Monday 30 June 2014

– : धर्म का सवाल और मार्क्स का कथन :–

















प्रिय मित्र, धर्म और सम्प्रदाय तथा धार्मिक उत्सवों और आयोजनों के बारे में मार्क्सवादी क्रान्तिकारियों की अवस्थिति पर विभिन्न धर्मो और सम्प्रदायों के अनुयायिओं द्वारा लगातार हमले होते रहे हैं. इन हमलावरों को धर्म के बारे में मार्क्स के कथन को अंशतः उद्धरित करते हुए भी देखा जाता है. यह भी एक त्रासदी ही है कि सन्दर्भ से काट कर दिया जाने वाला आधा-अधूरा उद्धरण अनर्थ कर देता है. और फिर एक विचित्र भ्रम उत्त्पन्न हो जाता है. उस भ्रम को ही सत्य मानने वाले स्वयं तो हास्यास्पद होते ही हैं, साथ ही अपने प्रतिवादी को भी अपने तर्कों की विसंगति के सहारे अपने जैसी ही हास्यास्पद परिस्थिति में फँसा देते हैं. ऐसा करना अनुचित है. पूरी जानकारी के बिना किया जाने वाला तर्क कुतर्क में ही रूपान्तरित होने को विवश होता है. 

धर्म के बारे में मार्क्स कहते हैं –
“Religion is, indeed, the self-consciousness and self-esteem of man who has either not yet won through to himself, or has already lost himself again. But man is no abstract being squatting outside the world. Man is the world of man—state, society. This state and this society produce religion, which is an inverted consciousness of the world, because they are an inverted world. Religion is the general theory of this world, its encyclopedic compendium, its logic in popular form, its spiritual point d'honneur, its enthusiasm, its moral sanction, its solemn complement, and its universal basis of consolation and justification. It is the fantastic realization of the human essence since the human essence has not acquired any true reality. The struggle against religion is, therefore, indirectly the struggle against that world whose spiritual aroma is religion.

Religious suffering is, at one and the same time, the expression of real suffering and a protest against real suffering. Religion is the sigh of the oppressed creature, the heart of a heartless world, and the soul of soulless conditions. It is the opium of the people.

The abolition of religion as the illusory happiness of the people is the demand for their real happiness. To call on them to give up their illusions about their condition is to call on them to give up a condition that requires illusions. The criticism of religion is, therefore, in embryo, the criticism of that vale of tears of which religion is the halo.”
( from the introduction of Contribution to Critique of Hegel's Philosophy of Right)

“धर्म, वास्तव में, मनुष्य की आत्म-चेतना और आत्मसम्मान है, जिसने या तो अभी तक स्वयं को स्वयं ही नहीं जीता है, या अभी भी स्वयं को दुबारा हार चुका है. परन्तु मनुष्य संसार से परे पड़ी हुई कोई अमूर्त अन्तर्वस्तु नहीं है. मनुष्य मनुष्य का संसार है - राज्यसत्ता, समाज. यह राज्यसत्ता और यह समाज ही धर्म को उत्पन्न करता है, जो कि संसार की उल्टी चेतना है क्योंकि वे एक उल्टा संसार हैं. धर्म इस संसार का सामान्य सिद्धान्त, इसका विश्वकोशीय संग्रह, लोकप्रिय रूप में इसका तर्क, इसके आध्यात्मिक सम्मान का मुद्दा, इसका उत्साह, इसकी नैतिक स्वीकृति, इसका पवित्र पूरक, और इसकी सांत्वना और औचित्य का सार्वभौमिक आधार है. यह मानवीय अन्तर्वस्तु की अद्भुत अनुभूति है क्योंकि मानवीय अन्तर्वस्तु ने किसी भी वास्तविक सत्य को आत्मसात नहीं किया है. इसलिये धर्म के विरुद्ध संघर्ष परोक्ष रूप से उस संसार के विरुद्ध संघर्ष है, जिसकी आध्यात्मिक सुगन्धि धर्म है.

वास्तविक पीड़ा और वास्तविक पीड़ा के विरुद्ध प्रतिवाद की एक ही साथ और एक ही समय में अभिव्यक्ति ही धार्मिक पीड़ा है. धर्म पीड़ित मनुष्य की आह है, एक हृदयहीन संसार का ह्रदय है और आत्माविहीन परिस्थितियों की आत्मा है. यह जन-गण की अफीम है.

जन-गण की भ्रामक प्रसन्नता के रूप में धर्म का उन्मूलन उनकी वास्तविक प्रसन्नता के लिये माँग है. उनका अपनी परिस्थितियों के बारे में अपने भ्रमों को त्याग देने का आह्वान उनसे उन परिस्थितियों को त्याग देने का आह्वान है, जिनको भ्रमों की आवश्यकता होती है. इसलिये धर्म की आलोचना भ्रूण रूप में आँसुओं का त्याग है, जिनका धर्म ही आभा-मण्डल है.”
(the introduction of Contribution to Critique of Hegel's Philosophy of Right से)

मार्क्स की पूरी बात आपने पढ़ी. क्या अभी भी आप इससे असहमत हैं ? यदि नहीं, तो विचार करें कि एक मार्क्सवादी को किसी भी धर्म, सम्प्रदाय और उसके उत्सवों, आयोजनों तथा अनुष्ठानों के सम्बन्ध में कैसा आचरण करना चाहिए.

