कफ़न खसोट कर लाशों को बेच देते हैं,
बडे़ ज़हीन हो चले हैं मेरे देश के लोग। रहे महान तो अंग्रेज को भगा डाला,
पर अब महीन हो चले हैं मेरे देश के लोग।
किसे पड़ी है वतन पर सितम की जो सोचे,
मज़े से ज़िन्दगी कटने की फ़िक्र क्या कम है?
विदेशी पूँजी रहे, लूट रहे, ऐश रहे,
वतन ग़ुलाम अगर होता है, तो क्या गम है?
जो बातें मुल्क-ओ-इंकलाब की, इन्सान की हैं,
हकूक-ओ-अम्न की, एखलाक-ओ-ईमान की हैं।
महज सुनते हैं, सुना करते हैं, सुन लेते हैं,
बड़े करीने से अपने को बचा लेते हैं।
क्या बेवकूफ हैं - टकरायें और मिट जायें?
ये ‘होशियार’ हैं, झुक जाते और जीते हैं,
इन्हें तमीज़ कहाँ, फर्क करे, देख सकें?
बुतों को दूध पिलाते हैं, लहू पीते हैं।
विदेशी पूँजी रहे, लूट रहे, ऐश रहे,
वतन ग़ुलाम अगर होता है, तो क्या गम है?
जो बातें मुल्क-ओ-इंकलाब की, इन्सान की हैं,
हकूक-ओ-अम्न की, एखलाक-ओ-ईमान की हैं।
महज सुनते हैं, सुना करते हैं, सुन लेते हैं,
बड़े करीने से अपने को बचा लेते हैं।
क्या बेवकूफ हैं - टकरायें और मिट जायें?
ये ‘होशियार’ हैं, झुक जाते और जीते हैं,
इन्हें तमीज़ कहाँ, फर्क करे, देख सकें?
बुतों को दूध पिलाते हैं, लहू पीते हैं।
nice
ReplyDeletePerfect written I should copy paste this
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