क्रान्तिवीरों को प्रतिभा उपाध्याय की शाबासी : Somnath Chakraborti की वाल से....
Upadhyaya Pratibha - "शाबाश क्रांतिवीरों! आपस में ही लड़ो, कटो. अभी तो एक ही कामरेड की जान ली है, एक जान से क्रांति कैसे आयेगी? वैसे अपने ये बहुआयामी रूप किसे दिखाने हैं? जनता तो क्रांतिवीरों के मुनाफाखोर, लम्पट, गुंडई इन सबसे परिचित है, इसीलिए सालों में 67 % तो दूर 6% वोट नहीं मिले. 30 साल तक जिस पश्चिम बंगाल में एकछत्र राज्य था, वहाँ से एक भी सीट नहीं मिली. जनता ने औकात दिखा दी है. मार्क्स बाबा लिख गए हैं क्रान्ति ज़रूर आयेगी. लगे रहो असली नकली की खोज में एक दूसरे पर आक्षेप लगाते हुए. इन्कलाब जिंदाबाद!"
Girijesh Tiwari - "Upadhyaya Pratibha, बेटी तुमने सही जगह सही चोट की है. यही यन्त्रणा है इस त्रासदी के पीछे कि पड़ोसी तो क्रांति और प्रतिक्रान्ति दोनों कर चुके. हम अभी 'कीचड-उछाल' खेल रहे हैं. मैं तुम्हारी सम्वेदना को पूरे मन से सैलूट करता हूँ. और दशकों पहले लिखी अपनी यह कविता तुमको ही सम्मान के साथ समर्पित कर रहा हूँ.
_____सूअर का बाल !_____
तुम भी मुँह में ज़ुबान रखते हो, लब हिलाना मुहाल है फिर भी।
पाक़-दामन बचेगा कैसे कोई, दोस्त ‘कीचड़-उछाल है फिर भी?
बख़्श मासूम को नहीं सकते, बोले - ‘‘हमको मलाल है’’ फिर भी।
उनकी आँखें कमाल कर बैठीं, उनमें सूअर का बाल है फिर भी।।
उनसे इन्साफ़ माँगते क्यों हो, घूस जिनको हलाल है फिर भी?
छेद कश्ती में वे करते ही गये, तुमको उनका ख़याल है फिर भी।
तुम ने चाहा सुकून से जीना, ज़िन्दगी का ये हाल है फिर भी?
प्यार के गीत - वाह, क्या कहने? नफ़रतों का सवाल है फिर भी।
घेर अन्धेर क्यों रहा फिर-फिर, जलती जाती मशाल है फिर भी ?
शान इन्सानियत की देखो ज़रा, बाँधे दौलत का जाल है फिर भी।।
Upadhyaya Pratibha - "शाबाश क्रांतिवीरों! आपस में ही लड़ो, कटो. अभी तो एक ही कामरेड की जान ली है, एक जान से क्रांति कैसे आयेगी? वैसे अपने ये बहुआयामी रूप किसे दिखाने हैं? जनता तो क्रांतिवीरों के मुनाफाखोर, लम्पट, गुंडई इन सबसे परिचित है, इसीलिए सालों में 67 % तो दूर 6% वोट नहीं मिले. 30 साल तक जिस पश्चिम बंगाल में एकछत्र राज्य था, वहाँ से एक भी सीट नहीं मिली. जनता ने औकात दिखा दी है. मार्क्स बाबा लिख गए हैं क्रान्ति ज़रूर आयेगी. लगे रहो असली नकली की खोज में एक दूसरे पर आक्षेप लगाते हुए. इन्कलाब जिंदाबाद!"
Girijesh Tiwari - "Upadhyaya Pratibha, बेटी तुमने सही जगह सही चोट की है. यही यन्त्रणा है इस त्रासदी के पीछे कि पड़ोसी तो क्रांति और प्रतिक्रान्ति दोनों कर चुके. हम अभी 'कीचड-उछाल' खेल रहे हैं. मैं तुम्हारी सम्वेदना को पूरे मन से सैलूट करता हूँ. और दशकों पहले लिखी अपनी यह कविता तुमको ही सम्मान के साथ समर्पित कर रहा हूँ.
_____सूअर का बाल !_____
तुम भी मुँह में ज़ुबान रखते हो, लब हिलाना मुहाल है फिर भी।
पाक़-दामन बचेगा कैसे कोई, दोस्त ‘कीचड़-उछाल है फिर भी?
बख़्श मासूम को नहीं सकते, बोले - ‘‘हमको मलाल है’’ फिर भी।
उनकी आँखें कमाल कर बैठीं, उनमें सूअर का बाल है फिर भी।।
उनसे इन्साफ़ माँगते क्यों हो, घूस जिनको हलाल है फिर भी?
छेद कश्ती में वे करते ही गये, तुमको उनका ख़याल है फिर भी।
तुम ने चाहा सुकून से जीना, ज़िन्दगी का ये हाल है फिर भी?
प्यार के गीत - वाह, क्या कहने? नफ़रतों का सवाल है फिर भी।
घेर अन्धेर क्यों रहा फिर-फिर, जलती जाती मशाल है फिर भी ?
शान इन्सानियत की देखो ज़रा, बाँधे दौलत का जाल है फिर भी।।
— गिरिजेश (18.9.2002.)
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