महाकवि महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' के जन्मदिवस पर प्रस्तुत यह लेख आप की प्रतिक्रिया की अपेक्षा करता है.
निराला की 'सरस्वती-वन्दना' और 'राम की शक्ति-पूजा' को विशेष तौर पर चिह्नित कर के उनके पक्ष की भूमिका के विषय में कुछ मित्रों ने प्रश्न उठाया है.
इसीलिये यह लेख प्रस्तुत करने की आवश्यकता प्रतीत हुई.
निराला की 'राम की शक्ति-पूजा' में राम राम नहीं, खुद निराला हैं. निराला 'जीवन समर में बार-बार हार-हार' जाने को स्वीकार करने में संकोच नहीं करते. साहित्य प्रतीकों के विस्तार के परे जीवन का ही पुनर्सृजन है.
निराला का राम जीवन-रण में सामर्थ्यवान शत्रु के विरुद्ध विजय की कामना से शक्ति का सहारा चाहता है.
"धिक् जीवन-धिक् साधन" कहने की परिस्थिति में जब निराला बिलबिला कर कहते हैं - "लौटी रचना लेकर उदास, देखता रहा मैं दिशाकाश" और "धन्ये मैं पिता निरर्थक था, कुछ भी तेरे हित कर न सका", तो उनका मन कुछ भी कर डालने को अकुला जाता है.
और तब शक्ति की आराधना के अलावा विद्रोही निराला के पास और कौन-सा रास्ता बचा था? फिर ज़रूरी संसाधनों के न जुट पाने पर अपनी असहायता में छटपटा कर अपनी ही दृष्टि को शक्ति को अर्पित कर देने पर जनकवि निराला क्यों ना आमादा हो जाते?
बिम्बों का मानवीकरण कर के राम की जगह निराला को खड़ा कर के या खुद खड़ा हो कर यह कविता पढ़ें. अर्थ बदल जाएगा.
जन-कवि
निराला की समाजिक दृष्टि और वर्तमान सन्दर्भ - गिरिजेश
तिवारी
अतीत की आधार-शिला पर खड़ा होकर प्रत्येक व्यक्ति अपने
युग-सत्य को निहारता है और उसकी दृष्टि अपने संस्कारों के संयन्त्रों से सन्नद्ध
होकर अपने परिवेश के प्रश्न-चिन्हों से जूझती है। प्रतिभाशाली इतिहासनिर्माता
युगपुरुषों का कार्य-भार ही होता है - अपने युग की प्रत्येक समस्या के सभी पक्षों
को समग्रता में देखना, सूक्ष्मता
से विवेचन करते हुए परखना, अन्तर्निहित
कारणों की पहचान करना और समकालीन संघर्ष की दिशा को समाधान की ओर मोड़ देना। ऐसी ही
अपेक्षा हमारे-अपने इतिहास ने जनकवि निराला से भी की। और, आज हम सभी इसी परिप्रेक्ष्य में निराला की दृष्टि की
जाँच-पड़ताल करने के लिए एकत्रित हैं कि क्या उनकी सामाजिक दृष्टि वर्तमान काल-खण्ड
के सच के समाधान के लिए भी कुछ उपयोगी अंश दे सकी है ?
