Sunday, 11 November 2012

अन्दर का सच, बाहर का सच - गिरिजेश




अन्दर का सच :-

हँसता-रोता हूँ, गीत गाता हूँ; मैं अकेले ही गुनगुनाता हूँ।
साथ में कोई भी नहीं होता, मैं ख़ुद अपने पे मुस्कुराता हूँ।।


सामने लाना कितना मुश्किल है? सामने ला भी कहाँ पाता हूँ?
मैं किसी से क्या कहूँ दर्द-ए-ज़िगर? जिसको पाता हूँ, दूर पाता हूँ।

बिजलियाँ क्यों वहीं गिराते हो? मैं जहाँ घोंसला बनाता हूँ।
भागता ही रहा हूँ आजीवन, अब कहाँ भाग भी मैं पाता हूँ?

रात में जागता हूँ मैं जब भी, गीत कोई नया बनाता हूँ।
उनकी यादों के पाक़ पैरों तले, अपने आँसू ही मैं बिछाता हूँ।।

बाहर का सच :- 


जब भी अन्धेरा सिर पे चढ़ता है, मैं तुरत रोशनी जलाता हूँ;
जिन्दगी सिलसिला ही है ऐसा, जब भी तोड़ा तो जोड़ पाता हूँ.

सच को स्वीकारना नहीं आसाँ... झूठ बोला तो दरक जाता हूँ;
क्यों तुम इतना अधिक उछलते हो? आइना जब भी मैं दिखाता हूँ.

दोस्ती है कहाँ मुझे हासिल? दुश्मनी की फसल उगाता हूँ;
तुम चुनौती भी ले नहीं पाते, जब भी ताकत को आजमाता हूँ.

जंग क्यों आर-पार होती नहीं? कसमसाता हूँ, तिलमिलाता हूँ;
अपनी इज्ज़त भी क्या, ज़लालत क्या? नेक इंसान जो बनाता हूँ.

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