मानव-जाति अभी भी मुख्यतः अपनी आस्थाओं के अनुरूप ही आचरण कर रही है. मनुष्य का चिन्तन ही उसके आचरण का आधार बनाता है. धर्म और विज्ञान दोनों के बीच दार्शनिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सभी स्तरों पर शताब्दियों से सतत शास्त्रार्थ जारी है. यह एक सम्वेदनशील मुद्दा है क्योंकि बीच-बीच में मुट्ठी भर सत्ता-लोलुपों के निहित स्वार्थों के चलते यह शास्त्रार्थ ‘शस्त्रार्थ’ में रूपान्तरित होता रहता है. साम्प्रदायिक सौहार्द और साम्प्रदायिक नफ़रत दोनों एक ही आधार-शिला पर स्थापित हैं. दंगाई इसी नफ़रत के सहारे अफ़वाह फैलाते रहे हैं और दंगे करते रहे हैं. जबकि शहीद-ए-आज़म भगत सिंह से आज तक सभी जनपक्षधर क्रान्तिकारी लगातार यह प्रयास करते रहे हैं कि अलग-अलग सम्प्रदायों और धर्मों के अनुयायिओं के बीच परस्पर शान्ति, स्नेह और भाई-चारा बना रहे. इस प्रयास को मूर्तमान करने में हमसे चूकें भी होती हैं.

यदि आप किसी भी एक धर्म या सम्प्रदाय के उत्सवों, आयोजनों तथा अनुष्ठानों का मुखर या मौन समर्थन करते हैं और दूसरे का मुखर या मौन विरोध या बहिष्कार करते हैं, तो क्या आप स्वयं को मार्क्सवादी कहने के योग्य हैं !

Samar Anarya - "नवरात्रि की शुभकामना न देने वाले नास्तिक मित्रों को रमजान मुबारक कहते देखना निराश करता है, बेतरह निराश. प्रगतिशीलता का यही छद्म एक बड़े हिस्से का आपसे विश्वास छीन उन्हें कट्टरपंथियों की गोद में डाल देता है.

[जेएनयू में वो पूरे महीने हॉस्टल-हॉस्टल भटक कर न्यौते निभाना, या इलाहाबाद में सुबह स्कूटर से निकल शाम होते होते खड़े तक न हो पाने की हालत में पंहुच जाना, रमजान की शामों की अफ्तारियां जिंदगी की सबसे खूबसूरत यादों में शुमार हैं. पर इसका मतलब यह तो नहीं कि हम अकीदे वालों में बदल जाएँ, और बदलें तो बाकियों के लिए क्यों न बदलें? रमजान की सामूहिकता दिल खुश करती है पर फिर मैं सिर्फ उत्सवधर्मिता की बधाई दे सकता हूँ, किसी उपवास की नहीं. होली और ईद, दोनों झमक के मनाता रहा हूँ, बधाई भी बस इन्हीं दोनों की दे पाता हूँ, इनकी सामूहिकता और साझेदारी के चलते.]"

"साईंबाबा के मुसलमान होने न होने के विवाद के पीछे चढ़ावे से लेकर हजार मसलों के बावजूद मुझे जाने क्यों कबीर याद आते रहे. हिन्दू धर्म में नए नए पैदा हुए फतवेबाज कहीं उन्हें भी न धकिया दें!
कबीर याद आये तो Purushottam Agrawal सर याद आये, और उनका लिखा वह सब जिसने जिए हुए कबीर को समझाया. बॉर्डर के दोनों तरफ, और अन्दर भी तेज हो रही मजहबी आँधियों के बीच बहुत जरुरी थाती ही नहीं हमारा हथियार भी हैं कबीर, फिर से पढ़ लीजिये. इन नफरतों के दौर में अकथ कहानी प्रेम की ही दरकार है."

सन्दर्भ के लिये कृपया इन लिंक्स तक जाने का कष्ट करें.
http://young-azamgarh.blogspot.in/2014/03/blog-post_1.html
YOUNG AZAMGARH: 'नास्तिक' शब्द की व्याख्या

http://young-azamgarh.blogspot.in/2013/06/blog-post_3.html

YOUNG AZAMGARH: आस्तिक और नास्तिक

http://young-azamgarh.blogspot.in/2013/04/blog-post.html
YOUNG AZAMGARH: साम्प्रदायिक किसे कहते हैं?

http://young-azamgarh.blogspot.in/2012/10/blog-post_18.html

YOUNG AZAMGARH: 'जातिवाद'

ढेर सारे प्यार के साथ आपका - गिरिजेश

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