आज सुबह से निपट अकेला पड़ा हुआ हूँ,
सबसे कट कर, सब से हट कर,
इस दुनिया से दूर खड़ा हूँ,
खुद में डूबा सोच रहा हूँ....
सोच रहा हूँ मेरा यह जीवन भी क्या है !
यह जैसा है क्यों वैसा है !
पूरा जीवन भीड़-भाड़ से अलग-थलग है.
ख़ुद में डूबा, ख़ुद से जूझा;
ख़ुद से जीता, ख़ुद से हारा.
ऐसा क्यों है !
जीवन का जो सुन्दरतम था, पूर्वराग था !
रंच-मात्र अनुराग मिला, वह भी दुष्कर था !
अब अतीत का गीत गूँजता रहता मन में !
वह विराग भी नहीं बन सका,
मन से वह भी नहीं छन सका !
हर पल मन को मथता रहता,
मैं थक जाता, वह वैसे ही चलता रहता...
सोते-जगते, बीच सभी के और अकेले रहने पर भी
हरदम मेरा पीछा करता,
कभी नहीं वह मुझे अकेला छोड़ सका है.
टूट रहा मैं, पर भ्रम मेरा नहीं अभी तक टूट सका है.
जीवन में जो गौरवमय था, आज कहाँ है !
जीवन में जो कुछ प्रेरक था, कहाँ खो गया !
जीवन में जो भी सुख देता, दूर क्यों गया !
रोज़ सुबह से शाम, शाम से सुबह और फिर शाम हो रही.
मगर कहाँ खो गयी ख़ुशी ! मैं क्यों उदास हूँ !
जिसको सबसे बढ़ कर चाहा, जिसको सबसे बढ़ कर माना,
जिसको सबसे अधिक प्यार मैं था कर पाया,
आज भला वह साथ क्यों नहीं !
उसका मेरे साथ न होना, उसका मेरे पास न होना,
उसका मुझसे यूँ कट जाना, इतनी दूर चले जाना...
कितना त्रासद है !
रोज़ सोचता, रोज़ चाहता, रोज़ कामना करता रहता...
काश कि उसकी प्यारी बोली एक बार फिर से सुन पाऊँ !
काश कि उसको देख सकूँ मैं !
काश कि घन्टी बजे फोन की और दौड़ कर उसे उठाऊँ !
उससे अपनी छोटी-मोटी सभी समस्याएँ साझा कर,
मन को कुछ हल्का कर पाऊँ !
और ठहाके लगा-लगा कर असली-नकली उसे हँसाऊँ !
आँख बन्द कर उसकी बातें लागू करना मेरी आदत में शुमार है.
इस आदत को कैसे बदलूँ !
बार-बार मन ज़ोर-ज़ोर से मेरा करता
कॉल करूँ मैं ही अब फिर से,
माफ़ी माँगू उस गलती की, जिसको अब तक समझ न पाया...
मगर कहीं तो हुई रही होगी ज़रूर ही,
जिससे उसको पीड़ा इतनी पहुँच गयी है !
सुनूँ शिकायत उसके मन की, उसको अपनी बात बताऊँ....
अपने आँसू से धो डालूँ सब शिकायतें...
निर्मल मन से एक बार फिर उसे निहारूँ...
उसे मनाऊँ ! फिर से अपनी गोदी में लेकर दुलराऊँ !
मगर हमेशा डर जाता हूँ...
कहीं दुबारा मेरी कोशिश उसको फिर से खल जाये तो...
छला गया है जो कोमल मन, फिर वैसे ही छल जाये तो...
उसको स्वाभिमान है प्यारा, मुझको प्यारी उसकी खुशियाँ,
उसको मेरी अनगढ़ कोशिश आहत फिर से कर जाये तो... !
अगर कहीं ऐसा होता है, तो क्या होगा !
मन पागल है, मन बच्चा है, मन को मैं कैसे समझाऊँ !
जीवन आगे बढ़ आया है, पीछे छूट गया मन मेरा;
जीवन की आपा-धापी में फेंचकुर फेंक रहा तन मेरा...
अटक रहा हूँ, भटक रहा हूँ, मैं ख़ुद ही को पटक रहा हूँ !
फिर भी कैसे आगे बढ़ना, कैसे इस बाधा से लड़ना,
कैसे अगला कदम बढ़ाना, किसके दम पर फिर से गढ़ना.
मानवता की पूरे मन से कैसे फिर से सेवा करना...
किससे पूछूँ, कौन बताये, कौन मुझे क्यों राह दिखाये !
कौन कहे अब मुझको अपना, कौन मुझे गलती बतलाये !
कौन पकड़ कर मेरी अंगुली जीवन-पथ पर मुझे चलाये !
फिर मैं कैसे दौड़ किसी को गले लगाऊँ !
किसको फिर से सब कुछ अपना देकर तृप्ति और सुख पाऊँ !
जीवन है संघर्ष - सही है, पर मन से तो हार चुका हूँ,
नहीं समझ में मुझे आ रहा कैसे यह रण अब लड़ना है !
समझ नहीं पा रहा कि आगे क्या करना है !
मेरा मन तुमको पुकारता है हरदम ही,
हरदम याद तुम्हीं को करता...
पल-छिन छिन-पल एक यही अब काम बचा है...
तुमसे दूर नहीं जा पाता, तुमको भूल नहीं यह पाता...
नहीं और कुछ भी पगला मन सोच पा रहा....
नहीं और कुछ भी करने को यह कहता है...
माफ़ी माँग रहा मैं तुमसे, एक बार तो माफ़ी दे दो...
गलती-सही भूल जाओ अब, मुझको मेरा सम्बल दे दो...
मुझको फिर से तुम्हीं बचाओ, आओ, एक बार आ जाओ !
जब ख़ुद मैं ही नहीं रहूँगा, जब सब कुछ ही मिट जायेगा;
तब तक बहुत देर होगी ही, तुम भी तब क्या कर पाओगे...