अभी तक इतिहास के विविध काल-खण्डों का विश्लेषण अथवा इन काल-खण्डों के व्यक्तित्वों के संतुलित मूल्यांकन का प्रश्न तो फिर भी लोगों के बीच हमें अपना वैचारिक मतभेद रखने और अन्य मतानुयायिओं द्वारा हमारी बातों को सहन कर लिये जाने का आधार बना चुका है. परन्तु मिथक साहित्य के मूल्यांकन के प्रश्न पर तो आध्यात्मिक धारा के अधिकतर लोग अपनी आस्था और अपने परम्परागत विचारों के विरुद्ध कुछ भी सुनने को तैयार नहीं होते. और अगर उन्होंने हमारी बात को हमारा सम्मान करने के चलते सुन लेने तक सहन कर लिया, तो भी उसे मानने के लिये तो कदापि मन नहीं बना पाते.
ऐसे में हमारे सामने लोगों के बीच अपनी बात कहने के परिणाम के तौर पर दो ही विकल्प हैं. पहला कि हम उनको अपने विरुद्ध पूर्वाग्रहग्रस्त कर लें और उनको अपना बहिष्कार करने दें और जो भी मुट्ठी भर लोग साथ चल पड़ें, उनसे ही संतुष्ट हो लें. और दूसरा कि हम मिथक साहित्य के मूल्यांकन का स्वस्थ और तर्कसम्मत प्रयास करें और सामान्य वैचारिक क्षमता वाले अधिकतर लोगों को सोचने-विचारने के लिये थोड़ी बेहतर ज़मीन मुहैया करने का प्रयास करें. पहले विकल्प में हम अपनी अवस्थिति पर दृढ़तापूर्वक बने रह सकने की हर तरह से सुरक्षा पा लेते हैं. परन्तु दूसरे विकल्प में हमें अपने सामने वाले को अपनी बात समझाने की आतुरता की अपेक्षा उसे सुनने और उसकी अवस्थिति को पूरी तरह समझने के लिये और भी धैर्य से काम लेना होता है. अगर हम आतुरता के शिकार हो कर सामने वाले को परास्त करने की मंशा से ललचा कर केवल शास्त्रार्थ करने के चक्कर में फँस गये, तो बिना अधिक देर किये बहुत जल्दी ही दोनों ही पक्ष केवल अपनी-अपनी बात कहते दिखाई देते रहेंगे, उनमें से सुनने वाला कोई भी नहीं होगा. अक्सर हम सब को ऐसी विडम्बना ख़ुद भी झेलनी पड़ती है और दूसरे साथियों के संस्मरणों में भी ऐसी घटनाओं के विवरण मिल जाया करते हैं.
वाल्मीकि कृत रामायण और व्यास कृत महाभारत संस्कृत साहित्य के प्रथम दो महाकाव्य हैं. इन महाकाव्यों के महानायक राम और कृष्ण का व्यक्तित्व भी हमारे मिथक साहित्य का हिस्सा है. सामान्यतया अधिकतर परम्परावादी लोग इन दोनों को विष्णु के अवतार ही मानते हैं और पूरी आस्था के साथ उनकी पूजा भी करते हैं. बुद्धिजीवियों का एक छोटा-सा हिस्सा ही उनको ईश्वर के बजाय मनुष्य के तौर पर स्वीकार करता है और उनके बारे में एक हद तक तर्क करने और सुनने को तत्पर हो पाता है. परन्तु ऐसे लोगों में भी अधिकतर लोगों को केवल सुनी-सुनाई कहानियों तक का ही बोध होता है, मूल शास्त्र के बारे में अधिकृत तौर पर जानने वाले कम ही मिलते हैं.
