मित्र, यह कविता आज़मगढ़ में हुए दंगे के दौरान लिखी गयी थी. इसमें
वर्णित सारे तथ्य आखों देखे हैं. आज़मगढ़ के आर.एस.एस. के लोग मेरे निकट परिचय में
दशकों से हैं. शिबली कॉलेज का दंगा मेरे देखते-देखते ही हुआ था. उसमे लाउडस्पीकर
लगा कर ज़बरदस्ती ‘वन्देमातरम्’ शिबली कॉलेज पर बजाया गया था. बाकायदा गोलियाँ चली
थीं, दूकाने जलाई गयी थीं, लोग
मरे गये थे. कर्फ्यू लगा था. बच्चों को स्कूल से उनके घर तक मैंने खुद मुसलमानों
के मुहल्लों में से होकर पहुंचाया था. मुसलमानों के घरों के सामने खड़े होकर ईंटें,
पत्थर और गोलियाँ चलाई गयी थीं. बसों में से उतार कर बूढ़े मुसलमानों से ‘जय श्री
राम’ कहलवाया गया था और उनको पीटा गया था. पूरी रिपोर्ट आँखों देखी है. यहाँ जब भी
दंगा होता है - मैं जानता हूँ ज़िम्मेदार कौन रहता है. मैंने दोनों पक्षों के लोगों
को साथ बैठाने की कोशिश भी किया था. मगर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के लोगों ने
सुरक्षा की गारन्टी देने पर भी मुसलामानों के साथ बात करने से स्पष्ट इंकार कर दिया
था. इससे अधिक इस मामले में कुछ भी कहना अनावश्यक है.
दंगा -1
देखो बच्चो, दंगा आया, सबको करता नंगा आया।
ईश्वर-अल्ला आज लड़ रहे, बच्चों का नुकसान कर रहे।
स्कूलों को बन्द कराया, बन्द हो गयी सभी पढ़ाई।
हिन्दू-मुसलिम-सिक्ख-ईसाई, कैसे हैं हम भाई-भाई?
आपस में कर रहे लड़ाई, कफ़्र्यू लगा, मुसीबत आई।
देखो बच्चो, दंगा आया, दाढ़ी-चोटी को लड़वाया।
लोगों में नफ़रत भड़काया, लोगों में दहशत फैलाया।
लाया पुलिस, पी0ए0सी0 लाया, लड़कों पर लाठी चलवाया।
सबकी होने लगी पिटाई, भागो बच्चो, आफ़त आयी।
कफ़्र्यू-पास देख कर पीटा, भरा दूध का लोटा छींटा।
कितनी ज़ालिम जन-सेवकाई? अब तक होती पीठ-सेंकाई।
पीट दिया बीमारों को भी, लूट लिया बेकारों को भी।
बस में खोज-खोज कर मारा, सरे-आम पाया दुत्कारा।
जहाँ कहीं भी दाढ़ी देखा, भागे-दौड़े उसको छेंका।
‘‘जय श्रीराम’’ कहा कर छोड़ा, टाँगें तोड़ीं, सिर भी फोड़ा।
एक कुआँ है शहर में ऐसा, किसने बनवाया है वैसा?
उसमें भी थी लाश सड़ गयी, जाने कैसे वहाँ पड़ गयी?
कौन मरा? किसने मरवाया? कोई अब तक जान न पाया।
गोली छत पर चढ़ कर चलती, ऐसा भी कैसा भाई है?
जो गोली खाने आया था, वह भी क्या वैसा भाई है?
जो मज़दूर कमाते-खाते, दिन भर खटते, तब घर जाते,
रेड़ी-पटरी-ठेला-झल्ली-गुमटी से रोटियाँ जुटाते।
वे भी तो मायूस हो गये, जाड़े में अध-पेट सो गये।
बन्द पड़े थे अस्पताल में, डाॅक्टर और मरीज़ों वाले।
कैसे उनको मिलीं दवाएँ, कैसे उनको मिले निवाले?
घर में सारा शहर कैद था, सड़कों पर सन्नाटा छाया।
देखो बच्चो, दंगा आया, सबको करता नंगा आया।
दंगा - 2
कितने बड़े डकैत डाॅक्टर? सभी गाड़ियों में चलते हैं।
जनता के गुस्से से डरते, गुण्डों की जेबें भरते हैं।
दंगे ने इनको भी छेड़ा, शीशे फोड़ा, कारें तोड़ा।
दूकानों में आग लगाया, इनमें भी दहशत फैलाया।
कहाँ ग़लत इनका नुकसान? शोषण करते सीना तान।
इतना पैसा कहाँ से लाते? इनके नखड़े बढ़ते जाते।
महँगी दवा, फ़ीस भी महँगी, इनकी एक-एक चीज़ भी महँगी।
बिस्तर-चार्ज होटलों से भी ये हैं महँगा करते जाते।
जब भी इनकी होती मर्ज़ी, जाँच कराया करते फ़र्ज़ी।
ख़ूब कमीशन हैं ये खाते, तनिक भी नहीं हैं शरमाते।
इनकी लूट अभी है जारी, क्योंकि जान सभी को प्यारी।
ख़ुद को ख़ुदा के बाद बताते, यमदूतों से भी बढ़ जाते।
बीमारों को दवा बाँटते, मगर नहीं क्या जेब काटते?
