Wednesday, 14 November 2012

शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के बारे में नेहरू के विचार




"पुलिस और भीड़ों के बीच कभी-कभार ही छोटे-मोटे झगड़े होते थे. लाहौर ने मामलों को शीर्ष पर ला दिया और अचानक देश भर में रोषपूर्ण उत्तेजना की लहर फैला दिया. वहाँ लाला लाजपत राय साइमन कमीशन विरोधी प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे थे और जब वह हजारों प्रदर्शनकारियों के सम्मुख सड़क की पटरी पर खड़े थे, तो एक युवा अंग्रेज़ पुलिस अधिकारी द्वारा उन पर हमला किया गया और एक डंडे से उनकी छाती पर मारा गया. हिंसा के किसी भी तरीके में संलग्न होने की कोई भी चेष्टा भीड़ की ओर से नहीं की गयी, लाला जी की तो बात ही दूर है. यहाँ तक कि ऐसी हालत में भी जब वे शांतिपूर्वक खड़े रहे, तो उनको तथा उनके साथियों में से अनेक को पुलिस द्वारा बुरी तरह पीटा गया. जो कोई भी सड़क के प्रदर्शनों में भाग लेता है, वह पुलिस के साथ टकराव का खतरा उठाता है, और यद्यपि हमारे प्रदर्शन लगभग हमेश ही पूरी तरह से शान्तिपूर्ण थे, लाला जी अवश्य ही इस खतरे को जानते रहे होंगे और उन्होंने इसे सचेत तौर पर उठाया होगा. परन्तु तो भी प्रहार का तरीका, उसकी अनावश्यक बर्बरता भारत में भारी संख्या में लोगों के लिये सदमे के रूप में आयी. ये वे दिन थे, जब हम पुलिस द्वारा लाठी-चार्ज के अभ्यस्त नहीं हुए थे; हमारी सम्वेदना बर्बरता की पुनरावृत्ति द्वारा भोथरी नहीं हो पायी थी. यह देखना कि हमारे नेताओं में से महानतम, पंजाब में अग्रतम तथा सर्वाधिक लोकप्रिय  व्यक्ति के साथ भी ऐसा बर्ताव किया जा सकता था, कुछ-कुछ विकराल जैसा था, और एक और धूमिल क्रोध सम्पूर्ण देश में, विशेष तौर पर उत्तर भारत में फ़ैल गया. जब हम अपने चुनिन्दा नेताओं के भी सम्मान की सुरक्षा नहीं कर सके, तो हम कितने असहाय और कितने तिरस्करणीय थे!

लाला जी के लिये शारीरिक चोट पर्याप्त गम्भीर हो चुकी थी, क्योंकि उन्हें छाती पर मारा गया था और वे लम्बे समय से हृदय रोग से पीड़ित थे. सम्भवतः किसी स्वस्थ नौजवान के मामले में यह चोट गहरी नहीं होती, परन्तु लाला जी न तो नौजवान थे और न ही स्वस्थ. यह निशित रूप से कहना मुश्किल से ही सम्भव है कि कुछ सप्ताहों बाद उनकी मृत्यु पर इस शारीरिक चोट का क्या असर हुआ; हालाँकि उनके चिकित्सकों का मत था कि उस चोट ने उनके अन्त को और करीब ला दिया. परन्तु मैं सोचता हूँ कि इसमें कोई सन्देह नहीं हो सकता कि शारीरिक चोट के साथ जुड़ गये मानसिक सदमे ने लाला जी पर भयंकर असर डाला. अपने ऊपर हुए प्रहार में निहित व्यक्तिगत अपमान से उतना अधिक नहीं जितना अधिक राष्ट्रीय अपमान से उन्हें क्रोध व कटुता की अनुभूति हुई.

