Wednesday 5 August 2015

____ गुनाह ____




हमको तो ज़माना अभी ललकार रहा है,
बढ़-बढ़ के डींग मारता, धिक्कार रहा है.

करता ही चला जा रहा है घालमेल भी,
मुश्किल है ज़माने के साथ ताल-मेल भी.

बच्चों को सच सिखाना बुरा है गुनाह है,
इन्साफ़ की पुकार लगाना गुनाह है.

झपसट बहुत भले यहाँ ख़िदमत गुनाह है,
दुनिया को बदलने का अहद भी गुनाह है.

देते नहीं दगा कभी, करते नहीं फ़रेब,
देना है बहुत लोगों को, ख़ाली है अपनी ज़ेब.

करते रहे गुनाह सभी बार-बार हम,
चलते ही चले जा रहे, लेते भी नहीं दम.

हम भी तो ज़माने के भी काबिल कहाँ रहे,
आसान काम अपने हैं, मुश्किल कहाँ रहे !
 ─ गिरिजेश (21.7.15.)

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