साथ ही यह पक्ष भी विचारणीय है कि कलमकार स्वयं को ही अपनी रचना में व्यक्त करता है. जीवन की त्रासदी को झेलने के बाद ही व्यक्ति परिपक्व हो पाता है. रचनाकार के व्यक्तित्व का भी विकास प्रतिकूल परिवेश ही करता है. अपनी रचना में रचनाकार के जीवन के पुनर्सृजन की यह अभिव्यक्ति अतिशय सूक्ष्म और अमूर्त रूप से विद्यमान होती है. यही कारण है कि सामान्य पाठक इसे देख ही नहीं पाता. वाल्मीकि ने ख़ुद को राम-कथा में उकेरा है और कृष्ण द्वैपायन व्यास ने अपने महानायक कृष्ण में स्वयं अपने जन्म, जीवन और परिवेश की कटुता से उद्भूत उस प्रतिक्रिया को चित्रित किया है, जो उनको जीवन भर कचोटती रही थी. अन्य अगणित लब्ध-प्रतिष्ठ साहित्यकारों की ही तरह समाज में स्थापित जन-विरोधी शक्तियों की सत्ता के विरुद्ध जो प्रतिवाद वे स्वयं नहीं कर सके, उसे उन्होंने अपनी कृति में अपने महानायकों के माध्यम से सहज ही करवा लिया और उनके इस रचना-संसार ने उनके क्षोभ को संतुष्ट तो किया ही, साथ ही मानवता के गरिमाशाली उदात्त भावों के चित्रण द्वारा उनके पाठकों और श्रोताओं को प्रेरित भी किया.
व्यक्तित्व की उदात्तता के अनुगमन का लोकमानस में एक ही आधार है कि वह अनुकरणीय है अथवा नहीं. अनुकरण के लिये लोक मर्यादाओं और वर्जनाओं के रूप में अपने मूल्यों और मान्यताओं की सांस्कृतिक समझ का सहारा लेता है. वर्जना वे मूल्य हैं, जो समाज को स्वीकार्य नहीं हैं और मर्यादा वे मान्यताएँ हैं, जो परम्परा का अनुगमन करते हुए लोक-रूढ़ हो कर अक्सर जड़ हो जाया करती हैं. फिर भी समाज उनको पीढ़ी-दर-पीढ़ी ढोता चला जाता है. निःसत्व हो चुकी इन रूढ़ मान्यताओं का निर्वाह लोक द्वारा अक्सर स्वेच्छा से किया जाता है, कभी-कभी व्यक्ति स्वयं अपनी अन्तःचेतना के अनुरूप एक नयी पहल करने का सफल-विफल प्रयास करता है. परन्तु अधिकतर इस पहल के स्थान पर उसके विपरीत मात्र लोकभय इनके अनुगमन का प्रमुख चालक कारक होता है.
लोक स्थापित मर्यादाओं के सर्वमान्य औचित्य के आडम्बर से भयाक्रान्त रहता है. लोक पर व्यापक प्रभाव डालने वाला यह लोकभय ही अपने अमूर्त होने के चलते व्यक्ति को सदा-सर्वदा उसकी अपनी सीमाओं की अनुभूति कराता रहता है. इस लोकभय की अनुभूति की तीक्ष्णता ही व्यक्ति को वर्जनाओं से दूरी बनाये रखने और मर्यादाओं के अन्धानुकरण के लिये विवश करती रहती है. इसी के चलते उसका विवेक उसके साहस का साथ नहीं दे पाता. अपनी इसी विवशता के कारण ही लोक उन तमाम तरह की मर्यादाओं की परम्परा का भी अनुगमन करता रहता है, जिनका युग बीत चुका.
