-विज्ञान और व्याकरण के नियमों का तनिक भी ज्ञान है, उनके लिये यह ऊँट के लिये संस्कृत में शुद्ध शब्द ‘उष्ट्र’ के बजाय कालिदास के द्वारा ‘उट्र-उट्र’ कहने की तरह त्रासद है.
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____विराम-चिह्नों की सही जगह के बारे में____
प्रश्न : — वाक्य के अन्त में पूर्णविराम तुरन्त लगता है या एक स्पेस के बाद ?
उत्तर : — सभी विराम चिह्न, चाहे अल्पविराम हो, या अर्धविराम, चाहे पूर्णविराम हो, प्रश्न-चिह्न हो या विस्मयादि बोधक चिह्न या सामासिक चिह्न सब के सब अपने पहले वाले शब्द के बाद तुरन्त ही लगाये जाते हैं. उसके बाद वाले शब्द या वाक्य को लिखने के पहले एक स्पेस दिया जाता है. मगर शीर्षक चिह्न और डैश के आगे और पीछे स्पेस देना होता है.
चूँकि फेसबुक के फ़ॉन्ट्स यूनीकोड में होने के चलते मंगल या अपराजिता नामक फ़ॉन्ट्स की डिज़ाइन की सीमाएँ हैं, तो यदि तुरन्त दिया हुआ पूर्ण-विराम, प्रश्न-चिह्न या विस्मयादि बोधक चिह्न स्पष्ट न दिखे, तो हम उसके दिखाई देने के लिये उसके पहले एक स्पेस दे देते हैं.
और कोई-कोई लेखक तो नये वाक्य के आरम्भ के पहले ही एक की जगह दो स्पेस देने का प्रयोग करते रहे हैं.
अल्पविराम (,), अर्धविराम ( ; ), पूर्णविराम (|), विस्मयादि बोधक चिह्न (!), प्रश्न-चिह्न (?), शीर्षक चिह्न ( : — ) और डैश (—) ये हैं.
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श्यामसुन्दर दास का हिन्दी शब्दसागर सबसे अधिक प्रामाणिक शब्दकोष है. इस के लिये लिंक यह देखिए. यह डाउनलोड भी हो जायेगा. http://dsal.uchicago.edu/dictionaries/dasa-hindi/ Hindi sabdasagara. Online version of Syamasundara Dasa's 'Hindi sabdasagara' from the Digital Dictionaries of... DSAL.UCHICAGO.EDU लिये को श्यामसुन्दरदास ने प्रयोग किया है. ...दान के ‘लिये’ निकाला हुआ अन्न । ...इसके लगाने के ‘लिये’ कुछ चूना लगी हुई मिट्टी चाहिए । ...छिलके को नरम करने के ‘लिये’ या तो गंधक की धनी देते हैं अथवा नमक और शोरा मिले हुए गरम पानी में फलों को डुबाते हैं । ...मकानों की छाजन के ऊपर के गोलकलश जो शोभा के ‘लिये’ बनाए जाते हैं । ...अंडे सेना = (१) पक्षियों का अपने अंडे पर गर्मी पहुँचाने के ‘लिये’ बैठना । ...यज्ञ की अग्नि को घेरने के ‘लिये’ जो तीन हरी लकड़ियाँ रखी जाती हैं, उनके भीतर का स्थान । http://dsalsrv02.uchicago.edu/... /phil.../ search3advanced... और 'लिए' के प्रयोग इसी कोष में यहाँ हैं.http://dsalsrv02.uchicago.edu/.../phil.../search3advanced... Hindi sabdasagara Online version of Syamasundara Dasa's 'Hindi sabdasagara' from the Digital Dictionaries of... DSALSRV02.UCHICAGO.EDU भाषा-विज्ञान में व्याकरण के इस पक्ष की विस्तार में चर्चा उपलब्ध है. भाषा-विज्ञान के लिये यह लिंक बेहतर लग रहा है.http://elearning.sol.du.ac.in/dusol/mod/book/view.php... Hindi-A / सामान्य भाषाविज्ञानभाषाविज्ञान : परिभाषा, स्वरूप, अèययन की प(तियां ELEARNING.SOL.DU.AC.IN गद्यकोश में भी है. http://gadyakosh.org/.../%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0... हिन्दी भाषाविज्ञान - Gadya Kosh - हिन्दी कहानियाँ, लेख, लघुकथाएँ, निबन्ध,... GADYAKOSH.ORG एक और है...https://hi.wiktionary.org/.../%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7... भाषाविज्ञान की शब्दावली – विक्षनरी HI.WIKTIONARY.ORG https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10205139127425613&set=a.2043969386669.2098291.1467398103&type=3&theater
Wednesday, 5 October 2022
एक मुसलमान मित्र से सवाल
प्रिय मित्र, वह क़यामत का दिन कब आयेगा ? मैं बचपन से ही इसके आने की कहानियां सुनता रहा हूँ. मगर अभी तक नहीं आया. यह खुदा कौन है ? कहाँ रहता है ?