निराला की सामाजिक दृष्टि का विकास उनके युग के प्रश्नों के
इर्द-गिर्द ही हुआ है। निराला का युग राष्ट्रीय पुनर्जागरण-काल के चरम विकास की पृष्ठभूमि
से संस्कारित हुआ था। वह युग अपने-आप में उपनिवेशवाद विरोधी स्वाधीनता-संग्राम
की गरिमामयी गाथा को तो समेटे ही है, स्वाधीन भारत की पूँजीवादी व्यवस्था के प्रथम आधार-स्तम्भ -
पचास के दशक की विकास-कथा को भी ध्वनित करता है। राष्ट्रीय पुनर्जागरण-काल का मुख्य
दर्शन था - वेदान्त। और वेदान्त के प्रखर प्रवक्ता के रूप में विश्व-विख्यात हुए
थे स्वामी विवेकानन्द। ‘ब्रह्म
सत्यं,
जगत मिथ्या’ की अवधारणा वाले वेदान्त दर्शन में स्वामी विवेकानन्द ने
राष्ट्र की दीन-हीन-पराजित दुरवस्था से उपजे उग्र परिवर्तन कामी आक्रोश के तीखे
तेवर को समाहित कर डाला था। किन्तु वास्तविक जगत की वास्तविक समस्याओं को समाधान
तक पहुँचा सकने में दर्शन के धरातल पर वेदान्त न तो सफल हो सकता था और न सफल हुआ
ही। हाँ,
उसने अगली पीढ़ियों के गर्वीले युवकों के उर्वर मस्तिष्क में
उत्कट राष्ट्र-प्रेम की चिनगारियाँ बोने और उनको हवा दे-दे कर दहकाने में अवश्य ही
सफलता प्राप्त की।
विवेकानन्द के दर्शन के इसी आभामण्डल से निराला की प्रतिभा
भी आलोकित हुई। यही कारण है कि निराला बोल उठते हैं- ‘‘पर क्या है? सब माया है, माया है।’’ साथ
ही अपने प्रभु से ‘दलित जन पर
करुणा’
करने का निवेदन करने में भी न चूकने वाले निराला की दृष्टि
को पाथेय के रूप में जो हिन्दूवादी संस्कार मिले, उनसे अपनी जीवन-यात्रा के अन्त तक वह मुक्त नहीं हो सके। ‘कान्यकुब्ज कुल-कुलांगारों’ के ब्राह्मणत्व का गन्दा-मटमैला आवरण उतार फेंकने की निराला
अपने भरसक पूरी कोशिश करते हैं। इसी कोशिश के क्रम में मत्स्य-मांस-मदिरा भक्षण से
लेकर सावन में बेटी ब्याहने जैसे कृत्यों द्वारा परम्पराओं की जर्जर रूढ़ियों को
तोड़ने का साहस तो निराला की दृष्टि संचित कर सकी है - ‘‘तुम करो ब्याह, तोड़ता नियम, मैं सामाजिक योग के प्रथम’’... किन्तु, जीवन
के अन्तिम क्षण तक निराला रहे आध्यात्मवादी ही। और आध्यात्मवादी
निराला की दृष्टि विजयिनी शक्ति का श्रोत वर्ग-संघर्ष में नहीं, संघर्ष से पीछे हट कर एकान्त में की जाने वाली साधना में और
साधना की सफलता की प्रतीक चमत्कार में तलाशती है। सबसे मजेदार बात है कि यह साधना
भी कैसी विचित्र है! शत्रु की नहीं, अपितु अपनी ही दृष्टि को बलि की वेदी पर चढ़ा डालने को उद्यत
निराला के राम की साधना
ने अकस्मात् शक्ति को कैसे अवतरित किया? इस प्रश्न का उत्तर न तो आध्यात्म के पास है, और न ही निराला के पास! बस, चमत्कार को नमस्कार कर निराला अपने कर्तव्य की इति मान
बैठते हैं। यही नहीं, स्वाभिमानी
निराला की हठी दृष्टि पराजित भारत को भी ‘भारत सदा परा-जित’ कह कर गौरवान्तित करने तक जा पहुँचती है।
ऐसे में, जिस
मानवतावाद का करुणा और विद्रोह के आवेग में पक्ष-पोषण करते जाने में निराला ने
अपने-आप को खपा डाला, उसकी परिणति
हुई निराशा, टूटन, अलगाव, अपमान, अवसाद, असफलता
और अन्ततः विक्षिप्तता में। निराला यूँ ही नहीं लिखते -
‘‘सुन कर, गुन
कर,
चुप-चाप रहा; कुछ भी न कहा, न अहो न अहा...
‘‘लौटी रचना लेकर उदास, ताकता रहा मैं दिशाकाश....
‘‘बोलते हैं लोग ज्यों मुँह फेर कर ....