इन्सानों की जान बचाते, मगर नहीं इन्साँ रह पाते।
तो क्या इनकी लूट सही है? क्या इनकी यह अकड़ सही है?
क्या ये धन-पशु नहीं बन चुके? ख़ुद ही खाईं नहीं खन चुके?
दंगा - 3
आया हिन्दू-मुसलिम दंगा, नेता नंगे, अफ़सर नंगा।
घूस के अड्डे पहले खोला, घूस के दम पर इनका मेला।
स्कूलों को बन्द छोड़कर बेचारे भोले बच्चों को
थोड़ा पीछे और ढकेला, इनकी करनी बढ़ा झमेला।
आओ बच्चो, सुनो ज़बानी, कक्षा दस की नयी कहानी।
देर से मिलीं किताबें उनको, बोर्ड ने नया कोर्स चलवाया।
और छुट्टियों के चलते भी कोर्स नहीं पूरा हो पाया।
मगर परीक्षा तो देनी है, मार्च अन्त में ही होनी है।
उनके संग तो खेल हो गये, कैसे बच्चे फ़ेल हो गये?
जब रिज़ल्ट पायेंगे बच्चे, किस पर गुस्सायेंगे बच्चे?
दंगा - 4
आर0एस0एस0 दंगा करवाता, जहाँ कहीं भी मौका पाता।
उसके गुण्डों का कहना है, ‘‘मुसलमान को यदि रहना है,
‘‘जय श्री राम’’ सुनाना होगा, वरना उन्हें भगाना होगा।
केवल हिन्दू सदा सही है, हिन्दू तो लड़ता ही नहीं है।’’
सीधा-सादा भोला-भाला इनका हिन्दू सारा ही है!
याद करो सन् चैरासी को, किसने सिक्खों को जलवाया?
जिसने मसजिद को तोड़ा था, उसको कितना सज्जन पाया?
दारा सिंह की गुण्डागर्दी दो बच्चों को फूँक गयी है।
अभी नहीं है बात पुरानी, यह भी घटना नयी-नयी है।
दारा सिंह भी तो हिन्दू है, और गोडसे हिन्दू ही था!
गाँधी पर गोलियाँ चला कर जिसने बापू-वध कर डाला!
उसी गोडसे के गुण गा कर आर0एस0एस0 है बात कर रहा?
हिन्दू-हिन्दू चिल्लाता है, मानवता से घात कर रहा?
शिव-सेना का बाल ठाकरे ज़ोर-ज़बरदस्ती करवाता।
सबको ही धमकाता रहता, खेलों के मैदान तोड़ाता।
वह भी बच्चो, हिन्दू ही है, साधू बाबा-सा दिखता है।
क्या वह भी सीधा-सादा है? क्या वह भी भोला-भाला है?
क्या उस पर ही वार हुआ है? या ‘जन’ का संहार हुआ है?
दंगा - 5
मुसलमान थे कैसे-कैसे! हमीद, अशफ़ाक, गार्दी जैसे।
उन पर भी तो ज़ुल्म हुए थे, उनकी भी बोटियाँ उड़ी थीं।
मगर सत्य-पथ के वे राही, नहीं झुका सिर ज़ालिम पाया।
कट्टरता को धूल चटाया, हरदम अपना फ़र्ज़ निभाया।
कितना अन्धा मुसलमान है? नकली ख़ुदा-ख़ुदा को रटता।
असली देश हमारा अपना, उसकी जय कहने से डरता।
इस अन्धेपन को भी तोड़ो, वरना कर्ज़ दूध का छोड़ो।
रोटी दिया, अनाज खिलाया, पढ़ा-लिखा कर बड़ा बनाया।
देश भला क्या नहीं है माता? क्यों जय कहने में शर्माता?
आर0एस0एस0 गुण्डा-टोली, पर ‘वन्दे मातरम्’ राष्ट्र-गान है।
देश और इसकी सुन्दरता का ही तो इसमें बखान है।
क्या जन-श्रम से जो उपजी हैं, उन फसलों का गीत गलत है?