खुदा की मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता है, तो गरीबों और मजलूमों पर दुनिया के सभी मुल्कों के हाकिमों द्वारा शोषण, दमन, क़त्ल, रेप, युद्ध, अन्याय, अत्याचार क्यों होते हैं ?
ख़ुदा को गुस्सा क्यों आता है ? ख़ुदा ने चाँद को दो टुकड़े कैसे और क्यों कर दिया और कैसे और क्यों दुबारा सिल कर एक कर दिया ?
जन्नतनशीन होने वाले मर्दों के लिये 72 हूरों की कहानी का क्या मकसद है ? औरतों के लिये कोई मर्द क्यों नहीं हैं ?
इस्लाम में जंग क्यों जायज है ?
जिहाद क्या है और क्यों जेहादी को शहीद या गाजी का उच्चतम दर्ज़ा प्राप्त है ?माल-ए-गनीमत लूट-पाट के अलावा और क्या है और कैसे जायज करार दिया जा सकता है ?
अगर किसी दूसरे किसी धर्म से मुसलमानों का से बैर नहीं है, तो गाज़ा पट्टी में इज़राइल का अत्याचार और उसका विरोध क्यों है ?
अभी सलमान रश्दी पर जानलेवा हमला क्या है ?
हर हारने वाले की तमाम तकलीफों के बारे में आपके विजेताओं ने, नबी ने या खुदा ने क्यों नहीं सोचा ?
धर्मान्तरण के लिए इस्लाम के अनुयायियों ने भी कम ज़ुल्म अपने विरोधियों पर नहीं किया है. याद रखिये.
शिया सुन्नी को, सुन्नी शिया को और दोनों बरेलवी को काफिर क्यों कहते हैं ?
कौन मुसलसल ईमान पर है ?
शैतान कौन है ? उसे क्यों पत्थर मारते हैं ? शैतान को महज़ माह-ए-रमजान के एक महीने के लिये क़ैद करने के बाद क्यों आज़ाद कर दिया जाता है ?
हज करने वाले कैसे गाजियों से बेहतर हैं ?
जन्नत और जहन्नुम क्या है ? कहाँ है ?
हज़रत मुहम्मद ने कितनी शादियाँ कीं और क्यों ?
किसी को गुलाम बनाना और मालिकों द्वारा गुलाम रखना, विरोधियों को क़त्ल करना, तिजारत करना क्यों हलाल है और बैंक में पैसे रखना, शराब पीना और खिलाफत की तुलना में सल्तनत क्यों हराम है ?
खुला, हलाला, तलाक के बारे में क्या कहना है आपका ? और किसी मासूम औरत को मर्दों द्वारा संगसार करके मार डालना क्यों इस्लाम की शरीयत का पवित्र क़ानून है ?
भावनाओं के आहत होने और ईश-निन्दा क़ानून के नाम पर किसी की भी हत्या क्या जायज है ?
बुत शिकन क्यों सबाव है ? बुत परस्ती क्यों हराम है ?
फोटो खिंचवाना और संगीत दोनों को ही इस्लाम क्यों नहीं स्वीकार करता ?
