Friday, 16 November 2012

सामाजिक स्वामित्व - गिरिजेश


सामाजिक स्वामित्व मनुजता का अगला सपना है;
अभी दम्भ के चलते सीमित लक्ष्य ‘स्वार्थ सधना’ है।

कठिन बहुत है नीच स्वार्थ की कालिख को धो पाना;

काम नहीं जो करना चाहें, उनसे कुछ करवाना।

कठिन बहुत है व्यक्तिवाद के चिन्तन से उठ पाना;
अलग-अलग बजती ढपली से एक राग बजवाना।

कठिन बहुत है जन के बल को एकत्रित कर लाना;
महाविराट शक्ति को जागृत पुंजीभूत बनाना ।

संकेन्द्रित जन-बल ही सारा जादू कर सकता है;
व्यक्तिवाद में निहित स्वार्थ के पंख कतर सकता है।

जब तक व्यक्ति स्वतन्त्र नहीं होगा चिन्तन के भ्रम से;
नहीं गुलामी की बेड़ी को काटेगा निज श्रम से।

तब तक नारे बड़बोलेपन का आभास भरेंगे;
कोरे आदर्शों का तो सब ही उपहास करेंगे।

लाल लहू है गिरा ज़मीं पर, जब-जब छिड़ी लड़ाई;
बल था फिर भी हारा ज़ालिम, युग ने ली अँगड़ाई।

नहीं कहानी ख़त्म हो रही है डंकल के साथ;
पूँजी की देवी के सिर से भी उतरेगा ताज।

धरती फिर करवट बदलेगी, फिर इतिहास बढे़गा;
माटी का बेटा जल्दी ही हक के लिए लड़ेगा।

आगे बढ़ कर बलिदानों के जो आदर्श दिखाते;
जो समूह को साथ उड़ाते, चमत्कार कर जाते।

हार गये तो बुझी राख हैं, जीवित हैं अंगारे;
अपने को दहकाने वाले ही रोशनी पसारें।

दूर क्षितिज पर देख रहा हूँ मैं कुछ लाल सितारे;
पंखों को फैलाओ, यारो, फिर तूफान पुकारे।

आगे आओ, साथ निभाओ, दिल है तो धड़केगा;
जोश अगर है नस-नस में, रेशा-रेशा फड़केगा।

अँखुआयी कोंपल के कोमल पत्तों जैसे लाल;
नन्हे हाथ सदा ही काटे हैं शोषण के जाल ।

धरती के गोले पर फिर लहरेगा लाल निशान;
गीत क्रान्ति के गायेंगे मिल कर मजदूर-किसान।

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