राष्ट्रीय अपमान की यही भावना भारत के मन पर भार बनी हुई थी और जब उसके बाद शीघ्र ही लाला जी की मौत हो गयी, जो कि उस प्रहार से अवश्यम्भावी तौर पर जुड़ी हुई थी, तो वेदना ने स्वयमेव गौरव का स्थान क्रोध तथा रोष को दे दिया. यह उल्लेख उचित है, क्योंकि केवल तभी हम तदनन्तर घटित घटनाओं, भगत सिंह की परिघटना तथा उत्तरी भारत में उनकी अकस्मात तथा विस्मयकारिणी लोकप्रियता के बारे में कुछ समझ बना सकते हैं. किसी भी कृत्य के स्रोत, उसके पीछे निहित कारणों को समझने का प्रयास किये बिना व्यक्तियों तथा कृत्यों की भर्त्सना करना बहुत ही आसान तथा ऊटपटांग है. भगतसिंह पहले विख्यात नहीं थे और न ही वे हिंसा की कार्यवाही, आतंकवाद की कार्यवाही के चलते ही लोकप्रिय हुए. लगभग तीस वर्षों में भारत में बार-बार आतंकवादी पनपते रहे हैं और बंगाल में आरम्भिक दिनों के अलावा उनमें से किसी को भी कभी भी उस लोकप्रियता का टुकड़ा भी नहीं हासिल हो पाया, जो भगतसिंह को मिली. यह एक खुला तथ्य है, जिसे नकारा नहीं जा सकता; इसे स्वीकारना ही पड़ा है. और उतना ही स्पष्ट तथ्य एक और है कि अपने इक्का-दुक्का प्रसार के बावजूद भारत के नौजवानों के लिये आतंकवाद में अब कोई असली आकर्षण नहीं बचा है. अहिंसा पर पन्द्रह वर्षों के जोर ने भारत की समूची पृष्ठभूमि को बदल दिया है और जनसमुदाय को राजनीतिक कार्यवाही की पद्धति के तौर पर आतंकवाद के विचार के प्रति अन्यमनस्क यहाँ तक कि विरोधी भी बना दिया है. यहाँ तक कि वे वर्ग, जिनमें से आमतौर पर आतंकवादी पैदा होते हैं - निम्न-मध्यम वर्ग तथा बुद्धिजीवी कांग्रेस के हिंसक तरीकों के विरुद्ध प्रचार से सशक्त रूप से प्रभावित हुए हैं. उनके सक्रिय और अधीर तत्व भी, जो क्रांतिकारी कार्यवाही की पदावली में सोचते हैं, अब पूरी तरह से महसूस करते हैं कि आतंकवाद के ज़रिये क्रान्ति नहीं आती, और कि आतंकवाद एक पिछड़ा हुआ और लाभरहित तरीका है, जो असली क्रन्तिकारी कार्यवाही के रास्ते में बाधा बनता है. भारत तथा दूसरी जगहों पर आतंकवाद एक मर रही वस्तु है, सरकारी बल-प्रयोग के चलते नहीं, जो केवल दमन कर सकता है और जकड़ सकता है, उन्मूलन नहीं कर सकता, अपितु अपने कारणों तथा विश्व-घटनाक्रम के चलते. आमतौर से आतंकवाद किसी देश में क्रांतिकारी ललक की शैशवावस्था का प्रतिनिधित्व करता है. 

वह अवस्था गुजरती है और उसी के साथ एक महत्वपूर्ण परिघटना के रूप में आतंकवाद गुजर जाता है. आकस्मिक विस्फोट धीरे-धीरे बुझ जायेंगे. परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि भारत में सभी लोग बहुत बड़े स्तर पर व्यक्तिगत हिंसा तथा आतंकवाद में आस्था रखना बन्द कर चुके हैं, वरन निस्संदेह अनेक अभी भी सोचते हैं कि एक समय आ सकता है, जब स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिये संगठित हिंसक तरीकों की आवश्यकता पड़ सकती है, जैसा कि दूसरे देशों में अक्सर उनकी आवश्यकता पड़ती रही है. वह आज एक बहस का मुद्दा है, जिसकी परीक्षा केवल समय ले सकता है; उसका आतंकवादी तरीकों से कुछ भी लेना-देना नहीं है. 

इस तरह भगत सिंह अपने आतंकवादी कारनामे के चलते लोकप्रिय नहीं हुए. अपितु इसलिये हुए कि वह उस क्षण लाला लाजपत राय के सम्मान की और उनके ज़रिये राष्ट्र की प्रतिष्ठा की रक्षा करते हुए प्रतीत हुए. वह एक प्रतीक बन गये; कारनामा भुला दिया गया; प्रतीक बचा रह गया, और कुछ ही महीनों के अन्दर पंजाब का प्रत्येक नगर और गाँव और थोड़ी-सी ही कम मात्रा में शेष समूचा उत्तरी भारत उनके नाम से गूँज उठा. उनके बारे में अगणित गीत उभर आये और जो लोकप्रियता इस व्यक्ति को प्राप्त हुई, वह आश्चर्यचकित कर देने वाली चीज़ थी....

