मित्र Adnan Kafeel, मैं आपसे भिन्न मत रखता हूँ.
क्षमा चाहूँगा.
मेरी मान्यता है कि प्रेम ही जीवन का मूल स्वर है.
वर्गीय समाज में ऐसा प्रतीत होने लगता है कि जीवन का मूल स्वर वेदना है.
प्रत्येक वर्ग-युद्ध हम पर थोपा जाता है.
पहले शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध हम प्रतिवाद और प्रतिरोध करते हैं.
उनके विफल हो जाने पर हम प्रतिशोध तक की सोचने के लिये विवश हो जाते हैं.
परन्तु हमारा प्रतिशोध भी सृजन की विकलता का परिणाम होता है.
बाध्य होकर हमारे हाथों होने वाले ध्वन्स का हमें अफ़सोस भी होता है.
और उसके पीछे और भी बेहतर गढ़ देने की हमारी ललक होती है.
प्रेम शान्तिकाल में तो सहज ही होता है.
परन्तु वह युद्धकाल में और भी उत्कटता के साथ हमारी हर कृति में साकार होता रहता है.
हम प्रेम करते हैं.
इसीलिये प्रेम के परवान चढ़ने में बाधक प्रत्येक अवरोध से घृणा करते हैं.
और उसे मटियामेट कर देने के लिये हमारी अंगुलियाँ ऐंठती रहती हैं.
हम घृणा भी तभी कर पाते हैं, जब हम प्रेम करते हैं.
सहज प्रेम ही हमारी जिजीविषा का मूल लक्षण है.
जो प्रेम करता है, वही क्रान्ति कर सकता है.
जो प्रेम नहीं कर सकता, वह क्रान्ति भी नहीं कर सकता है.
एक ज़रूरी कविता. हम जानते हैं आप इसे पढ़ चुके हैं लेकिन एक दफ़ा और पढ़िए. इस बार कुछ सुधार के साथ पोस्ट कर रहा हूँ. आपके विचार आमंत्रित हैं.
_______मैं अब नहीं लिखूंगा प्रेम______
मैं अब नहीं लिखूंगा प्रेम
मैं अब नहीं भरूँगा
कल्पना की ऊँची उड़ाने.
नहीं लिखूंगा कि चाँद
तेरे मुखड़े की शुआओं* से दमकता है.
आकाश तेरी बाहों का फैलाओ भर है.
रात तेरी ज़ुल्फों की कालिख सी है.
नहीं लिखूंगा तेरी गर्दन को सुराही-सा
तेरी चाल को नागन सा
तेरी कमर के लोच को बेल सा.
मैं बजाय इसके
लिखूंगा भूख,प्यास, आंसू, पसीना.
मैं लिखूंगा आग, लोहा, बेंत.
मैं लिखूंगा अफ़्सुर्दा** चेहरे , छिली रूहें, छितराई आँखें
मैं लिखूंगा किसी औरत की चींख
मैं लिखूंगा बारूद, गोले
जंग-जंग-जंग.
मैं लिखूंगा बूट
बूट तले पिसती हथेलियाँ
नाली में गिरी जुम्मन मियाँ की टोपी
नुक्कड़ पे धुल में लसराई***
जोगी बाबा की रुद्राक्ष की माला
सुघरी की जली लाश
मैं लिखूंगा भाले, तलवार
अत्याचार, अत्याचार, अत्याचार.
मैं लिखूंगा घुटती साँसे, शमशान सी शान्ति
मैं लिखूंगा पत्थर पे बैठे एक कवि की चुप्पी
उसके आँख के नीचे का काला घेरा
हाँ साथी ! मैं लिखूंगा ये सब
अब बस कि प्रेम नहीं लिख सकूँगा
हाँ अब प्रेम नहीं लिख सकूँगा.....
~अदनान कफ़ील 'दरवेश'
*शुआओं: किरने
**अफ़्सुर्दा चेहरे : Pale faces
***लसराई : लिथड़ी —
"Aurat" by Kaifi Azmi
Ashok Kumar Pandey - "उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे।
प्रेम लिखो और उसे अपने जंग का सबसे मज़बूत हथियार बना लो साथी।"
Adnan Kafeel - "सर इस कठिन दौर में प्रेम लिखना अत्यंत कठिन जान पड़ता है. हमें वेदना लिखनी है ताकि भविष्य में कोई कवि प्रेम और सिर्फ प्रेम पर लिख सके. क्यूंकि कविता का बीज प्रेम से ही प्रस्फुटित हुआ है. हमें प्रेम की सम्भावना को आगे जीवित रखने के लिए आज वेदना लिखना है. बस इतना ही कहूँगा. वैसे भी आप बड़ों के सामने मैं क्या बोलूं."
Girijesh Tiwari - मैं आपको पूरा समझ रहा हूँ, साथी !
आज कलेजे पर पत्थर रख कर जूझने का दौर है.
मगर हम बार-बार हार कर भी रचना करेंगे, ताकि हमारे बच्चे उन रचनाओं में हमारी तड़प को देख सकें और अपने सिर गर्व से ऊँचा कर के चल सकें.
आदिकवि महर्षि वाल्मीकि के मुख से यह पहली कविता भी प्रेम में अवरोध के विरुद्ध अभिशाप बन कर फूटी थी :
क्षमा चाहूँगा.
मेरी मान्यता है कि प्रेम ही जीवन का मूल स्वर है.