लोक की और लोकनायक की रचना करने वाले साहित्यकार की दृष्टि, बोध तथा अभिव्यक्ति के स्तर में भी अतिशय अन्तर स्वाभाविक है. लोक अपने आराध्य के विषय में अलग-अलग काल में रचे गये समग्र साहित्य को भी सत्य ही मानता है. वह कदापि नहीं समझता कि जीवन और साहित्य में यथार्थ और उसके पुनर्सृजन का मूलभूत अन्तर है. वह साहित्य में यथार्थ के अलंकरण की भूमिका और अलंकृत साहित्य के सौन्दर्य को न तो जानता है और न ही मानता है. ऐसे में वैज्ञानिक दृष्टि से मिथक साहित्य का विवेचन और उसके पात्रों के व्यक्तित्व का मूल्यांकन और भी दुरूह कार्य हो जाता है. इसीलिये हमारे लिये यह कड़ी चुनौती है. फिर भी हमारे अनेक समर्थ कलमकार पुरखों ने अपनी-अपनी कलम की धार को इस चुनौती पर आजमाया भी है.
दृष्टि की इन सभी सीमाओं से परे दोनों महाकाव्यों के महानायकों के व्यक्तित्व कालजयी रहे हैं. दोनों को ही लोकप्रियता और आस्था हासिल है. परन्तु फिर भी कृष्ण का व्यक्तित्व सहजता और कुटिलता के संतुलित समन्वय के चलते सापेक्षतः अधिक लोकप्रिय रहा है तथा उनका कृतित्व अपनी वैचारिक निपुणता के चलते अधिकतर लोगों के लिये सदा-सर्वदा आकर्षक रहा है. वह राम की तरह मर्यादाओं और वर्जनाओं की सीमाओं में जकड़ा नहीं है. इन सीमाओं का अतिक्रमण राम भी आवश्यकता के अनुरूप करते ही रहे. परन्तु फिर भी उनकी ‘मर्यादा-पुरुषोत्तम’ की छवि ही लोक-मानस में रची-बसी रही. वह योद्धा तो हैं, परन्तु उनके पास लोक को देने के लिये ‘गीता का सन्देश’ नहीं है. कृष्ण को बन्धन असह्य हैं. विद्रोह ही उनके व्यक्तित्व का मूल-स्वर है. चुनौती स्वीकारना और चुनौती देना, परम्पराएँ ध्वस्त करना और पाखण्ड का उपहास करना, दम्भ को ललकारना और स्नेह की सहजता में डूब जाना, लक्ष्य-प्राप्ति के लिये हर सम्भव पथ का चयन करना और किसी भी कीमत पर लक्ष्य तक पहुँचने के लिये बज़िद होना ही उनके व्यक्तित्व की लोकप्रियता के पीछे के कारक हैं.
धारा के प्रवाह का अनुगमन करते चुपचाप शव की तरह बहे चले जाना उनको अपने लिये हल्का और अपमानजनक लगता है. धारा के विपरीत तैरने की चुनौती स्वीकारने और उस चुनौती को संघर्ष एवं सृजन द्वारा रूपायित करने में ही आजीवन अपनी कूबत वह आजमाते रहे. किसी भी तरह की लोक-रूढ़ हो चुकी परम्परा की मर्यादा के आभा-मण्डल के बोझ को सिर झुका कर स्वीकारना उनके तेवर के लिये असह्य है. इसी तरह तरह-तरह की वर्जनाओं का उल्लंघन उन्हें प्रिय है. बन्धन का बोध ही उनको विद्रोह के लिये ललकारता है. उनका विद्रोह ही उनको तृप्ति देता है.
अक्सर अनिच्छापूर्वक ही सही मुँह जाब कर और आँख-कान बन्द करके मर्यादाओं का पालन करने वाला लोक बार-बार कृष्ण के व्यक्तित्व में उन सभी मर्यादाओं के औचित्य को परास्त होते देखता है. कृष्ण किसी भी कीमत पर किसी अन्धानुकरण से बंधे रहना सहन नहीं करते. कदम-कदम पर मर्यादाओं को तोड़ना ही उनको स्वीकार्य है. मर्यादाओं के निर्वाह की वह रंच-मात्र परवाह नहीं कर पाते. जो कुछ भी उनको समझ में आ जाता है, उसे वह पूरी ऊर्जा और तल्लीनता के साथ किसी अनावश्यक ‘किन्तु-परन्तु’ का विचार किये बिना ही एक झटके में कर गुज़रते हैं. उनके सारे के सारे वक्तव्य और कृतित्व धारा के विपरीत होने के चलते ही लोक को आकर्षित करते हैं.