‘‘धिक जीवन को जो पाता ही आया विरोध, धिक साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध....
‘‘दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ, आज
जो नहीं कही...
‘‘मैं अकेला, दुखता
हूँ आ रही, मेरे दिवस की
सान्ध्य-वेला...
‘‘हो गया व्यर्थ जीवन, मैं गया रण में हार...
‘‘बार-बार हार-हार मैं गया.... या फिर
‘‘हारता रहा मैं स्वार्थ-समर...’’
जीवन के सच के जिन चित्रों को निराला अपनी पूरी क्षमता समेट
कर उकेरते हैं, उनमें उभरी हुई
विदू्रपताएँ, विसंगतियाँ और
विच्युतियाँ हममें-आप में घृणा, क्षोभ
और क्रोध तो उत्पन्न कर ले जाती हैं, आवेग और प्रेरणा तो भर देती हैं। किन्तु हमारे वर्गीय समाज
में जारी वर्ग-संघर्ष के तब तक विकसित और रूपायित हो चुके साम्यवादी दर्शन तक -
पुष्पित और पल्लवित ही नहीं अपितु फलित भी हो चुके माक्र्सवाद तक न तो स्वयं पहुँच
पाती हैं और न हमें ही पहुँचा पाती हैं। प्रश्न उठता है- आखिर क्यों? और कारण स्वतः ही स्पष्ट है। निराला की कविता तो सामाजिक
सरोकार से लैस है, किन्तु
स्वयं निराला का व्यक्ति किसी राजनीतिक क्रान्तिकारी धारा के किसी भी संगठन के साथ
किसी तरह की सक्रिय भागीदारी में नहीं लग पाया। हिन्दी कविता को छायावाद के
धुँधलके से प्रगतिवाद की ठोस ज़मीन पर तो यह पुरोधा पहुँचा सका, छन्द को बन्धन से तो मुक्त कर सका, किन्तु विडम्बना ही रही कि विषमता, शोषण, अन्याय, अत्याचार, पराधीनता, छल-छद्म, द्वेष, स्वार्थ, क्षुद्रता
और अहंकार - सबके विरुद्ध कलम से आग उगलते निराला व्यक्तिगत जीवन में अपने
घर-बार-परिवार की ज़िम्मेदारियों को भी वहन करने के चक्कर में उलझे रहे। न तो
निराला का कलम आने वाले युग के पग-रव को पूरी तरह ध्वनित कर सका और न निराला ही
अपने पारिवारिक दायित्व का बोझ पूरी तरह उठा सके। एक ओर निराला छटपाटाते हैं - ‘‘गहन है यह अंधकारा, इस गगन में नहीं दिनकर, नहीं शशधर, नहीं
तारा।’‘
तथा ‘‘हार
कर जन सकल जीते, जीत कर जन सकल हारे।’‘ तो दूसरी ओर उनकी कसक आह बनकर फूटती है - ‘‘धन्ये, मैं
पिता निरर्थक था, कुछ भी तेरे
हित कर न सका। जाना तो अर्थागमोपाय, पर रहा सदा संकुचित-काय। अस्तु, मैं उपार्जन को अक्षम, कर नहीं सका पोषण उत्तम।’’...