क्या मुसलमान अपनी फोटो नहीं खिंचवाते या वे संगीत की दुनिया में कारनामे नहीं कर रहे ? क्या वे ऐसा करके इस्लाम विरोधी कदम उठा रहे हैं ?
दारुल-अमन, दारुल-हरब, दारुल-इस्लाम के बारे में क्या कहना चाहते हैं ?
जितने फ़िरके हैं, उतने तरीके से सोचते हैं. सबके अपने-अपने इस्लाम क्यों हैं ?
आप हलाला को कलंक क्यों कहते हैं और बहुत से शरीयत को मानने वाले इसे लागू करते हैं. क्यों ?
तालिबान और आई.एस.आई.एस. जैसों की सोच के बारे में आप क्या सोचते हैं ?
शरीयत की अदालत में मर्दों की गवाही की तुलना में औरतों की गवाही क्यों कमतर है ?
ईरान में लड़कियों पर हिजाब के नाम पर अत्याचार क्यों हो रहा है ?
वे क्यों आन्दोलन कर रही हैं ?
Tuesday, 19 April 2022
#मैं_क्षमा_माँँगता_हूँ. प्रिय मित्र, मुझे जन्मदिन पर आप सभी ने भरपूर स्नेह, सम्मान और शुभकामनाएँ दीं.
मैं अपने प्रति आपके कोमल भावनात्मक लगाव के लिये अन्तर्मन से कृतज्ञ हूँ.
बदले में मैंने आप सभी से Personality Cultivation Center व्यक्तित्व विकास केन्द्र के कक्षा नौ से बारह तक की निःशुल्क शिक्षा-सेवा और उच्चशिक्षा ग्रहण कर रहे कुछ विद्यार्थियों की मदद के लिये सविनय मदद माँगी.
इस अवसर पर कुल ₹17,620/- की मदद प्राप्त हुई. मैं उन्हें हार्दिक धन्यवाद दे रहा हूँ. यह राशि आईआईटी में ऐडमिशन के लिये ख़र्च की जायेगी.
कुछ मित्रों ने आश्वासन दिया. कुछ ने लाइक किया. कुछ चुप रहे.
मेरा निवेदन है कि यदि आप इस ज्ञान-यज्ञ में अपनी आहुति देने की हालत या मानसिकता में नहीं हैं, तो कृपया दुःखी मत हों, मेरे प्यारे दोस्त !
जीवन में आपने कभी किसी की मदद की और धोखा खाया. आप सचेत हुए. आपके हिस्से का सच हृदयविदारक है. कटु है. परन्तु सच है.
आपके पाले में गेंद आयी, आपने ईमान से खेला. सामने वाले की चालाकी के लिये आप ज़िम्मेदार नहीं हो सकते.
मैंने तो ख़ुद को डीक्लास किया. परिवार नहीं बसाया. नौकरी-रोज़गार नहीं किया. सम्पत्ति नहीं बटोरी.
मैंने केवल शोषित-पीड़ित मानवता की विनम्रता से सेवा की. इसके लिये जीवन भर केवल सबसे भीख माँगी. हाँ, कभी अपना ईमान नहीं बेचा. जब ज़रूरत पड़ी, तो सेवा के लिये तरह-तरह की मज़दूरी भी की.
अब मेरा शरीर साथ नहीं दे पा रहा. अब मैं मज़दूरी करने लायक भी नहीं बचा. मुट्ठीभर लोगों की मदद से ही कुछ बच्चों की सेवा करता जा रहा हूँ.
इस हालत में भी कुछ लोग मेरा लगातार साथ दे रहे हैं. कुछ लोग कभी-कभार मदद करते रहते हैं. कुछ लोगों ने अपनी मदद बढ़ाई है. कुछ लोगों ने अपनी मदद घटाई है. कुछ लोग दुआएँ दे रहे हैं. कुछ लोग चुप हैं. कुछ लोग स्पष्ट इनकार करते रहे हैं. कुछ लोग पीछे भी हटते रहे हैं. कुछ लोग पीछे हटने के बाद दुबारा मदद शुरू किये हैं.