प्रतिकूल परिस्थिति में ही सशक्त व्यक्तित्व का विकास होता है. राम और कृष्ण के व्यक्तित्व के बीच अन्तर के पीछे भी यही कारण है. जहाँ राम अनुकूल परिवेश में विकसित होते हैं, वहीं कृष्ण परिवेश की इसी प्रतिकूलता की उत्पत्ति हैं. राम को जीवन भर सम्मान सहज ही उपलब्ध रहा. परन्तु कृष्ण को कदम-कदम पर उपहास और कटाक्ष झेलना पड़ा. राम को अपने शत्रुओं को खोजना पड़ा. कृष्ण के शत्रु उनके जन्म के पूर्व से ही उनके प्राण के पीछे पड़े थे. राम स्थापित समाज की गरिमा के प्रतिनिधि थे और कृष्ण को स्वयं को स्थापित करने के लिये कदम-कदम पर हर तरह के कल-बल-छल का सहारा लेना पड़ा था. राम कुलीन थे तो कृष्ण जन-जीवन की उपज.
कृष्ण के जन्म से ही कलमकार को चमत्कारों के सहारे उनको दिव्य दीप्ति से अलंकृत करना पड़ा. राम को स्थापित होने के लिये ऐसे किसी चमत्कार की आवश्यकता ही नहीं थी. इसके विपरीत उनका सामान्य-जन का सा आचरण करना उनकी अतिमानवीय क्षमता को मानवीय रूप देने के लिये अनिवार्य था. कृष्ण के विरोधी उनकी अपेक्षा अधिक शक्तिशाली थे. उन सब से निपटने में उनको अक्सर अपनी चतुराई और अपने उग्र रूप — दोनों का सहारा लेते रहना पड़ा. फिर भी टक्कर में प्रतिभट को परास्त कर लेने के बाद पुनः जीवन के सामान्य होते ही कृष्ण सहज हो सुदर्शन की विनाशकारिणी भयंकरता की जगह वंशी की मीठी तान में ख़ुद भी डूब लेते, साथ ही दूसरों को भी संगीत और नृत्य की मादकता में मन्त्रमुग्ध कर झूम उठने के लिये बाध्य कर देते. सुदर्शन चक्र और वंशी दोनों की जुगलबन्दी कृष्ण की लोकप्रियता की आधार-शिला है. राम के पास कृष्ण जैसी कोई सम्मोहनकारिणी क्षमता नहीं है. उनको सदा ही अपने को गम्भीरता के आवरण में समेटे रहने की विवशता को झेलना पड़ता है. राम को अपने मित्रों से सहायता मिलती रही. परन्तु कृष्ण के मित्र और परिजन उनके लिये स्नेह तथा क्षोभ की वजह रहे. शास्त्र जहाँ सूर्यवंशी राम को केवल बारह कलाएँ प्रदान करता है, वहीं चन्द्रवंशी कृष्ण के व्यक्तित्व में सभी सोलह कलाओं को निहित कर देता है.
पुराण और स्मृति के रचनाकार समाज में व्याप्त सत्ता और विद्या के दो परस्पर विरोधी और भिन्न क्षमताओं के केन्द्रों — क्षत्रिय तथा ब्राह्मण के बीच सतत जारी द्वंद्व में स्थापित शक्ति-सन्तुलन की यथास्थिति को बदल देने अथवा बनाये रखने के लिये बौद्धिक सामग्री प्रस्तुत कर रहे थे. ब्राह्मण परम्परा से सम्मानित थे. परन्तु सत्ता के केन्द्र में क्षत्रिय थे. सम्मान की भूख ने वेदान्त के रूप में ‘ब्रह्म-विद्या’ की कल्पना को प्रचारित किया और स्मृतिकार परास्त हो गये. राम क्षत्रिय थे, तो रावण ब्राह्मण. राम की प्रतिष्ठा को और भी गरिमा-मण्डित करने के लिये परशुराम का उपहास कवि के लिये रुचिकर रहा. कृष्ण के सामने दूसरी ही समस्या थी. कृष्ण को स्वयं को कुलीन राजाओं के उस क्षत्रिय समाज में स्थापित करना पड़ा, जो सत्ताधारी था और जिसका दम्भ सामान्य कुल के कृष्ण को अपने बीच स्थापित होने देने में बाधक था.
