आर्ष साहित्य के "तमसो मा ज्योतिर्गमय" (अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो) से "अप्पदीपोभव" (अपना दीपक स्वयं बनो) तक की बुद्ध की यात्रा मानवता की विकास-यात्रा भी है. आज युग है - "ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के", "भेड़िया मशाल नहीं जला सकता, मशाल जलाओ" और "चले चलो कि मन्ज़िलें बुला रही हैं तुम्हें, तुम्हारे हाथ में जलती हुई मशालें हैं." - एक बार फिर व्यवस्था-परिवर्तन की ललकार का.
"इन्कलाब ज़िन्दाबाद" आज के युग का प्रधान स्वर है.
आज का युग जन का युग है. जन-शक्ति के जागरण का युग है. यही आज की साधना है. यही आज का युगसत्य है. हमारी समूची धरती पर धन हर तरह से जन के विरुद्ध संगठित है. जन की एकजुटता ही युगधर्म है.
अन्धकार का नाश हो. जगत और जीवन को अन्धकारमय बना देने की साज़िशों का नाश हो.
मेरे लिये बुद्ध अपनी मान्यताओं की तुलना में अपने विचारों (विशेषकर चार महासत्य और मध्यम मार्ग) के चलते और विविध अवसरों पर अपने जीवन और आचरण के चलते अधिक प्रेरक और प्रासंगिक हैं.
मेरे एक प्रबुद्ध मित्र की मान्यता है कि बुद्ध प्रकारान्तर से धनतन्त्र के ही समर्थक रहे.
मेरे एक प्रबुद्ध मित्र की मान्यता है कि बुद्ध प्रकारान्तर से धनतन्त्र के ही समर्थक रहे.
राहुल बाबा ने लिखा उन्होंने दासों, सैनिकों और नारियों को परिव्रज्या देने का विरोध किया.
मेरी समझ इसीलिये है कि महात्मा बुद्ध और बाबा साहेब अम्बेडकर के लोग व्यवस्था-परिवर्तन नहीं करना चाहते. उनकी इसी जन-विरोधी सम्पत्ति आधारित व्यवस्था में और बेहतर जगह की कामना है.
हाँ, निःसन्देह बुद्ध मेरे पुरखे थे. मैं उनका प्रशंसक हूँ.
हम दोनों के इस रिश्ते के बीच मुझे किसी और के हस्तक्षेप की कोई ज़रूरत नहीं है.
बौद्ध बहुत हुए. दूसरा बुद्ध नहीं हुआ. मेरे लिये इतना बहुत है.
बुद्ध के लिये नमन !
हम दोनों के इस रिश्ते के बीच मुझे किसी और के हस्तक्षेप की कोई ज़रूरत नहीं है.
बौद्ध बहुत हुए. दूसरा बुद्ध नहीं हुआ. मेरे लिये इतना बहुत है.
बुद्ध के लिये नमन !
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