Thursday, 25 July 2013

पराजय की त्रासदी - गिरिजेश


एक और दाँव हारा मैंने, एक और पराजय देख लिया;
एक और आज रिश्ता टूटा, एक और आज बन्धन छूटा;
एक और सहारा छूट गया, एक और आज भ्रम टूट गया

मेरी उम्मीद और ही थी, उसकी मनमानी जारी है;
उसको बर्बाद देखने की मेरी कैसी लाचारी है!

कोशिश की बहुत बचाने की, हर कदम सत्य समझाने की;
पर अन्तिम गाँठ ज़िन्दगी की बच नहीं सकी, तड़ टूट गयी।
जीने का मकसद समझाने की कोशिश में ही छूट गयी।

मैं खण्डहर-सा बिखरा-पसरा, जीवन की ज्योति कहाँ से दूँ?
बचपन की लोरी-किलकारी, यौवन की अल्हड़ चिनगारी;
मादक वसन्त की कलिका-सा नूतन सौन्दर्य कहाँ से दूँ?
मन विगलित है, तन टूट चुका, सपनों का आकर्षण छूटा;
फिर भी शरीर जीवित है, तो उल्लास-विलास कहाँ से दूँ?

जीवन तो महज़ बहाना था, था लक्ष्यवेध ही रहा लक्ष्य;
क्या फिर भी कभी, किसी को भी, कुछ भी समझाना मुमकिन है?
समझा कर उसको ऊँच-नीच, सहमत कर पाना मुमकिन है?
अब लक्ष्यभ्रष्ट-दंशित-शापित-कुण्ठित जीवन क्या मुमकिन है? 
23.7.2013 (3.23 p.m.)



प्रिय मित्र, मेरे दुश्मनों की नफ़रत आज तक मेरा कोई नुकसान नहीं कर सकी। उनकी गोली मुझे नहीं मार सकी। मगर मेरे दोस्तों का मीठा झूठ मुझे कदम-दर-कदम तरह-तरह से नुकसान पहुँचाता रहा। ऐसे अनेक दोस्तों के मुँह से मीठी मुस्कान के साथ निकलने वाला हर झूठ मेरे भरोसे की हत्या करता रहा। मुझसे आत्मसमर्पण करवाने की मंशा से परिचालित हो कर वह मेरा हौसला तोड़ने का चक्कर चलाता रहा। वह मेरी ज़िद को कमज़ोर करने की साज़िशाना कोशिश करता रहा।
उन्होंने मुझे कभी भी न तो सुकून से जीने दिया और न ही पूरी ताकत से सृजन के संघर्ष में जूझने दिया। बार-बार अपना काम निकाल लेने के बाद उन्होंने मुझे आत्महन्ता मनोदशा की विभीषिका तक पहुँचाया। उन्होंने हर बार जल्दी से अपनी मधुर-भाषिणी शैली का मुखौटा उतार कर फेंक देने के साथ ही अपनी झपसटई वाली असली शक्ल दिखला दिया। तुरत-फुरत लाभ लेने की आतुरता का शिकार होकर मुझे अपने लिये अब और किसी काम का न समझ कर और हर तरह से असमर्थ मान कर सड़क पर नितान्त अकेला छोड़ दिया। 
आज फिर एक बार ऐसी ही विसंगति की परिस्थिति से रू-ब-रू होने पर मेरा मन अपनी ज़िद को छोड़ने के लिये तैयार नहीं हो पा रहा। हाँ, इसके विपरीत अपने दुर्गम पथ पर एकाकी ही सही आगे और आगे चलते चले जाने पर ही आमादा है। अन्जाम की परवाह मुझे न तो कभी भी पहले ज़िन्दगी में थी और न अभी ही है। 
ऐसे में अपने शानदार दोस्त रविन्दर गोयल से सुना यह शेर आज एक बार फिर मुझे याद आ रहा है -
"यहाँ जीने नहीं देते, वहाँ मरने नहीं देते;
मुझे दोनों जहाँ में बेकसी मालूम होती है।"
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश

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