परन्तु वेदान्त के रूप में जो दर्शन सामने आया, उसने व्यास द्वारा गीता गढ़ कर कृष्ण को स्थापित कर दिया. गीता में वेदान्त ने ख़ुद को खड़ा करने के लिये सांख्य दर्शन से सहारे का आधार तो लिया. परन्तु वेदान्त का ‘ईश्वर’ सांख्य के ‘पुरुष’ की तरह ‘त्रिगुणात्मिका प्रकृति’ के सृजन का केवल साक्षी और द्रष्टा नहीं रह सका. उसने जगत के समस्त कार्य-व्यापारों का दायित्व अपने ऊपर लेकर उनके कर्ता के रूप में स्वयं को व्यक्त किया.
तत्पश्चात उसने वह सम्मान प्राप्त करने में सफलता हासिल की कि ब्राह्मण ऋषि क्षत्रिय राजाओं से ‘ब्रह्म-विद्या’ सीखने के लिये उनका शिष्यत्व स्वीकारने तक जा पहुँचे और यादव कृष्ण महाभारत के विजेता के रूप में उभर कर ब्राह्मण के उपासना-गृह तक में ‘ठाकुर जी’ बन कर स्थापित हो सके. यह द्वंद्व वशिष्ठ और विश्वामित्र से चल कर शाक्य गण-राज्य में जन्म लेने वाले गौतम बुद्ध (563 ईस्वी पूर्व — 483 ईस्वी पूर्व) के यज्ञविरोधी विचारों और उनके समकालीन समाज में परम्परा से स्थापित रहे यज्ञ करने वाले ब्राह्मणों के द्वंद्व से होता हुआ अन्तिम बौद्ध सम्राट बृहद्रथ की उनके ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग (185 — 149 ई॰पू॰) के हाथों हत्या और शुंग वंश की स्थापना तक इतिहास में चलता चला आया.
हम अपने इन दोनों महाकाव्यों के महानायकों के व्यक्तित्व और कृतित्व के विषय में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र और ज्ञान की प्रत्येक विधा में और भी गहराई से विश्लेषण कर सकते हैं. परन्तु हज़ारों वर्षों तक समाज को व्यवस्था देने वाले सामन्तवाद का युग कब का बीत चुका है. श्रम और पूँजी के अन्तर्विरोध और आर-पार के द्वंद्व के वर्तमान युग में हम अपने मिथक साहित्य और उसके पात्रों से अपने लिये पाथेय के रूप में केवल मानवीय भावों की उदात्तता और गरिमा की प्रेरणा ही ले पा सकते हैं. अतएव अभी कृष्ण के जन्म-दिवस पर उनके प्रेरक व्यक्तित्व से प्रेरणा लेने वाले सभी परम्परावादियों और विद्रोहियों से अपना-अपना पक्ष विनम्रता से प्रस्तुत करने और सामने वाले के विचारों को सुनने का धैर्य बनाये रखने का अनुरोध कर रहा हूँ. तभी ‘वादे-वादे जायते तत्त्वबोधः’ का कथन लागू होगा. अन्यथा इसके विपरीत करने पर ‘वादे-वादे जायते शीर्ष-भंगः’ तक जा पहुँचने में देर नहीं लगेगी.
ढेर सारे प्यार के साथ — आपका गिरिजेश (18.8.14.)