निराला के युग में समूची धरती की ही तरह सर-ज़मीन-ए-हिन्द पर
भी महापुरुषों की भारी भीड़ थी। अकेले निराला ही न थे। गाँधी थे, नेहरू थे, भगत
सिंह व आज़ाद थे ही और राहुल भी थे। सभी के सभी युग-परिवर्तन के प्रयास में
उपनिवेशवाद के अन्त और भारतीय जन-गण की मुक्ति की कामना से अपनी-अपनी दृष्टि के
अनुरूप सक्रिय भूमिका निभाने में प्राण-प्रण से जुटे थे। मगर महाकवि के रूप में
विख्यात हो चुकने पर भी निराला राष्ट्रीय मुक्ति-संग्राम के कार्यकर्ता नहीं बन
सके। आखिर, क्यों? यह भी दृष्टि की सीमा ही तो थी, जिसने अपने युग की पुकार को सुन कर और शत्रु-मित्र की पहचान
कर चुकने पर भी समाधान की सक्रिय तलाश में भिड़ जाने से निराला को वंचित कर दिया।
कवि निराला की जनपक्षधर भूमिका तो फिर भी सार्थक है, क्योंकि परिवर्तन का आधार है - जन-जागरण। किन्तु परिवर्तन
का वाहक तो ‘जीवन की आहुति देने वाला’, लहू का फाग खेलने वाला’, ‘सवा-सवा लाख पर एक को चढ़ाने वाला’ कार्यकर्ता ही होता है। निराला ‘विप्लव के उस वीर’ का ‘बादल-राग’ द्वारा आह्वान तो करते हैं - ‘‘ऐ विप्लन के वीर, तुझे बुलाता कृषक अधीर।’’ किन्तु वह स्वयं विप्लव का वीर नहीं बन पाते। क्योंकि वह तो
अन्त तक जग को छलना ही मानते रह जाते हैं, और छले जाने से क्षुब्ध भी। तभी तो वह कहते हैं - ‘‘दग़ा की, इस
सभ्यता ने दग़ा की", या ‘‘मैं ही क्या, सब ही तो ऐसे छले गये, मेरे प्रिय सब बुरे गये, सब भले गये।’'
पूँजीवाद की प्रवंचना भरी लूट से संत्रस्त निराला क्रुद्ध
हो कर उस पर करारे व्यंग्य के वार पर वार करते हैं। वीर जवाहर लाल के
प्रधानमन्त्रित्व का उपहास करते हुए निराला गाँधीवाद और पूँजीवाद दोनो ही की खिल्ली
उड़ाते हैं, जब वह कहते हैं - ‘‘महँगाई की बाढ़ बढ़ आयी, गाँठ की छूटी गाढ़ी कमायी; भूखे-नंगे खड़े शरमाये, न आये वीर जवाहर लाल।’’ और ‘‘गाँधीवादी
आये,
देर तक गाँधीवाद क्या है, समझाते रहे। राज्य अपना होगा, ज़मींदार-साहूकार अपने कहलायेंगे।’‘ और ‘‘बापू तुम
मुर्गी खाते यदि’‘....।
निराला के युग की भी निराला की दृष्टि की तरह ही एक सीमा
थी। निराला का युग उपनिवेशवाद के अन्त और पूँजीवादी जनवाद के आरम्भ का युग था। आज
का युग निराला के युग से भिन्न है। आज का युग जनतन्त्र की रामनामी चादर के तार-तार
हो चुकने के बाद पूँजीवाद की घिनौनी शक्ल की पहचान का युग है। आज का युग
साम्राज्यवाद के क्षरण का युग है। आज का युग बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का युग है, डंकल का युग है, वित्तीय नव-उपनिवेषवाद का युग है। आज का युग निजीकरण, उदारीकरण, वैश्वीकरण, कम्प्यूटरीकरण का युग है; नरसिंहा राव, मनमोहन सिंह और इन्द्रजीत गुप्त का युग है। जबकि निराला के
दौर में धरती के एक-तिहाई भूखण्ड पर मज़दूर-किसानों का लाल निशान लहरा रहा था। तब