जैसा कि मैंने ऊपर कहा है संसद ऊँघने का मामला बन चली थी और कुछ ही लोग उसकी नीरस कार्यवाही में दिलचस्पी लेते थे. एक दिन एक अशिष्ट जागृति उसमें तब आयी, जब भगत सिंह और बी. के. दत्त ने दर्शक-दीर्घा से सदन के फर्श पर दो बम फेंके. कोई भी गम्भीरता से घायल नहीं हुआ और शायद बमों को धमाका और खलबली पैदा करने की ही मंशा से बनाया गया था, न कि घायल करने के लिये, जैसा कि अभियुक्तों ने बाद में वक्तव्य भी दिया. उन्होंने संसद के अन्दर और बाहर दोनों जगहों पर खलबली मचा दी. आतंकवादियों की अन्य कार्यवाहियाँ उतनी अहानिकर नहीं थीं. एक युवा अंग्रेज़ पुलिस अधिकारी, जिस पर लाला लाजपत राय पर प्रहार करने का आरोप था, लाहौर में गोलियों से उड़ा दिया गया. बंगाल और दूसरी जगहों में आतंकवादी गतिविधि पुनः फैलती प्रतीत हुई. अनेक षड्यंत्रों के मुक़दमे शुरू किये गये और नज़रबन्द लोगों – ऐसे लोग जिन्हें बिना अपराध-स्वीकृति के या बिना मुकदमा के ही जेल में या दूसरी तरह से कैद कर लिया जाता है – की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई.

लाहौर षड्यन्त्र मुक़दमे में अदालत में पुलिस द्वारा कुछ असाधारण दृश्यों का अभिनय किया गया और इसके चलते जनता का ध्यान बड़े पैमाने पर मुकदमे की ओर खिंच गया. अदालत में और जेल में अपने साथियों के साथ किये गये दुर्व्यवहार के विरुद्ध प्रतिवाद स्वरूप अधिकतर बन्दियों की ओर से भूख-हड़ताल की गयी. मुझे भूल गया है कि ठीक-ठीक किस कारण से वह शुरू हुई, परन्तु अन्ततः कैदियों के साथ – विशेषकर राजनीतिक कैदियों के साथ दुर्व्यवहार ही उसमें निहित मुख्य प्रश्न बन गया. यह भूख-हड़ताल एक हफ्ते से दूसरे हफ्ते तक चलती रही और सारे देश में इसने एक हलचल पैदा कर दिया. अभियुक्तों की शारीरिक कमजोरी के कारण वे अदालत तक नहीं लाये जा सकते थे और अदालत की कार्यवाही को बार-बार स्थगित करना पड़ा. इस पर भारत सरकार ने अदालत को अभियुक्तों या उनके वकील की अनुपस्थिति में भी अपनी कार्यवाही जारी रखने की अनुमति देने के लिये क़ानून शुरू किया. उन्हीं के द्वारा जेल के व्यवहार के प्रश्न पर भी विचार किया जाना था. मैं लाहौर में ही था, जब भूख-हड़ताल एक महीने की हो चुकी थी. मुझे जेल में कुछ बन्दियों से मुलाकात की अनुमति दी गयी और मैं मिलने गया. मैंने पहली बार भगत सिंह, यतीन्द्रनाथ दास तथा कुछ दूसरे लोगों को देखा. वे सभी के सभी कमजोर थे और बिस्तर पकड़ चुके थे और उनसे अधिक बात करना मुश्किल से ही सम्भव था. भगत सिंह का चेहरा आकर्षक और बुद्धिजीवियों जैसा था - खूब शान्त. उसमें कोई क्रोध प्रतीत नहीं हुआ. उन्होंने अतीव सज्जनतापूर्वक निहारा तथा बातें की. परन्तु तब मैंने माना कि जो भी एक महीने तक अनशन करता रहा है, वह अध्यात्मिक और सज्जन तो दिखेगा ही. यतीन्द्र दास और भी कोमल किसी युवती की तरह कोमल और भले दिखे. जब मैंने उन्हें देखा तो वे भयानक दर्द झेल रहे थे. बाद में भूख-हड़ताल के परिणाम-स्वरूप वह भूख-हड़ताल के इकसठवें दिन मर गये.

भगतसिंह की मुख्य इच्छा अपने चाचा सरदार अजीत सिंह को देखना या कम से कम उनका समाचार जान लेना प्रतीत हुई, जिनको 1907 में लाला लाजपत राय के साथ देश-निकाला दिया गया था. अनेक वर्षों तक वह विदेशों में निर्वासित रहे थे. कुछ अनिश्चित रिपोर्टें थीं कि वह दक्षिणी अमेरिका में बस गये थे, मगर मैं नहीं सोचता कि उनके बारे में कोई निश्चित जानकारी है. मैं यह भी नहीं जानता कि वह जीवित हैं या मर गये. यतीन्द्र दास की मृत्यु ने देश भर में सनसनी फैला दी. इसने राजनीतिक बन्दियों के साथ व्यवहार के प्रश्न को सामने ला दिया, और सरकार ने इस विषय पर एक समिति नियुक्त कर दिया. इस समिति के विमर्शों के परिणामस्वरूप बंदियों की तीन श्रेणियाँ बनाने वाले नये नियम जारी किये गये. राजनीतिक बन्दियों की कोई विशेष श्रेणी नहीं बनाई गयी. ये नये नियम, जो बेहतरी के बदलाव का आश्वासन देते हुए प्रतीत हुए, दरअसल बहुत कम अन्तर बना पाये और परिस्थिति अतीव असंतोषजनक रही और अभी भी वैसी ही बनी हुई है....

