व्यक्तित्व-विकास में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की भूमिका - गिरिजेश
(ROLE OF SCIENTIFIC OUTLOOK IN PERSONALITY
DEVELOPMENT)
जीवन और जगत की विविध घटनाओं को समझाने के लिये मनुष्य जाति ने ज्ञान की जिस शाखा का विकास किया, उसे दर्शन Philosophy कहते हैं। दर्शन के दो प्रकार हैं - अध्यात्मवादी और भौतिकवादी। जो दर्शन किसी भी घटना के कारण को सीधे कार्य से न जोड़ कर किसी अज्ञात शक्ति से जोड़ने की जोड़-तोड़ करता है, उसे अध्यात्मवादी दर्शन या अन्ध-विश्वास या अवैज्ञानिक दृष्टिकोण spiritual philosophy or superstition or
nonscientific outlook कहते हैं। यह आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नरक, भूत-प्रेत, पूर्वजन्म-पुनर्जन्म, पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन, व्रत-उपवास, रक्षा-तिलक, दाढ़ी-चोटी, जातिवाद, ऊँच-नीच, छुआछूत, भाग्यवाद, ज्योतिष और भविष्यवाणी आदि के तरह-तरह के ढकोसलों में यकीन करता है और उसी में उलझा कर आदमी को अन्धे की तरह गुमराह करता है। इसी वजह से सभी शोषक वर्ग इसे फैलाने में मदद करते हैं, क्योंकि इसके मकड़-जाल में उलझा आदमी अपनी समस्याओं के असली कारण को समझने की कोशिश करने के बजाय एक काल्पनिक कारण के चक्कर में फँस कर रह जाता है और शोषक-सत्ता के विरुद्ध लामबन्द नहीं हो पाता। इसीलिये यह दृष्टिकोण जनविरोधी, प्रतिक्रियावादी और क्रान्तिविरोधी है।
जीवन और जगत की व्याख्या करने के प्रयास की दूसरी धारा का नाम है वैज्ञानिक दृष्टिकोण या द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद या मार्क्सवाद scientific outlook or dialectical materialism or
marxism क्योंकि इसके प्रवर्तक कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स थे। जब द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को मानवता के इतिहास पर आरोपित करते हैं, तो इसका नाम ऐतिहासिक भौतिकवाद historical materialism हो जाता है। और इस तरह इसका पूरा नाम बनता है - द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद। यह धारा कार्य-कारण सम्बन्ध की विज्ञान पर आधारित, तथ्यगत, तर्कपरक और असली समझ विकसित करने में हमारी मदद करती है। यह हमारी समस्याओं के असली कारण और उसके निवारण की तरकीब बताती है। इसीलिये यह जन पक्षधर, प्रगतिशील और क्रान्तिकारी है। यह मानवता की मुक्ति के महाअभियान की मशाल है।
विज्ञान की परिभाषा है क्रमबद्ध और व्यवस्थित ज्ञान। विज्ञान किसी भी घटना-परिघटना की क्रिया-प्रक्रिया के बारे में क्या, क्यों, कैसे, कब और कहाँ के पाँच प्रश्नों के सही-सही उत्तर या तो दे देता है या स्पष्टता और विनम्रता के साथ अपनी वर्तमान सीमा को स्वीकार करता है। विज्ञान पर आधारित होने के कारण वैज्ञानिक दृष्टिकोण जगत की गति को उस कोण से देखता है, जिससे पूरी बात साफ-साफ समझ में आ जाती है, भ्रम टूट जाते हैं, सच्चाई दिखाई देने लगती है और झूठ का पर्दाफ़ाश हो जाता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित हो जाने के बाद आदमी को कोई धोखा नहीं दे सकता और ऐसा आदमी खु़द भी किसी को धोखा नहीं देता। आइए, देखें वैज्ञानिक दृष्टिकोण की मूल प्रस्थापनाओं को और अपने व्यक्तित्व को उसकी रोशनी में ढालें।