वर्गीय समाज में ऐसा प्रतीत होने लगता है कि जीवन का मूल स्वर वेदना है.
प्रत्येक वर्ग-युद्ध हम पर थोपा जाता है.
पहले शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध हम प्रतिवाद और प्रतिरोध करते हैं.
उनके विफल हो जाने पर हम प्रतिशोध तक की सोचने के लिये विवश हो जाते हैं.
परन्तु हमारा प्रतिशोध भी सृजन की विकलता का परिणाम होता है.
बाध्य होकर हमारे हाथों होने वाले ध्वन्स का हमें अफ़सोस भी होता है.
और उसके पीछे और भी बेहतर गढ़ देने की हमारी ललक होती है.
प्रेम शान्तिकाल में तो सहज ही होता है.
परन्तु वह युद्धकाल में और भी उत्कटता के साथ हमारी हर कृति में साकार होता रहता है.
हम प्रेम करते हैं.
इसीलिये प्रेम के परवान चढ़ने में बाधक प्रत्येक अवरोध से घृणा करते हैं.
और उसे मटियामेट कर देने के लिये हमारी अंगुलियाँ ऐंठती रहती हैं.
हम घृणा भी तभी कर पाते हैं, जब हम प्रेम करते हैं.
सहज प्रेम ही हमारी जिजीविषा का मूल लक्षण है.
जो प्रेम करता है, वही क्रान्ति कर सकता है.
जो प्रेम नहीं कर सकता, वह क्रान्ति भी नहीं कर सकता है.
एक ज़रूरी कविता. हम जानते हैं आप इसे पढ़ चुके हैं लेकिन एक दफ़ा और पढ़िए. इस बार कुछ सुधार के साथ पोस्ट कर रहा हूँ. आपके विचार आमंत्रित हैं.
_______मैं अब नहीं लिखूंगा प्रेम______
मैं अब नहीं लिखूंगा प्रेम
मैं अब नहीं भरूँगा
कल्पना की ऊँची उड़ाने.
नहीं लिखूंगा कि चाँद
तेरे मुखड़े की शुआओं* से दमकता है.
आकाश तेरी बाहों का फैलाओ भर है.
रात तेरी ज़ुल्फों की कालिख सी है.
नहीं लिखूंगा तेरी गर्दन को सुराही-सा
तेरी चाल को नागन सा
तेरी कमर के लोच को बेल सा.
मैं बजाय इसके
लिखूंगा भूख,प्यास, आंसू, पसीना.
मैं लिखूंगा आग, लोहा, बेंत.
मैं लिखूंगा अफ़्सुर्दा** चेहरे , छिली रूहें, छितराई आँखें
मैं लिखूंगा किसी औरत की चींख
मैं लिखूंगा बारूद, गोले
जंग-जंग-जंग.
मैं लिखूंगा बूट
बूट तले पिसती हथेलियाँ
नाली में गिरी जुम्मन मियाँ की टोपी
नुक्कड़ पे धुल में लसराई***
जोगी बाबा की रुद्राक्ष की माला
सुघरी की जली लाश
मैं लिखूंगा भाले, तलवार
अत्याचार, अत्याचार, अत्याचार.
मैं लिखूंगा घुटती साँसे, शमशान सी शान्ति
मैं लिखूंगा पत्थर पे बैठे एक कवि की चुप्पी
उसके आँख के नीचे का काला घेरा
अब बस कि प्रेम नहीं लिख सकूँगा
हाँ अब प्रेम नहीं लिख सकूँगा.....
~अदनान कफ़ील 'दरवेश'
*शुआओं: किरने
**अफ़्सुर्दा चेहरे : Pale faces
***लसराई : लिथड़ी —
Ashok Kumar Pandey - "उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे।
प्रेम लिखो और उसे अपने जंग का सबसे मज़बूत हथियार बना लो साथी।"
"अपना पैगाम मोहब्बत है जहाँ तक पहुँचे...."
Adnan Kafeel - "सर इस कठिन दौर में प्रेम लिखना अत्यंत कठिन जान पड़ता है. हमें वेदना लिखनी है ताकि भविष्य में कोई कवि प्रेम और सिर्फ प्रेम पर लिख सके. क्यूंकि कविता का बीज प्रेम से ही प्रस्फुटित हुआ है. हमें प्रेम की सम्भावना को आगे जीवित रखने के लिए आज वेदना लिखना है. बस इतना ही कहूँगा. वैसे भी आप बड़ों के सामने मैं क्या बोलूं."
Girijesh Tiwari - मैं आपको पूरा समझ रहा हूँ, साथी !
आज कलेजे पर पत्थर रख कर जूझने का दौर है.
मगर हम बार-बार हार कर भी रचना करेंगे, ताकि हमारे बच्चे उन रचनाओं में हमारी तड़प को देख सकें और अपने सिर गर्व से ऊँचा कर के चल सकें.
आदिकवि महर्षि वाल्मीकि के मुख से यह पहली कविता भी प्रेम में अवरोध के विरुद्ध अभिशाप बन कर फूटी थी :
*मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम् ।।
[भावार्थ : हे निषाद, तुमने काममोहित मैथुनरत क्रौंच-युग्म से एक का वध कर डाला, जाओ तुम अनंत समय तक प्रतिष्ठा-सौख्य आदि से क्षीण रहोगे!]
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