जारी है, दौड़ जारी है।
अन्धी, गलाकाटू दौड़!
पैसा पैदा करने की दौड़!
पैसा पैदा करने की दौड़!
और भागता जा रहा है हर आदमी बेतहाशा इस दौड़ में।
एक दूसरे को लंगी मारते, धकियाते, आगे बढ़ने को बेताब,
इस दौड़ में कौन कहाँ पहुँचा?
किसने कुलाचें भरीं? कौन डगमगाया?
किसने कितना कमाया? कितना बनाया? कितना छिपाया?
झूठ, फ़रेब, धोखा! मक्कारी, गददारी, दगा!
छल-कपट, ठगी-धूर्तता, चोरी-चकारी, शब्दों के जाल, बातों के तीर,
शक्कर में लिपटी ज़हर की मीठी गोली, विश्वास की हत्या!
ये ही हैं भरोसे को दरकाती हमारी सभ्यता के लक्षण।
वैशिवक है यह संस्कृति ! बहुत भारी-भरकम है इसका ताम-झाम।
दुनिया ही नहीं, चाँद और मंगल भी आ चुके हैं
आदमी की मुटठी में,
मगर आदमी है कि बौना होता जा रहा है।
और उसे बौना बना रही है यह भूख
पैसे की पैशाचिक हविश!
बिलबिला रहा है मनु का बेटा
मगर जीभ लपलपा रहा है लोभ का दानव।
उफ़! कानों के पर्दे फटे जा रहे हैं।
गूँज रहा है चारों ओर एक ही शोर...
पैसा! पैसा! पैसा!
— गिरिजेश
(डा. आर. बी. त्रिपाठी की कविता के सहारे)
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