Tuesday, 31 March 2015

___ ‘बर्थ-स्कार’ ___ — अवधेश ___


शिक्षा-रोज़गार-विज्ञापन...
चलचित्र-नाट्य-कला-प्रतिस्पर्धा...
साधन-प्रसाधन-संचार-यातायात...
जाति-धर्म हिन्दू-मुसलमान...
गाँव-शहर देश-विदेश...
अमीर-ग़रीब...
इन सब में कहाँ हूँ मैं ?

मुझे बताओ, बताओ मुझे...
मैं हैरान और परेशान हूँ...
यह सब देख कर और सुन कर
और जान कर और जी कर
कि यह सब कुछ
हमारे रोटी-कपड़ा-मकान के जुगाड़ में
बनवा दिया गया...

मगर क्यों आज तक भी...
रोटी-कपड़ा-मकान ही...
मयस्सर नहीं हो पाया...

माँ की गोद में जन्म लेता है इन्सान...
रोटी की तलाश में भटकता है...
और तोड़ देता है दम...
किसी वीरान फुटपाथ पर...

ख़ूब समझता हूँ मैं...
यह व्यवस्था पूरी की पूरी...
सिर्फ़ इसी लिये बनायी गयी...

कि जो भी हैं हमारे अन्दर...
अभी भी बच गयी...
आदि-मानव से मिली...
मौलिकताएँ, बर्थ-स्कार...
उन सब को कर देना है ख़त्म...
और झोंक देना है...

हमें बेबस कर व्यवस्था की सेवा में...
मगर फिर भी एक अगर...
और एक मगर अभी भी है...
क्योंकि अगर में मगर है...
और मगर में अगर है...
वह क्या है कि...
अपने लोगों का ही...
अपने ही लोगों से...
मर्डर करवाना है...

यही वह मगर है जो अगर में है...
इन्सानियत के लिये...
लिखने वाले, बोलने वाले...
और तो और...
मर-मिट जाने की ज़िद पालने वाले...
ज़िन्दा लोग हैं...
जब तक तब तक...
क्या है मुमकिन यह... !!!

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