डॉ. मयंक त्रिपाठी की कविता पढ़िये.
मुट्ठी-भर लोगों के आगे, यदि अपना शीश झुकाना हो;
रोटी के नीचे दब कर के, अपना अधिकार गँवाना हो;
दो काट, फेंक दो ऐसा सिर,
जो उठ न सके सच की खातिर.
कर-बद्ध खड़े घिघियाने से, अपमानित होते जाने से;
अपना सम्मान गँवाने से, बातों के बाण चलाने से;
बेहतर है पल में जल जाना,
सौ साल धुवाँ फ़ैलाने से.
अधिकार हमें बढ़ने का है, अधिकार हेतु लड़ना होगा;
बलिदान भले ही हो जायें, सपना सच का गढना होगा;
बलिदान दिलाता न्याय सदा,
सूली पर भी चढ़ना होगा.
अधिकार नहीं माँगा करते, अपने हक को छीना करते;
पूँजी की चालों-जालों को, समझा करते, तोड़ा करते;
अन्याय-शमन करना है तो,
संघर्ष-सृजन करना होगा.
दुनिया को सिखलाना होगा, सच क्या है - दिखलाना होगा;
मिल-जुल आगे बढ़ना होगा, हथियार उठा लड़ना होगा;
अधिकार-प्यार के सपनों को,
साकार हमें करना होगा.
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