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार जगत की प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व है क्योंकि प्रत्येक वस्तु दो परस्पर विरोधी घटकों constituent factors से मिल कर बनी है। इन घटकों के बीच अन्तर्विरोध contradiction भी होता है और एकता भी। परस्पर विरोधी प्रकृति वाले इन्हीं दोनों घटकों की एकता के चलते ही वस्तु का अस्तित्व होता है और उनके विरोध के चलते ही जगत की गति का विकास होता है। जब इन घटकों के बीच एकता का पक्ष प्रबल होता है, तो रचना होती है और जब विरोध का स्वर प्रधान हो जाता है, तो ध्वन्स होता है। नूतन की रचना करने के मकसद से पुरातन के ध्वन्स का ही नाम क्रान्ति revolution है।
वस्तु में अन्तर्निहित दोनों घटकों में से एक घटक एक समय में प्रधान, प्रबल और प्रभावी dominant होता है और दूसरा घटक गौण recessive रहता है। प्रभावी घटक के अनुरूप ही वस्तु का नामकरण होता है। परिवर्तन की प्रक्रिया के द्वारा प्रभावी घटक को गौण घटक में तथा गौण घटक को प्रभावी घटक में बदला जा सकता है। परिवर्तन की इस प्रक्रिया की दो सीढ़ियाँ हैं। पहली सीढ़ी पर वस्तु के भीतर मात्रा में बदलाव होता है। इसीलिए इसका नाम है परिमाणात्मक परिवर्तन quantitative change और दूसरी सीढ़ी पर वस्तु के गुण बदल जाते हैं, उसका रूपान्तरण transformation हो जाता है और उसका नया नामकरण कर दिया जाता है। इस वजह से इसका नाम है गुणात्मक परिवर्तन qualitative change । वस्तु में लगातार जारी परिमाणात्मक परिवर्तन जिस बिन्दु पर पहुँच कर उस वस्तु के गुण में, रूप में और यहाँ तक कि नाम में परिवर्तन कर देता है, उस बिन्दु को क्रान्तिक बिन्दु critical point कहते हैं। असंख्य क्रान्तिक बिन्दुओं की पुनरावृत्ति परिमाणात्मक और गुणात्मक परिवर्तनों की विकास-यात्रा में अनवरत जारी रहती है। यही मानवता की अमरता immortality of humanity का आधार है।
परिवर्तन की इस प्रक्रिया की तुलना पेंच screw की चूड़ियों से की जाती है, जिनमें से प्रत्येक चूड़ी का हर अगला छल्ला पिछले छल्ले के ठीक ऊपर, ठीक वैसा ही, किन्तु थोड़ा-सा और बड़ा होता जाता है और हर अगले छल्ले का पिछला सिरा पिछले छल्ले के आखिरी छोर से अलग नहीं किया जा सकता है। इससे स्पष्ट है कि सतत विकास की इस शाश्वत कथा में कहीं भी न तो आरम्भ है और न कहीं कोई अन्त। मनुष्य केवल गणना में अपनी सुविधा के लिये किन्हीं दो बिन्दुओं को आदि और अन्त के बिन्दुओं के रूप में चिह्नित करने का काम बार-बार करता रहा है।
किसी भी वस्तु के दो भाग होते हैं - रूप और अन्तर्वस्तु form and content। विकास-यात्रा में वस्तु का केवल रूपान्तरण transformation होता है। उसका मूल व्यक्तित्व fundamental personality आदि से अन्त तक यथावत as it is बना रहता है। उसका केवल विस्तार और विकास expansion and development होता जाता है। इसे उसकी अन्तर्वस्तु content कहते हैं। गुणात्मक परिवर्तन के दौरान हर चरण में मूल व्यक्तित्व के चतुर्दिक कुछ अर्जित गुणों adopted qualities की थोड़ी-सी और मात्रा अभिलाक्षणिक विशेषताओं characteristic features के रूप में बढ़ती चली जाती है। नये गुणों को आत्मसात करने की इस प्रक्रिया को ग्रहण adoption कहते हैं। पतली और मोटी प्रत्येक मोमबत्ती का सूती धागा हर मोमबत्ती में वैसा ही होता है। केवल मोम की मात्रा कम या अधिक होने से प्रकाश कम या अधिक घेरे को प्रकाशित करता है।
