बात तब की है जब जगत अपनी सहज गति से सर्वत्र प्रवाहमान था. जीवन निरन्तर जन्म लेता, सतत गतिमान रहता तथा अन्ततः काल के गाल में समा तिरोहित होता चला जा रहा था. सम्पूर्ण समाज परम्परागत पद्धति से चलता चला जा रहा था. समस्त जन-गण को अपनी-अपनी सीमाओं और संसाधनों के अनुरूप कम-ओ-बेश सुख और दुःख दोनों ही कभी न कभी मयस्सर होते रहते थे.
तब कोई भी कल्पना तक नहीं कर सकता था कि भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है. भविष्य शीघ्र ही समाज की जड़ता को ध्वस्त करने जा रहा था. एक नूतन विचार-धारा का प्रवर्तन होने जा रहा था. पुरातन का निषेध होने जा रहा था. उसका उद्भव और उत्कर्ष न केवल विद्वानों को निरुत्तर करने जा रहा था, अपितु सम्पूर्ण समाज के वैचारिक पटल को प्रभावित करने जा रहा था. उसके चिन्तन-विश्लेषण और रूपायन के आभा-मण्डल से सभी का मन दीप्त होने जा रहा था. समाज में व्याप्त सभी रूढ़ मान्यताओं और आस्थाओं पर मर्मस्पर्शी कशाघात होने जा रहा था. जीवन-संघर्ष में अनवरत जूझते जन-मन की वीणा के सारे तार उसकी मन्द-द्रुत-विलम्बित मधुर स्वर-लहरी के कोमल आरोह-अवरोह के सम्मोहन में झंकृत होने जा रहे थे.
बुद्ध तब मात्र सिद्धार्थ थे, महात्मा नहीं. सम्वेदनशील और जिज्ञासु सिद्धार्थ जब नगर-भ्रमण के लिये अपने आवास से निकले, तो संसार की समस्याओं को देख व्यथित हो उठे थे. जगत के दुःख के बारे में सोच-सोच कर उनके मन में उथल-पुथल मच गयी थी. विचारों का बवण्डर उमड़-घुमड़ कर उनकी मानसिक शान्ति को अस्त-व्यस्त कर रहा था. एक के बाद दूसरे प्रश्न के थपेड़े उनके मन पर तड़ा-तड़ पड़ रहे थे.
उनके मन में अब मात्र जिज्ञासा ही नहीं थी. अब थी समस्या. समस्या – जिसका कोई समाधान नहीं था. समाधान की व्यग्रता सिद्धार्थ के अशान्त मन को रात-दिन मथ रही थी.
अब सिद्धार्थ के सामने स्वयं अपने जीवन के लिये स्पष्टतः दो ही पथ थे. या तो जो कुछ भी वह अपने भ्रमण के दौरान देख सके थे, सब भूल कर संसार की समस्याओं की पूरी तरह अनदेखी कर देते. परम्परागत पद्धति से जीने वाले जन-सामान्य का अनुसरण करते और सहज, सामान्य और सुविधापूर्ण गृहस्थ जीवन व्यतीत कर लेते. या फिर सत्य के साक्षात्कार के प्रयास का मन बना गृह त्याग निकल पड़ते.
इस द्वन्द्व से वह आसानी से उबर नहीं पा रहे थे. निर्णय की घड़ी में उनका मन नितान्त एकाकी था. अन्दर ही अन्दर वह आत्म-संघर्ष कर रहा था. सोचते-विचारते उनको सत्य-शोध के प्रयास का पथ गृहस्थ जीवन की अपेक्षा महत्वपूर्ण और श्रेयस्कर प्रतीत हुआ. जब वह पथ-चयन का निश्चय कर चुके, तो चित्त स्थिर हो गया. अन्ततः वह रात आयी, जब पत्नी और नवजात शिशु को सोता छोड़ बुद्ध बनने के लक्ष्य से सिद्धार्थ ने चुपके से प्रयाण किया.
अब उनके सामने कड़ी चुनौती थी – कहाँ जाऊँ, क्या करूँ, किस से मिलूँ, कैसे जानूँ! उन्होंने एक स्थान से दूसरे स्थान तक लगातार विचरण किया. जहाँ कहीं भी वह जाते, वहीं के लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों से जगत की पीड़ा के कारण और निवारण के बारे में तरह-तरह के प्रश्न करते. भिन्न-भिन्न विद्वानों से वार्ता करने पर भी उनको अपने प्रश्नों का सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिल सका.
एक-एक कर उन्होंने सभी धाराओं के मूर्धन्य विद्वानों की सीमाओं को समझ लिया. समकालीन समाज में प्रचलित सभी धाराओं के प्रतिनिधि विद्वानों से सम्वाद की निष्फलता ने उनकी ज़िद को और भी प्रबल कर दिया. बार-बार विफल होने पर भी हताश होने के बजाय वह निरन्तर अपने प्रयास में लगे रहे.
परन्तु समाधान न तो मिलना था और न ही मिल सका. मिलता भी तो कैसे ! उसका तो अभी अन्वेषण ही नहीं हो सका था. इतिहास ने इस दायित्व के लिये उनको ही चुन रखा था. सब के विवेक को टटोल लेने के बाद उनके पास स्वयं अपने को साधने का एकमात्र विकल्प शेष था. जगत और जीवन की पीड़ा के कारण, निवारण तथा निवारण की पद्धति के रूप में अपने सम्मुख उपस्थित समस्या का समाधान पाने के लिये उनको स्वयं ही साधना करने का निश्चय उचित लगा. ..... (अधूरा है...) ___________________________________