इन्कलाब-ज़िन्दाबाद! दुनिया के मजदूरो, एक हो! साम्राज्यवाद-मुर्दाबाद!
मई-दिवस मेहनतकश का त्यौहार है। पहली मई को सारी दुनिया के
मज़दूर अपने-अपने मालिकों की इच्छा के विरुद्ध हड़ताल करते हैं, जुलूस निकालते हैं
तथा सभाओं का आयोजन करते हैं। वे अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं, अपनी उपलब्धियों और
असफलताओं का लेखा-जोखा लेते हैं, अपनी एकता की ताकत तथा
जुझारू तेवर की धार को बनाये रखने का संकल्प लेते हैं।
मई-दिवस की गौरवशाली गाथा का जन्म सर्वहारा वर्ग द्वारा
पूँजी की दासता के विरुद्ध रक्तरंजित संघर्ष की शानदार परम्परा में हुआ है।
पूँजीवादी व्यवस्था न्यूनतम मज़दूरी और अधिकतम मुनाफ़ा के तर्क के सहारे ज़िन्दा है।
हर मालिक अपने मज़दूर को अधिक से अधिक खटाने के चक्कर में रहता है। उसका वश चले, तो काम करने वाले
हाथों को एक मिनट भी आराम का मौका न दे। मगर यह नामुमकिन है। आराम के पल नहीं
मिलेंगे, तो अगली खटनी भी नहीं हो पायेगी।
एक ज़माना था, जब मज़दूरों से बीस घण्टे तक
काम लिया जाता था। 1806 में अमेरिका में फिलाडेल्फिया के हड़ताली
मोचियों के मुकदमे से यह तथ्य सामने आया। 1734 में न्यूयार्क के बेकरी
मज़दूरों की हड़ताल पर ‘वर्किङमेन्स ऐडवोकेट’ नामक अख़बार ने लिखा- ‘‘बेकरी के हुनरमन्द
कारीगर मिस्र के गुलामों से भी बदतर ज़िन्दगी गुज़ारते हैं। उनको रोज़ाना 18-20 घण्टे काम करना
पड़ता है। हमारे देश में 1918 की लेबर कमीशन की रिपोर्ट ने कहा - ‘सूती मिलों और जूट
मिलों में 16-18 घण्टे काम लिया जाता है’। 1915 में बम्बई के
मिल-मजदूरों ने 12 घण्टे का कार्य-दिवस मानने के लिए मालिकों को मज़बूर किया। 1920 में 10 घण्टे का काम का
दिन माँगा और 1922 में बने श्रम-कानून में 11 घण्टे का
कार्य-दिवस और पूरे सप्ताह में 60 घण्टे का श्रम-काल रखा
गया।
सबसे पहले आस्ट्रेलिया के निर्माण उद्योग के मजदूरों ने
नारा दिया - ‘‘आठ घण्टे काम, आठ घण्टे आराम, आठ घण्टे मनोरंजन’’। उन्होंने 1856 में इस माँग को
मनवा लिया। भारत में 1862 में हावड़ा के रेलवे मज़दूरों ने आठ घण्टे के
कार्य-दिवस की माँग करते हुए हड़ताल की थी। इसमें 1100 मज़दूरों ने भाग लिया था।
यह भारतीय औद्योगिक मज़दूर वर्ग की प्रथम हड़ताल थी। दुनिया की सबसे पहली
ट्रेडयूनियन अमेरिका के फिलाडेल्फिया के मेकैनिक मज़दूरों की थी। इसी यूनियन ने 1827 में राज मज़दूरों की
हड़ताल का नेतृत्व किया। उनकी माँग ‘10 घण्टे का कार्य-दिवस’ थी। 1873 में अमेरिकी सरकार
को 10 घण्टे के कार्य-दिवस का कानून बनाना पड़ा।