तक ख्रुश्चोव का संशोधनवाद अपना बहुरुपिया सिर नहीं उठा सका था। तब तक वोट-बैंक
नहीं खुले थे। वी. आई. पी. ब्यूरोक्रेट, टेक्नोक्रेट और माफ़िया तब तक नहीं जन्मे थे। देशी पूँजी के
प्रतिनिधि तब अपने आकाओं का राज बनाने-सजाने-सँवारने में जुटे थे। स्विटज़रलैण्ड के
बैंकों के खातों में तब तक कफ़न-खसोट कमीशनख़ोरों के नाम दर्ज़ नहीं थे।
निराला के काल में गुलाब गुलाब था, तो कुकुरमुत्ता कुकुरमुत्ता। मगर आज तो गुलाब गली-गली
कुकुरमुत्ते की खोल ओढ़े डोल रहा है। और जो कल तक कुकुरमुत्ता था, शक्ति-सम्पन्न होते ही अचानक गुलाब में तब्दील हो जा रहा
है। आज गुलाबों ने कुकुरमुत्तों के बीच से अपने एजेन्ट, अपने वारिस तलाश डाले हैं। और उनके गलों में पट्टे डाल कर
कागज़ी गुलाबों में उनका कायाकल्प कर डाला है। समूची धरती का कुकुरमुत्ता-भण्डार आज
गुलाबों की बफे़-शैली की दावतों की चमकदार प्लेटों में लज़ीज मशरूमी व्यंजनों में
ढल कर जा सजा है। इस अन्योन्याश्रित विडम्बना से निराला का काल नहीं छला जा सका
था। तब काला - काला था, सफे़द -
सफे़द। दोनों में कोई मेल-मिलाप, कोई
संकरण नहीं था। मगर आज तो काले में सफे़द और सफे़द में काला, गुलाब में कुकुरमुत्ता और कुकुरमुत्ते में गुलाब समाहित
होता जा रहा है। दोनो बदलते जा रहे हैं एक दूसरे में। एक ओर नब्बे के दशक की
विश्वव्यापी मन्दी के दमघोंटू दबाव से बौखला कर बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ तीसरी
दुनिया की पूँजी को कुकुरमुत्ते की तरह चर रही हैं, तो दूसरी ओर नया वेतन आयोग कुकुरमुत्तों की एक विशेष नस्ल
तैयार कर रहा है। ‘राजे की
रखवाली’
में तैनात अदना-सा गुलाम भी बाकी के कुकुरमुत्तों से तीन
गुने से भी अधिक बड़ा हो चुका है। और इस चमत्कार के बाद तो सुविधा के दम्भ से
ग्रस्त हो सबसे निचला सरकारी कर्मचारी भी विजातीय तत्व के रूप में निश्चय ही
जनद्रोही बनता दिखाई दे रहा है।
आज का सच निराला के युग के सच से भिन्न है। निराला की
सामाजिक दृष्टि सरोज के ऊपर मिट्टी का तेल छिड़कने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी।
मगर आज तो हर शहर अपनी ऐसी ही किसी न किसी बेटी की कथा कह रहा है, जो दहेज के तन्दूर में भूनी जा चुकी है। निराला की दृष्टि
हवेली में विद्यालय खोलने के लिये जन का आह्वान करती है - ‘‘जल्द-जल्द पैर बढ़ाओ, आओ आओ आओ, आज
अमीरों की हवेली, किसानों की
होगी पाठशाला। एक पाठ पढ़ेंगे, टाट
बिछाओ...’‘। मगर आज का सच विद्यालय
से नदारद शिक्षक और शिक्षार्थी दोनो के हिस्से का सच है। विद्यालय तो फिर भी है, उसमें केवल खिड़की, दरवाज़े और फ़र्नीचर ही तो नहीं हैं। शिक्षक जनगणना से लेकर
मतगणना तक की सेवा करते नहीं अघाता, तो निराला का पोता कन्धे पर बोरी लटकाये घर से आकर सुटकुन
से पिटता हुआ पहाड़े दोहराता जाता है, और खुश है कि दोपहर में नरसिंहा राव की लपसी खाने को पायेगा
