Tuesday 25 November 2014

__"रहने दो, रँगें सियारो ! रहने दो..."- अमरनाथ 'मधुर'__




बहुत खूब मित्र 'मधुर', इसी साफ़गोई का मैं कायल हूँ.

"लोगों को शायद ये पसंद नहीं है कि कोई खाते कमाते सामाजिक कार्यों में भागीदारी करे .वो चाहते हैं कि सामाजिक कार्यकर्ता को तो भूखे ही मरना चाहिए. बहुत सारे लोग भूखे मर गए, बीमारी में तड़फ तड़फ कर मर गए और बहुत सारे आज भी परेशान हाल हैं उन्हें नोबुल प्राइज तो दूर ठीक से कहीं से कोई इमदाद भी नहीं मिली है. जो कुछ सौ पचास रूपये की मदद कभी कभाक कुछ लोग कर देते हैं वो उसे एहसान समझते हैं जहां हॉल टाइमर को कुछ देते हैं वो भीख की तरह दिया जाता है और काम पूरे अधिकार से लिया जाता है .ऐसे बदल जाएगा समाज ? ऐसे हो जायेगी क्रान्ति ? रहने दो रँगें सियारों रहने दो ."

अमरनाथ 'मधुर' - "मान्यवर मेरी छोटी सी बात को इतने बड़े विचारकों के वक्तव्य के साथ क्यों नत्थी कर दिया है ? मैंने तो इनमें से किसी को भी नहीं पढ़ा है. लेकिन दो प्रश्न जरूर पूछना चाहूँगा कि यदि इनमें से किसी को या अन्य किसी भी सामाजिक कार्य करने वाले को नोबुल पुरस्कार मिलता तो क्या ये सवाल नहीं पूछे जाते ? ध्यान रहे कि लोगों ने मदर टेरेसा पर भी सवाल किये थे .
दूसरा सवाल जब आप कहते हैं कि 'देश ही नहीं दुनिया भर के 'कॉर्पोरेट बुद्धिजीवियों' के बीच सुर्खियों में रहने वाले सत्यार्थी आज अपने जुगाड़ की बदौलत 'नोबल शांति पुरस्कार' के लिए नामित हो गये हैं.'

लेकिन सब लोग तो यही पूछ रहे हैं कि 'कैलाश सत्यार्थी कौन है ?' अगर ये इतने ही 'कॉर्पोरेट बुद्धिजीवियों' के बीच सुर्खियों में रहने वाले थे तो तमाम टी वी चैनल इनके बारे में पहले से कुछ न कुछ प्रचारित प्रसारित करते रहते जबकि सच यही है कि उनके काम को किसी न्यूज चैनल ने पहले नहीं दिखाया है .

कहना तो नहीं चाहता हूँ लेकिन कह रहा हूँ कि मैं थोड़ा सा इस आंदोलन से पूर्व परिचित हूँ . मेरठ में साथी स्टालिन और साथी प्रभातराय ने इस आंदोलन में बहुत काम किया है. उसका कितना आम जनता को फायदा हुआ और कितना आंदोलन से जुड़े लोगों को इस विषय पर कुछ कहना ठीक नहीं होगा . मैं इतना जरूर कहूँगा कि इस आंदोलन में काम करने से पहले भी वो खा कमा रहे थे और आज भी खा कमा रहे हैं .

लेकिन लोगों को शायद ये पसंद नहीं है कि कोई खाते कमाते सामाजिक कार्यों में भागीदारी करे .वो चाहते हैं कि सामाजिक कार्यकर्ता को तो भूखे ही मरना चाहिए. बहुत सारे लोग भूखे मर गए, बीमारी में तड़फ तड़फ कर मर गए और बहुत सारे आज भी परेशान हाल हैं उन्हें नोबुल प्राइज तो दूर ठीक से कहीं से कोई इमदाद भी नहीं मिली है.

जो कुछ सौ पचास रूपये की मदद कभी कभाक कुछ लोग कर देते हैं वो उसे एहसान समझते हैं
जहां हॉल टाइमर को कुछ देते हैं वो भीख की तरह दिया जाता है और काम पूरे अधिकार से लिया जाता है .
ऐसे बदल जाएगा समाज ?
ऐसे हो जायेगी क्रान्ति ?
रहने दो रँगें सियारों रहने दो ."

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