अमेरिकी गृहयुद्ध (1861-62) के बाद मज़दूर
आन्दोलन और भी संगठित होता गया। 1866 में बाल्टीमोर में 60 यूनियनों ने
सम्मेलन करके एक राष्ट्रीय मंच के रूप में ‘नेशनल लेबर यूनियन’ की स्थापना की।
सम्मेलन ने प्रस्ताव पास किया - ‘‘पूँजीपतियों की दासता से
देश को मुक्त करने के लिए आज की पहली और सबसे बड़ी ज़रूरत है कि अमेरिका के हर राज्य
में आठ घण्टे का कार्य-दिवस बनाने के लिए कानून बनाया जाये।’’ दो वर्ष पूर्व 1864 में मार्क्स और
एंगेल्स के नेतृत्व में प्रथम इण्टरनेशनल (अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर संघ) का गठन हो
चुका था। 1866 में इण्टरनेशनल के जेनेवा अधिवेशन ने प्रस्ताव
पारित किया - ‘‘काम के दिन को सीमित किया जाना पहली शर्त है, जिसके बिना सुधार और मुक्ति के सभी प्रयत्न
अवश्य ही निष्फल साबित होंगे। कांग्रेस (अधिवेशन) का प्रस्ताव है कि काम की कानूनी
सीमा आठ घण्टे होनी चाहिए। कांग्रेस इसे सारी दुनिया के मज़दूरों की माँग समझती है।’’
1868 में अमेरिका ने कानून पास
किया - ‘‘जनहित के कामों में मज़दूरों से दिन में आठ घण्टे ही काम
लिया जाये।’’ 1867 में प्रकाशित पूँजी के प्रथम खण्ड में मार्क्स
ने लिखा - ‘‘जब तक अमेरिकी प्रजातन्त्र के किसी भी हिस्से में गुलामी का
धब्बा बरकरार रहा, तब तक किसी भी तरह का स्वतन्त्र मज़दूर आन्दोलन पनप नहीं
सका। जहाँ काली चमड़ी वाले मज़दूरों को नफ़रत की निगाह से देखा जाता है, वहाँ गोरा मज़दूर भी
अपने को आज़ाद नहीं पा सकता। लेकिन दास-प्रथा की समाप्ति के साथ ही एक नये ओजस्वी
जीवन के अंकुर फूटे। गृह-युद्ध का पहला नतीजा यह हुआ कि ‘काम के घण्टे आठ करो’ का आन्दोलन
अटलाण्टिक से पैसिफ़िक तक और न्यू इंग्लैण्ड से कैलीफोर्निया तक फैल गया।
अमेरिका में 1873 और 1884 में पूँजीवादी
व्यवस्था आर्थिक मन्दी का शिकार हो गयी। मन्दी में लोगों की खरीदने की ताकत कमज़ोर
हो जाती है और बाज़ार में बिना बिका तैयार माल पटा रहता है। इसलिए पूँजीपति वर्ग या
तो तैयार माल को बर्बाद कर डालता है, या मज़दूरों की छँटनी करके
और काम का बोझ बढ़ाकर लागत घटाता है, ताकि मुनाफे को घटाये बिना
कीमत कम हो सके। ऐसे में खानों के मालिकों के इशारे पर 1875 में अमेरिकी सरकार
ने पेन्सिलवेनिया के ऐन्थ्रासाइट क्षेत्र में दस जुझारू खदान मज़दूरों को फाँसी दे
दी।1877 में इसके जवाब में मज़दूरों ने देशव्यापी हड़ताल
की। सरकार ने सैनिक-दस्ते भेजे और दमन किया। मज़दूरों को प्रतिरोध-संघर्ष का अनुभव
हासिल हुआ। आन्दोलन बढ़ चला। 1881से 1884 तक अमेरिका में