और साथ ही महीने के अन्त में कन्ट्रोल की दूकान से राशन भी। हाँ, शाम को रास्ता निराला के ‘बादल-राग’ या ‘सरस्वती-वन्दना’ की जगह टी0 वी0 पर आने वाली फ़िल्म की चर्चा से या फिर अमिताभ बच्चन की
विश्वसुन्दरी प्रतियोगिता की चर्चा से गूँजता रहता है। ‘बैंक किसानों का खुलवाओ’ का निर्देश देकर महाप्राण निराला तो ब्रह्मलीन हो गये।
किन्तु आज के घोटालों के युग में आज़मगढ़ के मालखाने के लाॅक-अप में कैद धरती का
बेटा चक्रवृद्धि गति से बढ़ते कर्ज के ब्याज के बोझ से अपने प्राणों का उत्सर्ग
करके ही मुक्त हो पाता है। और कहीं भी किसी के भी कान पर जूँ तक नहीं रेंगती। उसकी
बेबस मौत लीडराबाद की रोज़मर्रा की गप-गोष्ठी में उछलती है और निष्फल डूब जाती है
नौकरशाही के लाल-लाल फीतों से सजी फाइलों के भँवर-जाल में।
‘जागो फिर एक बार!’ का मन्त्र पढ़कर निराला जिसे जगाना चाहते थे, वह भारतीय युवक आज सो नहीं रहा। वह जाग चुका है। वह अच्छी
तरह जानता है कि जब तक रिज़र्वेशन और बेरोज़गारी का साँप-सीढ़ी का खेल जारी है, उसे तब तक घृणा और वैमनस्य से ग्रस्त हो परस्पर टकराते तो
रहना ही पड़ेगा। निराला की दृष्टि रोज़गार की तलाश में बदहाल
मृतक-आश्रित कोटे नौकरी के चक्कर में पुत्र को पिता-हन्ता बना डालने के लिये बाध्य
कर देने वाली वर्तमान व्यवस्था की क्रूर जालसाज़ी तक तो पहुँच ही नहीं सकती थी।
क्योंकि निराला की दृष्टि विप्लव के वीर की दृष्टि थी ही नहीं। और न वह विप्लव के
एक भी वीर को गढ़ सकी। वह गढ़ सकती भी नहीं थी, क्योंकि रचनाकार जैसा खुद होता है, वैसी ही उसकी सृजन-क्षमता भी होती है और उसकी कृति भी उसी
कोटि की ही बन पाती है।
हाँ, पूँजीवादी
भारत का शासन कितना सजग है अपने विद्रोही को अपमानित करने के अपने उत्तरदायित्व के
प्रति। जीवित निराला ही नहीं, मरणोपरान्त
भी नहीं,
यहाँ तक कि जन्मशताब्दी वर्ष में भी जनकवि को सम्मानित करने
से बचती रही है जन-विरोधी व्यवस्था की सत्ता। विद्रोह किया, सच कहा, व्यंग्य
किये,
तो सज़ा तो मिलेगी ही। शरीर टूटेगा, मन बिखरेगा, और सम्मान... कुत्ते-बिल्ली का भी सम्मान होगा! मगर पट्टा
पहनने से इनकार करने वाले निराला का सम्मान? कदापि नहीं, कभी नहीं।
यही नहीं, जो
पुत्र अपनी फ़ीस अपने मित्र की घड़ी गिरवी रखकर जुटा सका था, अब वह निराला-रचनावली के कापी-राइट के सहारे अपने पिता के
वर्ग-बन्धुओं के विरुद्ध ज़रूर जा खड़ा होगा। एक-एक किताब पचास-पचास रुपये की! खरीदो
न,
भाई! ‘विप्लव का
राग’
बाज़ार में बहुत महँगा बिक रहा है। क्या कहा? सर्वहारा हो! पैसे नहीं हैं! फिर तो निराला की दृष्टि की
विरासत नहीं पा सकोगे। वर्तमान की विकृति का सबसे घृणास्पद पक्ष यही है कि जैसे भी
थे,
निराला साहस के साथ जन के साथ पाले के इस पार खड़े थे।
