कलम के धनी साथी Arun Chavai को जन्मदिन पर सादर समर्पित
बिन्दु - बिना किसी लम्बाई-मोटाई-गहराई या ऊँचाई के... फिर भी अस्तित्वमान...
विमाहीन त्रिविमीय भौतिक सत्य... बिन्दु के बुदबुद से उभरा एक आकार... अ-क्षर...
और फिर उस विमाहीन बिन्दु ने रचा सतरंगा संसार... बदल गया उसका बाना... बोला वर्ण हूँ मैं...
प्रकृति की कृति सुर-ताल-लय बद्ध... गूँजा संगीत का आलाप...
साथ थी संगति को छूम-छननन - छूम-छननन... गीत के बोल के साथ नृत्य की गति...
बिन्दु का विस्तार थी कविता... कोमल कलेवर में समेटे पुनर्सृजन के विलक्षण पलों की पीड़ा...
आगे था मानवता की मुक्ति का लक्ष्य... शताब्दियाँ-सहस्त्राब्दियाँ गुज़रीं पलक झपकते...
एक के बाद दूसरी छलाँग... माँ का वात्सल्य पुरुष के दम्भ से परास्त...
गुलामी की त्रासदी... आज़ादी का ऐलान... आगाज़ जंग-ए-आज़ादी का...
हर हार के बाद एक जीत... हर जीत के पीछे एक हार...
कभी मोर्चा हारा... तो कभी जंग जीती...
दासता का रूपान्तरण... भू-दासता का आविर्भाव... और फिर पूँजी की चाकरी...
आया समाजवाद... सर्वहारा ने जीता सम्मान... सपने हुए रूपायित... धरती पर गढ़ा स्वर्ग...
पूँजी के पुजारी एक साथ... कुटिल साज़िश... शिकार गर्वीला श्रमिक...
एक और प्रतिगति... घोषणा इतिहास के अन्त की...
जागती आँखों में मुक्ति के सपने... श्रम-सतत श्रम... रचना और संघर्ष... सृजन और ध्वंस...
तब थे जुझारू पुरखे... अब हैं हम... है चलते जाना आगे-और आगे...
शस्त्र सृजन के... शास्त्र विज्ञान का... शक्ति एकजुटता की...
वार पर वार – आर-पार... आख़िरी वार शानदार... विजय या वीरगति...
इन्कलाब ज़िन्दाबाद ! साम्राज्यवाद मुर्दाबाद !
ढेर सारे प्यार के साथ — गिरिजेश (31.3.15.)
नहीं था कुछ भी जब... तब था केवल शून्य...
दिक्-काल-अवकाश से हीन... अनन्त आकाश के विवर में... तैरता केवल एक बिन्दु... बिन्दु - बिना किसी लम्बाई-मोटाई-गहराई या ऊँचाई के... फिर भी अस्तित्वमान...
विमाहीन त्रिविमीय भौतिक सत्य... बिन्दु के बुदबुद से उभरा एक आकार... अ-क्षर...
और फिर उस विमाहीन बिन्दु ने रचा सतरंगा संसार... बदल गया उसका बाना... बोला वर्ण हूँ मैं...
एक से दूसरे वर्ण को गूँथता प्रवाह... शनैः-शनैः बढ़ चला आगे... बनती चली गयी वर्णमाला...
अचानक गूँज गया डिम-डिम... अरे यह क्या ! डमरू... यह तो है मृदंग-अंग...
कमल-पत्र पर पटापट पड़ती वर्षा... तड़तड़ बूँदों का शोर... गढ़ा सूत्र पाणिनि ने...
प्रकृति की कृति सुर-ताल-लय बद्ध... गूँजा संगीत का आलाप...
साथ थी संगति को छूम-छननन - छूम-छननन... गीत के बोल के साथ नृत्य की गति...
बिन्दु का विस्तार थी कविता... कोमल कलेवर में समेटे पुनर्सृजन के विलक्षण पलों की पीड़ा...
आगे था मानवता की मुक्ति का लक्ष्य... शताब्दियाँ-सहस्त्राब्दियाँ गुज़रीं पलक झपकते...
एक के बाद दूसरी छलाँग... माँ का वात्सल्य पुरुष के दम्भ से परास्त...
गुलामी की त्रासदी... आज़ादी का ऐलान... आगाज़ जंग-ए-आज़ादी का...
हर हार के बाद एक जीत... हर जीत के पीछे एक हार...
कभी मोर्चा हारा... तो कभी जंग जीती...
दासता का रूपान्तरण... भू-दासता का आविर्भाव... और फिर पूँजी की चाकरी...
सब कुछ हड़प जाने को आतुर पूँजी...
एक और हुंकार... इन्कलाब ज़िन्दाबाद...
आया समाजवाद... सर्वहारा ने जीता सम्मान... सपने हुए रूपायित... धरती पर गढ़ा स्वर्ग...
पूँजी के पुजारी एक साथ... कुटिल साज़िश... शिकार गर्वीला श्रमिक...
एक और प्रतिगति... घोषणा इतिहास के अन्त की...
वैश्विक गाँव में लोकतन्त्र का नाटक...
आखेट अन्नदाता का...
आखेट अन्नदाता का...
ऑकुपाई आन्दोलन... अरब बसन्त... शहर-दर-शहर सड़क गुलज़ार... लगातार ललकार...
अगला जनज्वार... आख़िरी जंग दौलत के ख़िलाफ़...
जागती आँखों में मुक्ति के सपने... श्रम-सतत श्रम... रचना और संघर्ष... सृजन और ध्वंस...
तब थे जुझारू पुरखे... अब हैं हम... है चलते जाना आगे-और आगे...
शस्त्र सृजन के... शास्त्र विज्ञान का... शक्ति एकजुटता की...
वार पर वार – आर-पार... आख़िरी वार शानदार... विजय या वीरगति...
इन्कलाब ज़िन्दाबाद ! साम्राज्यवाद मुर्दाबाद !
ढेर सारे प्यार के साथ — गिरिजेश (31.3.15.)
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