प्रतिवर्ष 500 हड़तालों में 1,50,000 मज़दूरों ने भाग लिया। 1885 में 700 हड़तालें हुईं और 2,50,000 मज़दूरों ने भाग लिया। 1886 में 1572 हड़तालों में 11,562 उद्योगों के 6,00,000 मज़दूरों ने शानदार शिकरत की।
1884 में फ़ेडरेशन ऑफ अमेरिकन
लेबर के सम्मेलन में प्रस्ताव पास हुआ कि पहली मई 1886 से 8 घण्टे का
कार्य-दिवस कानूनी तौर पर वैध कार्य-दिवस होगा। 1885 में इस प्रस्ताव को
सम्मेलन ने फिर दोहराया और उस दिन हड़ताल का फैसला लिया। पहली मई के आन्दोलन का
सबसे जबरदस्त गढ़ शिकागो था। वहाँ आन्दोलन की कमेटी में फ़ेडरेशन ऑफ़ अमेरिकन लेबर के
साथ सेन्ट्रल लेबर यूनियन, नाइट्स ऑफ़ लेबर तथा सोशलिस्ट लेबर पार्टी शामिल हुए। पहली
मई की हड़ताल की तैयारी के लिए उससे पहले पड़ने वाले रविवार को 25,000 मज़दूरों ने जुलूस निकाला।
अन्त में 1886 का ऐतिहासिक पहली मई का
दिन आ गया। यह शनिवार था। पूरे अमेरिका में मज़दूरों ने ‘काम के घण्टे आठ करो’ के आन्दोलन को अपनी
पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया। 3,50,000 मजदूरों ने हड़ताल की और
जुलूस निकाले। अकेले शिकागो में ही 80,000 मज़दूरों ने हड़ताल की और
जुलूस में सड़क पर उतर पडे़। सारा शहर ठप्प पड़ गया। सभी मशीनें रुक गयीं। मज़दूरों
ने अपने औज़ार रख दिये। जुलूस के आगे दो मज़दूर चल रहे थे। एक के हाथ में कुल्हाड़ी
थी और दूसरे के कन्धे पर गैंती थी। सभी ने अपने कारखाने के कपड़े पहने थे। आरा मशीन
पर काम करने वाले लकड़हारे, ढुलाई करने वाले कुली, पैकिङ करने वाले, बढ़ई, दरजी, बेकरी-मज़दूर, कारख़ानों के मज़दूर, नाई, राजगीर और यहाँ तक
कि सेल्समैन और क्लर्क भी एकजुट होकर सड़कों पर निकल आये। जुलूस शान्तिपूर्ण रहा।
कोई हिंसा नहीं हुई। फिर भी आतंकित अख़बारों ने लिखा - ‘‘सभी हड़तालों से श्रम
का नुकसान हुआ।’’ पूरा शहर दो भागों में बँट चुका था। परस्पर
विरोधी दो सेनाएँ आमने-सामने थीं। एक तरफ़ मज़दूर थे, दूसरी तरफ़ पूँजीपति।
अख़बारों ने इसे ‘सामाजिक युद्ध’ की संज्ञा दी। पूँजी के
मालिक थर्रा गये। मज़दूरों के दुश्मन कसमसा रहे थे।
तीन मई को सोमवार था। मैककार्मिक हारवेस्टिङ वर्क्स के
कारख़ाने के फाटक पर 6000 मज़दूर शान्तिपूर्वक सभा कर रहे थे। पुलिस ने
बिना किसी कारण इस सभा पर बर्बर हमला किया। गोली चली। 6 मज़दूर मारे गये और
बहुत-से घायल हुए। इस तरह मई दिवस के शान्तिपूर्ण हड़ताल और जुलूस को पूँजीपति वर्ग
ने मज़दूरों के ख़ून में डुबा दिया। पूँजीपति वर्ग ने अपना बदला ले लिया था। अब
