Saturday 16 May 2020

दिनकर आज लिखते तो यही नहीं होता क्या ?


है व्यवस्था एक प्रतिशत शोषकों के हाथ में,
जो नहीं इन्सान हमको मानते;
लाभ केवल लाभ पर ही गिद्ध-दृष्टि लगा रखी है,
वे व्यथा को हैं नहीं पहिचानते.
दुरदुरा कर महानगरों से भगाया है उन्होंने,
और पिटवाया पुलिस से सड़क पर;
जान लेकर भागने से मुक्ति किसको मिल सकी है,
शक्तिशाली को सभी ही मानते.
आपदा के जाल में जब भी फँसा पाये हमें वे,
रहे वे अपने सहारे हम विधाता के सहारे;
हम विजित और वे विजेता इसी कारण बन सके हैं,
समर हमने सभी केवल तभी हारे.
बाहुबल है बुद्धिबल है सत्य है ईमान है,
है ग़रीबी चरम मुश्किल में हमारी जान है;
हर तरह समर्थ है असंख्य संख्या बल हमारा,
एकजुटता की कमी ही आ रही हर बार आड़े.
काम पूरा कर दिया जब भी जहाँ भी,
वे हमेशा पलट कर के ज़ोर से हम पर दहाड़े;
इस धरा पर स्वर्ग हम ही रहे गढ़ते हैं सदा से,
किन्तु उनकी कृपा से हमने पढ़े उलटे पहाड़े.
- गिरिजेश (16.5.20)
(कविता-पोस्टर पर चित्र Navin Kumar का है. क्योंकि दिनकर की और मेरी पीढ़ी के सच्चे वारिस व्यवस्था-परिवर्तन की कामना लिये जूझ रहे युवा ही हैं.)

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