क्या जंगल, नदियों, झरनों की सुन्दरता का गीत गलत है?
क्या अपने पुरखांे के घर का गौरव-गान धर्म-द्रोही है?
अगर यही है धर्म-द्रोह, तो फिर तो बच्चो, यही सही है!
इसको गाना राष्ट्र-प्रेम है, इसमें ख़ुदा कहाँ घुस आया?
दंगा - 6
बच्चो, बूढ़ों से मत सीखो, तुमको उल्टा पाठ पढ़ाते।
इनकी आँखों पर पट्टी है, सच को नहीं जान ये पाते।
ईश्वर-अल्ला तुम्हें सिखाते, स्वर्ग-नरक का झूठ पढ़ाते।
मीठी-मीठी बोली देखो, फिर भी बातें ग़लत बताते।
कैसा ईश्वर? कौन ख़ुदा है? ऊपर वाला क्यों ऐसा है?
अल्ला-ईश्वर-गाॅड बन गया, हम सब को उसने बँटवाया।
तेरा-मेरा-उसका कह कर, जन-बल को तोड़ा, लुटवाया।
ऊपर वाला कहीं नहीं है, नीचे बस इन्सान सही है।
धरम-करम की गप कोरी है, इसने सारा फूस जुटाया।
मज़हब ही लड़ना सिखलाता, आपस में है बैर बढ़ाता।
जिसका लाभ उठाता नेता, भाषण की गोटी चमकाता।
नहीं बना इन्सान अभी, जो इन्सानों का घर जलवाता।
घड़ियालों को तो पहिचानो! दाढ़ी-चोटी को तो जानो!
कब तक इनकी दाल गलेगी? कब तक इनकी ऐश चलेगी?
कब तक चुप रह पाओगे तुम? कब तक यह सह पाओगे तुम?
कभी तो सच भी गुस्सा होगा, कभी तुम्हारा सिर भी तनेगा।
कभी तो इन्सानों का तेवर इनकी ख़ातिर कहर बनेगा!
तब फिर ये कैसे अकड़ेंगे? तब फिर ये कैसे लूटेंगे?
तब फिर कैसे ऐश करेंगे? तब फिर घर कैसे फूँकेंगे?
इनका कुछ तो करना होगा, वरना यूँ ही मरना होगा।
वाह! बहुत दिन बाद अपने जैसी एक कविता पढ़ने को मिली है | हमने मेरठ में सन सत्तासी केसाम्प्रदायिक दंगों के दौरान साम्प्रदायिकता विरोधी गीत और नुक्कड़ नाटक तैयार किये| 'रोटी या राम' शीर्षक से साम्प्रदायिकता विरोधी काव्य पुस्तिका भी प्रकाशित कर वितरित की थी | उस वक्त अगर ये कविता उपलब्ध हो जाती तो इसे भी शामिल करते | ये अच्छी कविता है और भविष्य में जब भी ऐसा कोई संग्रह प्रकाशित होगा इस कविता को जरूर शामिल किया जाएगा | लगे हाथ मेरे साथी कवि वीरन्द्र 'अबोध' की पक्तियां देखिये -
ReplyDeleteमैं तो पैदल ही चला था मेरे पास कोई गाडी ही नहीं थी,
लेकिन चौराहे पर खादी भीड़ इतनी अनाडी भी नहीं थी,
भीड़ से गोलियां चली और मुझे भी आकर लगी,
मेरे तो चोटी भी नहीं थी मेरे तो दाडी भी नहीं थी |
दंगाई न तो हिन्दू होता है और न मुसलमान. वह केवल दंगाई होता है.
ReplyDelete-: दंगाई :-
मैं जानता हूँ मेरे दोस्त, "खुदा है ही नहीं."
अगर हुआ भी तो फिर इनके संग नहीं होगा.
लोग कहते हैं - "खुदा तो गरीब-परवर है",
दुश्मन-ए-खल्क की खिदमत में भला क्यों होगा!
वक्त-बेवक्त खुदा की कसम खा कर देखो,
किसको लूटा नहीं, मारा नहीं, छोड़ा किसको?
ज़ुल्म करते हैं ये, देते हैं दगा किसको नहीं?
इनका ईमान कहाँ, इनमें है गैरत कैसी, हैं ये इन्सान कहाँ?
इनके मुँह से खुदा का नाम सुने, तो खुदा भी रो बैठे!
और शैतान भी देखे इन्हें, तो शरमाये!!
https://www.facebook.com/hindustanimusalman/videos/850218055043539/
ReplyDeleteबुज़ुर्ग मुसलमान को दाढ़ी पकड़ कर ज़बरदस्ती 'जय श्री राम' कहलवाने का विडियो बस में...