मज़दूरों में आक्रोश की लहर फैल गयी। उन्होंने प्रतिवाद करने की ठानी। अगले दिन 4 मई को शिकागो के
हे-मार्केट (भूसा-बाज़ार) में विशाल सभा का आयोजन किया गया। जन-सभा शान्तिपूर्वक चल
रही थी। तभी पुलिस आयी। कप्तान ने कहा - फ़ौरन तितर-बितर हो जाओ। वक्ता मंच से
उतरने लगे। भीड़ सड़क के दूसरी ओर जाने लगी। तभी एक बम किराये के गुण्डों द्वारा
फेंका गया। एक पुलिसकर्मी और चार मज़दूर मारे गये। कई घायल हुए। इसके तुरन्त बाद
पुलिस वालों ने बन्दूकें तान लीं। उन्होंने पागलों की तरह गोलियाँ बरसाना शुरू कर
दिया। पिछले दिन की घटना हल्की पड़ गयी। बच्चे, औरतें, मर्द - सबको एक तरफ़
से भून दिया गया। भीड़ तितर-बितर हो गयी थी। लोग चीखते-चिल्लाते, गिरते-पड़ते चारों ओर
भाग रहे थे। हाहाकार मचा हुआ था। गोलियों से घायल मज़दूर सड़क पर गिरते जा रहे थे।
ख़ून बह रहा था। लेकिन पुलिस गोलियाँ बरसाती रही। फिर भी मज़दूरों का लाल झण्डा ख़ून
से लथपथ मज़दूरों के सिर पर पूरी शान से लहराता रहा।
इसके बाद शुरू हुआ न्याय का नाटक। कानून ने अपना वर्गीय
चरित्र दिखाया। दमन का चक्र चला। धड़ाधड़़ गिरफ़्तारी हुई। शिकागो के आठ
सामाजिक-क्रान्तिकारी गिरफ़्तार कर लिये गये। उनके नाम थे - आगस्ट स्पाइस, अल्बर्ट पार्सन्स, सैमुएल फिल्डेन, जार्ज एंगेल, एडोल्फ़ फ़िशर, माइकेल स्क्वाएब, ऑस्कर नीबे और लुई
लिंग। इनमें से 6 बम-विस्फोट के समय घटनास्थल पर थे ही नहीं। मनगढ़न्त आरोपों
के साथ अब झूठा मुकदमा चल पड़ा। मुकदमे के दौरान अपने बयान में ऑस्कर नीबे ने बताया
कि मज़दूर किन हालातों में दिन गुज़ारते हैं। सुबह चार बजे काम पर निकलते हैं, तो रात में आठ बजे
घर लौटते हैं। दिन की रोशनी में उन्होंने अपने परिवार व बच्चों को कभी नहीं देखा।
ऐसे मज़दूरों को उन्होंने संगठित करना चाहा। अगर यह अपराध है, तो वे अपराधी हैं।
पार्सन्स ने एक कविता से शुरू किया - ‘‘भय व अभाव की गुलामी तोड़ो, रोटी आज़ादी है, आज़ादी रोटी है।’’ उन्होंने बताया कि
किस तरह पुलिस और गुण्डों ने मिलकर निरीह व निरपराध मज़दूरों का कत्ल किया, अमेरिकी मज़दूर किस
तरह धनी वर्ग के शोषण के शिकन्जे में जकड़े हैं, किस तरह न्यूयार्क के एक
इज़ारेदार पूँजीपति के हाथ से हे-मार्केट की सभा को तोड़ने के लिए बम आया। उन्होंने
पूरी साज़िश का पर्दाफ़ाश किया। स्पाइस ने कहा - ‘‘अभाव और कष्ट के बीच मज़दूर
जो ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं, हमारा संग्राम उन्हें मुक्ति की रोशनी दिखाने की उम्मीद
करता है। आप क्या सोचते हैं कि हमें फाँसी पर लटका कर उस आन्दोलन का दमन कर सकेंगे?’’