किसी भी नवीन अभिलाक्षणिक विशेषता को आत्मसात करने के लिये अर्जित गुणों को ग्रहण करने की प्रक्रिया तभी आगे बढ़ सकती है, जब पहले से अंगीभूत कुछ गुणों का त्याग rejection किया जाये। इस तरह किया जाने वाला गुणों की मात्रा के ग्रहण का कार्य तो सायास प्रयास का परिणाम होता है, जब कि त्याग सहज और स्वाभाविक प्रवृत्ति है। त्याग को महिमामण्डित करना व्यर्थ है। प्रशंसा तो ग्रहण के प्रयास की तड़प की की जानी चाहिए। त्याग और ग्रहण की इस प्रक्रिया में प्रत्येक क्रान्तिक बिन्दु पर कुछ पुराने अर्जित गुणों का लोप या निषेध negation हो जाता है और उनकी जगह कुछ नये अर्जित गुण प्रतिस्थापित हो जाते हैं। रूपान्तरण के इस स्वभाव को दर्शन में कहते हैं निषेध का निषेध सिद्धान्त negation of negation theory। इस तरह हर समस्या का समाधान एक नयी समस्या को जन्म देता है।
समाज-व्यवस्था social-system के रूपान्तरण की इस अमर गाथा में क्रान्तिकारी ताकतें revolutionary forces बच्चे का जन्म कराने में सहायता करने वाली नर्स तो हैं। वे बच्चे की माँ नहीं हैं। माँ तो समाज की उत्पादक शक्तियाँ productive forces हैं। नर्स नहीं होगी, तो भी गर्भ किसी न किसी परिणति तक पहुँचेगा ही। नर्स की भूमिका केवल सुरक्षित, जल्दी और व्यवस्थित जन्म से जुड़ी है। समाधान की गति, दिशा और प्रभावशालिता को नियन्त्रित और निर्धारित करना ही क्रान्तिकारी कार्य revolutionary action है।
क्रान्तिकारी कार्य के दो स्तर होते हैं - रणनीति और रणकौशल strategy and tactics। रणनीति दूर तक यथावत रहती है। वह केवल उत्पादन-सम्बन्धों production relations के विकास की अगली मन्जिल के आने पर ही बदलती है। जबकि रणकौशल परिस्थितियों के बदलने के साथ-साथ हर कदम पर बदलता रहता है।
इस तरह हमने देखा कि प्रत्येक वस्तु को उसके विपरीत वस्तु में द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद के शास्त्रीय विज्ञान classical science के हथियार की सहायता से बदला जा सकता है। क्रान्तिकारियों ने बार-बार इसी हथियार से दुनिया बदली है और सर्वहारा proletariat को सम्राट emperor बनाया है। समाजवादी समाज-व्यवस्था socialist social-system की स्थापना की है। व्यक्तित्व-विकास भी इसी की सहायता से समग्रता में सम्भव है। आशा है आप भी अपने व्यक्तित्व का विकास करने में इस हथियार का इस्तेमाल करेंगे। ताकि आप अपने-आप को शोषित-पीड़ित मानवता exploited and humiliated humanity की सेवा के लिये और भी उपयोगी बना सकें।
मरने पर शहीद और रहे ज़िन्दा तो ग़ाज़ी,
ऐ मर्द-ए-मुज़ाहिद न क़दम पीछे हटाना।
खोने को तुझे क्या है? बज़ुज़ पाँव की बेड़ी,
पाने के लिये है सारी दुनिया का ख़ज़ाना!!
अन्धविश्वास - मुर्दाबाद !
वैज्ञानिक दृष्टिकोण - ज़िन्दाबाद !