मैं ऐसे सभी लोगों का ऋणी हूँ. मैं ऐसे सभी लोगों के प्रति हार्दिक धन्यवाद व्यक्त कर रहा हूँ.
मैं आपको बार-बार परेशान करने के लिये विनम्रता से क्षमा-याचना कर रहा हूँ.
परन्तु हम जानते हैं कि प्रतीकात्मक स्तर पर भी सृजनात्मक जन-दिशा का परिवर्तनकामी मॉडल बिना जन-सहयोग और जन-समर्थन के यथास्थिति की हिमशिला की जड़ता को तोड़ने के लिये नहीं खड़ा किया जा सकता है.
इतिहास साक्षी है कि बार-बार जगह-जगह हमारी धरती पर अगणित लोगों ने अपने-अपने दौर में लोगों के सहयोग से ही इतिहास बनाया है.
सभी को मालूम है कि वर्तमान धन-तन्त्र सड़ चुका है. यह पूरी तरह जनविरोधी हो चुका है. अब यह किसी भी तरह मानवता की सेवा करने में अक्षम है. यह केवल शोषण और उत्पीड़न ही कर सकता है.
आज सम्पूर्ण मानव-जाति एक बार फिर नये सिरे से वर्तमान पूँजीवादी साम्राज्यवादी समाज-व्यवस्था के विकल्प की तलाश में है.
हम इस परिवर्तनकामी धारा के छोटे-से हिस्से मात्र हैं. हमें अपनी सीमाओं के बारे में तनिक भी भ्रम नहीं है.
फिर भी हमें मुसल्सल यकीन है कि इतिहास ने बार-बार करवट ली है और असमर्थ लग रहे अगणित लोगों के उमड़ने वाले जन-ज्वार में पुरानी सड़ी-गली दुनिया डूबती रही है और नया ज़माना आता रहा है.
हम एक बार फिर इतिहास बनाने के लिये बज़िद हैं. हमारा रास्ता मुश्किलों भरा है. मगर आने वाला कल हर बार की तरह ही इस बार भी हमारा ही होगा.
"हमें पता है कि मुश्किल है रास्ता अपना,
हमारी ज़िद को तोड़ना भी तो आसान नहीं."
इसलिये एक बार फिर सविनय अनुरोध कर रहा हूँ कि कृपया हमारी न्यूनतम नियमित मदद कीजिए. आपकी छोटी-सी मदद से किसी ज़रूरतमन्द मेधावी बच्चे का कल बदल सकता है.
पहले इस केन्द्र में आने वाले सभी बच्चों से कुछ भी नहीं लिया जाता था. परन्तु अब जब लॉकडाउन-2 के बाद ग़रीबी की जगह कंगाली आ गयी है, तो उनसे भी उनकी स्थिति और इच्छा के अनुरूप अधिकतम 500/- या उससे कम मदद का अनुरोध किया जा रहा है.
अधिकतर बच्चे अभी भी कुछ भी नहीं देने की स्थिति में हैं. पिछले तीन महीने से 4-4 और 3 हज़ार रुपये कुछ बच्चों ने दिया. पहले दो महीनों में वह पैसा शिक्षकों के बीच उनके 5000/- के मानदेय के साथ बाँट दिया गया.
इस बार शिक्षक साथियों ने आपस में यह फैसला किया कि जो भी मदद बच्चे देते हैं, उसे उच्च-शिक्षा के साथियों को दे दिया जायेगा.
कल ही एक बच्चे को बहुत सुन्दर लिखने पर लिखने में लगा समय लिखने के लिये सलाह देने पर उसने बताया कि उसके पास घड़ी नहीं है और अपनी घड़ी देने की पेशकश पर बताया कि उसकी मँड़ई में घड़ी टाँगने की जगह भी नहीं है. ऐसे बच्चे अपने लिये किताबें और मोबाइल कैसे जुटा सकते हैं ?
ढेर सारा प्यार - आपका गिरिजेश 17.4.22.
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