अदालत ने 9 अक्टूबर,1886 को फैसला सुनाया ।
चार क्रान्तिकारियों को सज़ा-ए-मौत दी। उनके नाम थे - आगस्ट स्पाइस, अल्बर्ट पार्सन्स, एडोल्फ़ फ़िशर, जार्ज एंगेल। ऑस्कर
नीबे को पन्द्रह, लिंग को दस तथा स्क्वाएब को आठ वर्षों की कैद हुई। सुप्रीम
कोर्ट में अपील की गयी। मगर उसने इस मुकदमे को उलट कर देखने से इन्कार कर दिया।
अगले वर्ष 11 नवम्बर को चारों वीर मज़दूर नेताओं को फाँसी पर लटका कर उनकी
हत्या कर दी गयी। लुई लिंग का शव फाँसी से एक दिन पहले जेल की कोठरी में पड़ा मिला।
फन्दा कसने के ठीक पहले अपने जीवन के अन्तिम क्षण में स्पाइस गरज उठे - ‘‘तुम मेरी आवाज़ घोंट
सकते हो, लेकिन मेरी ख़ामोशी आवाज़ से भी ज़्यादा भंयकर होगी।’’
मौत से सब कुछ ख़त्म नहीं हो जाता। बलिदान संघर्ष के नये
आयाम उजागर करते हैं। 1886 के मई मास की शिकागो शहर की इस रक्तरंजित घटना
ने न केवल अमेरिकी अपितु समूची दुनिया के मज़दूरों के संकल्प को बल दिया। एक नयी
परम्परा का जन्म हुआ। पहली मई का दिन ऐतिहासिक बन गया। 1890 तक इसे
अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर-दिवस का गौरवशाली रूप दिया जा चुका था। 1848 के कम्युनिस्ट
घोषणापत्र में मार्क्स और एंगेल्स ने पहली बार नारा दिया था - ‘‘दुनिया के मजदूरो, एक हो।’’ तब से जारी पूँजी के
विरुद्ध श्रम के युद्ध में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों ने इतिहास के अलग-अलग मोड़ों
पर अलग-अलग देशों में मज़दूर वर्ग का नेतृत्व किया और लाल झण्डे को साक्षी बना कर
सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की समाजवादी समाज-व्यवस्था की बुनियाद रखने के लिये
कदम बढ़ाया। 1917 की रूसी क्रान्ति, 1949 की चीनी क्रान्ति तथा द्वितीय विश्व-युद्ध के समापन से एक तिहाई धरती पर लाल
झण्डे का राज कायम हो गया। लेनिन, स्टालिन, माओ, हो ची मिन्ह, फिदेल कास्त्रो, चे ग्वेरा और अपने
देश में शहीद-ए-आज़म भगत सिंह ने क्रान्ति का नेतृत्व किया, इतिहास को गति दी और
उसके रथ-चक्र को आगे बढा़या।
मगर इतिहास ने फिर करवट बदली। दुनिया भर के पूँजीपतियों की
साज़िश और क्रान्तिकारी कतारों के बीच घुसपैठ कर चुके गद्दारों ने तस्वीर का रुख़
पलट दिया। आज मज़दूर राज के किले ढह चुके हैं। रूस खण्ड-खण्ड हो चुका है। चीन में
पूँजीवाद की पुनर्स्थापना पूरी हो चुकी है। भारत में कम्युनिस्ट पार्टियाँ संसद की
परिक्रमा कर रही हैं। शोषक वर्ग की सत्ता को मटियामेट करने की बातें करने वाले बिक
गये हैं। क्रान्ति का रास्ता छोड़ धनतन्त्र में सरकार चलाने में लगे हैं। नेतृत्व
की गद्दारी से मर्माहत मज़दूर वर्ग आज शोषण का अपमान झेल कर भी दिग्भ्रमित है।
हिन्दूवादी भारतीय मज़दूर संघ सबसे बड़ी ट्रेड-यूनियन बन चुका है। आज चौतरफ़ा अन्धेरा
घना है। देशी-विदेशी पूँजी का निर्मम प्रहार झेल रहे मजदूरों का कोई राष्ट्रीय या
अन्तर्राष्ट्रीय नेता नहीं है। फिर भी उम्मीद की किरण बाकी है। बादल सूरज को ढक
नहीं सकते। समूची मानवता की मुक्ति साम्राज्यवादी विश्व-व्यवस्था को नेस्तनाबूद
करके ही सम्भव है। क्रान्ति ही एकमात्र विकल्प है। और इतिहास का अन्त नहीं होता।
आज उनका है। कल हमारा होगा।
“ऐ ख़ाक-नशीनो, उठ बैठो, वह वक्त करीब आ पहुँचा है।
“ऐ ख़ाक-नशीनो, उठ बैठो, वह वक्त करीब आ पहुँचा है।
जब
तख़्त गिराये जायेंगे, जब ताज़ उछाले जायेंगे...”।।
विशेष अनुरोध:- मेरा यह व्याख्यान इस श्रृंखला
का तेरहवाँ व्याख्यान है. यह प्रयास युवा-शक्ति की सेवा में विनम्रतापूर्वक
समर्पित है.
कृपया इस प्रयास की सार्थकता के बारे में अपनी
टिप्पड़ी द्वारा मेरी सहायता करें. इसका लिंक यह है -
http://youtu.be/QgsnaJMskX4
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