किन्तु आज उनके प्रकाशकों ने खुद उनको ही जन से छीन कर दूर कर दिया है और शीशे मढ़ी
आलमारियों में जड़ दिया है। इस तरह अन्ततः निराला का उग्रपरिवर्तनवादी चिन्तन
निष्क्रिय बुद्धिजीवियों के निकम्मे बुद्धि-विलास की सामग्री बन बैठा।
और, आज का
सन्दर्भ है - बातों का। बातें चाहे निराला करें या हम-आप। जैसा कि हम कर भी रहे
हैं। तो बातें तो फिर केवल बातें ही हैं - चाहे वे बोल कर की जायें या लिखकर, गद्य में की जायें या पद्य में, छन्द-बद्ध हों या अतुकान्त - मात्र बातों से तो आज की
आर्थिक गुलामी की कसती जा रही ऑक्टोपसी जकड़ कभी नहीं टूटने वाली। हाँ, ‘विप्लव का वीर’ ज़रूर प्रतीक्षारत है, कि कब और कैसे जुगाड़ बना सकेगा निराला से प्रेरणा पा लेने
का। वह निराला को, हम को, आप को, सब
को निराला के शब्दों में ही चेता रहा है - ‘‘बाँधो न नाव इस ठाँव बन्धु, पूछेगा सारा गाँव बन्धु !’‘ आपकी अपनी दृष्टि हो तो देखिए, सम्हलिए और बन्धन काट कर, नाव बढ़ाइए। यदि आपने यह कर के दिखा दिया, तो इतिहास आप ही का ऋणी रहेगा। वरना, कोई तो आयेगा, जो विप्लव का राग गाता, लहू का फाग खेलता इस आदमख़ोर व्यवस्था को बदल डालेगा।
(यह लेख 23
फरवरी,
97 को लिखा गया था। अतः प्रसंगों की कालजनित
सीमाओं के लिये क्षमा-याचना के साथ आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करता हूँ।)
http://www.scribd.com/doc/79682261/NIRALA-SATAT
कुकुरमुत्ता (कविता) - सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
आया मौसम खिला फ़ारस का
गुलाब,
बाग पर उसका जमा था रोबोदाब
वहीं गंदे पर उगा देता हुआ
बुत्ता
उठाकर सर शिखर से अकडकर
बोला कुकुरमुत्ता
अबे, सुन बे गुलाब
भूल मत जो पाई खुशबू, रंगोआब,
खून चूसा खाद का तूने
अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है
कैपिटलिस्ट;
बहुतों को तूने बनाया है
गुलाम,
माली कर रक्खा, खिलाया जाडा घाम;
हाथ जिसके तू लगा,
पैर सर पर रखकर वह पीछे को
भगा,
जानिब औरत के लडाई छोडकर,
टट्टू जैसे तबेले को तोडकर।
शाहों, राजों, अमीरों
का रहा प्यारा,
इसलिए साधारणों से रहा
न्यारा,
वरना क्या हस्ती है तेरी, पोच तू;
काँटों से भरा है, यह सोच तू;
लाली जो अभी चटकी
सूखकर कभी काँटा हुई होती,
घडों पडता रहा पानी,
तू हरामी खानदानी।
चाहिये तूझको सदा
मेहरुन्निसा
जो निकले इत्रोरुह ऐसी दिसा
बहाकर ले चले लोगों को, नहीं कोई किनारा,
जहाँ अपना नही कोई सहारा,
ख्वाब मे डूबा चमकता हो
सितारा,
पेट मे डंड पेलते चूहे, जबाँ पर लफ़्ज प्यारा।
देख मुझको मै बढा,
डेढ बालिश्त और उँचे पर चढा,
और अपने से उगा मै,
नही दाना पर चुगा मै,
कलम मेरा नही लगता,
मेरा जीवन आप जगता,
तू है नकली, मै हूँ मौलिक,
तू है बकरा, मै हूँ कौलिक,
तू रंगा, और मै धुला,
पानी मैं तू बुलबुला,
तूने दुनिया को बिगाडा,
मैने गिरते से उभाडा,
तूने जनखा बनाया, रोटियाँ छीनी,
मैने उनको एक की दो तीन दी।
चीन मे मेरी नकल छाता बना,
छत्र भारत का वहाँ कैसा तना;
हर जगह तू देख ले,
आज का यह रूप पैराशूट ले।
विष्णु का मै ही सुदर्शन
चक्र हूँ,
काम दुनिया मे पडा ज्यों, वक्र हूँ,
उलट दे, मै ही जसोदा की मथानी,
और भी लम्बी कहानी,
सामने ला कर मुझे बैंडा,देख कैंडा,
तीर से खींचा धनुष मै राम
का,
काम का
पडा कंधे पर हूँ हल बलराम
का;
सुबह का सूरज हूँ मै ही,
चाँद मै ही शाम का;
नही मेरे हाड, काँटे, काठ या
नही मेरा बदन आठोगाँठ का।
रस ही रस मेरा रहा,
इस सफ़ेदी को जहन्नुम रो
गया।
दुनिया मे सभी ने मुझ से रस
चुराया,
रस मे मै डुबा उतराया।
मुझी मे गोते लगाये आदिकवि
ने, व्यास ने,
मुझी से पोथे निकाले
भास-कालिदास ने
देखते रह गये मेरे किनारे
पर खडे
हाफ़िज़ और टैगोर जैसे
विश्ववेत्ता जो बडे।
कही का रोडा, कही का लिया पत्थर
टी.एस.ईलियट ने जैसे दे
मारा,
पढने वालो ने जिगर पर हाथ
रखकर
कहा कैसा लिख दिया संसार
सारा,
देखने के लिये आँखे दबाकर
जैसे संध्या को किसी ने
देखा तारा,
जैसे प्रोग्रेसीव का लेखनी
लेते
नही रोका रुकता जोश का पारा
यहीं से यह सब हुआ
जैसे अम्मा से बुआ ।
उमाशंकर सिंह परमार - निराला की कविताई को डायलैक्टिक नजरिए से देखना भले ही नया न हो पर आपकी स्थापनाएं जरूर नयी हैं युग के साथ सामन्जस्य स्थापित करते हुए निराला का पुनर्पाठ , अर्थाभिधान , अभी शेष है ....आपका आलेख इस पुनर्पाठ की पूर्वपीठिका तैयार कर रहा है । बहुत ही बढिया विवेचन सर बधाई
ReplyDeleteअजित कुमार राय - मैं गिरिजेश जी की तर्क-सरणि, भाषिक संचेतना और सूक्ष्म मेधा से मुग्ध हूँ | किन्तु आप जैसे प्रगतिशील चिन्तकों से मेरी अपील है कि कबीर को कबीर और निराला को निराला ही बने रहने दें | उन्हें अपनी दृष्टि और झण्डा न पकड़ाएँ | निराला का विश्लेषण यथार्थवादी दृष्टि से होना चाहिए, मार्क्सवादी दृष्टि से नहीं | यथार्थवाद, भौतिकतावाद का पर्याय नहीं |आपका विश्लेषण भी अन्तर्विरोधों से लैस है | अध्यात्म जीलन से पलायन नहीं है | जीवन-संघर्षों के ठीक बीचोंबीच सन्तुलन या समाधि का आख्यान है | गीता का प्रवचन किसी अरण्य या यग्य-मंडप में नहीं होता | यदि निराला ठीक से आध्यात्मिक हो जाते तो कभी विक्षिप्त नहीं होते | और निराला स्वार्थ-समर हारते रहे, जीवन-समर नहीं | महाप्राण निराला के व्यापक संघर्ष को वर्गीय संघर्ष में रिड्यूस करने की चेष्टा नहीं होनी चाहिए | निराला के राम ने शक्ति को अपनी आँख अर्पित की थी, साधनात्मक संकल्प वाली त्यागमूलक दृष्टि नहीं | सबसे बड़ा चमत्कार यह है कि शरीर के नाश के बाद भी आत्मा नहीं मरती | हम ब्राह्मणवाद की विकृतियों के खिलाफ हैं या भारतीय संस्कृति के ? माँस-मदिरा का भक्षण मार्क्सवादियों की एक कुत्सित रूढ़ि है |
— with उमाशंकर सिंह परमार and 2 others.