समझौते से पहले और उसके बाद लार्ड इरविन से वार्ताओं के दौरान गाँधी जी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन के बन्दियों के अतिरिक्त अन्य राजनीतिक बन्दियों की मुक्ति के लिये चिरौरी की थी. सविनय अवज्ञा वाले स्वयं समझौते के हिस्से के तौर पर छूटने वाले थे. परन्तु हज़ारों दूसरे मुकदमे के दौरान के बन्दी और बिना किसी आरोप में या दोष सिद्ध किये बिना बन्द किये गये नज़रबन्द लोग थे. इन नज़रबन्द लोगों में से अनेकों को उसी तरह वर्षों तक कैद रखा जाता था और सदैव ही सारे भारत में विशेष कर बंगाल में बिना मुकदमे के इस तरह बन्द रखने के तरीके पर बहुत असंतोष व्याप्त रहता था जो इससे सर्वाधिक प्रभावित था. पेंगुइन द्वीप के प्रधान शासक की तरह (अथवा क्या जैसा ड्रेइफस मुकदमे में था?) भारत-सरकार की मान्यता थी कि कोई सबूत न होना ही सबसे अच्छा सबूत है. सबूत न होने पर उनको गलत साबित नहीं किया जा सकता. नज़रबन्द लोगों पर सरकार का आरोप था कि वे वस्तुतः या सम्भवतः हिंसक प्रकार के क्रांतिकारी थे. गाँधी जी ने उनकी मुक्ति के लिये चिरौरी समझौते के शर्त के रूप में अनिवार्य रूप से नहीं की थी, अपितु राजनीतिक तनाव कम करने तथा बंगाल में अधिक सामान्य माहौल स्थापित करने के क्रम में बहुत ही अधिक चाहा जाने लायक होने के कारण की थी. मगर सरकार इससे सहमत होने लायक थी ही नहीं. न ही सरकार ने भगत सिंह की फाँसी की सज़ा रद्द करने के लिये गाँधी जी की कड़ी चिरौरी को ही माना. इसका भी समझौते से कुछ लेना-देना नहीं था और गाँधी जी ने इसके लिये अलग से भी दबाव बनाया था क्योंकि इस विषय पर देश भर में बहुत ज़बरदस्त भावना थी. उनकी चिरौरी बेकार गयी.

कराची भारत के सुदूर पश्चिमोत्तर में देश के शेष हिस्सों से रेगिस्तानी क्षेत्रों द्वारा अंशतः कटा हुआ स्थित है और वहाँ पहुँचना भी कठिन है. परन्तु उसने दूरस्थ भागों से एक विशाल जमावड़े को आकृष्ट किया और उस क्षण की देश की तपिश का वस्तुतः प्रतिनिधित्व किया. भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन की बढ़ती हुई शक्ति को लेकर एक शान्त, परन्तु गहन सन्तोष की अनुभूति कांग्रेस संगठन में व्याप्त थी, जिसने तब तक के आह्वानों का कुशलतापूर्वक प्रत्युत्तर दिया था और अपने अनुशासित बलिदान से हमारे जन-गण में आत्मविश्वास तथा संयमित उत्साह से स्वयं को पूरी तरह से न्यायोचित सिद्ध किया था. उसी के साथ ही आने वाले संकटों तथा भारी समस्याओं के प्रति ज़िम्मेदारी का गहरा भाव था; हमारे शब्द एवं प्रस्ताव अब राष्ट्रीय पैमाने पर कार्यवाही की पूर्व-घोषणा थे और उन्हें हल्के ढंग से न तो बड़बड़ाया जा सकता था और न ही पारित किया जा सकता था. दिल्ली समझौता भले ही भारी बहुमत द्वारा स्वीकार लिया गया था, तो भी वह लोकप्रिय नहीं हुआ था और न उसे पसन्द ही किया गया था, तथा यह भय था कि वह हमें हर तरह की समझौताकारिणी परिस्थितियों तक पहुँचा सकता था. किसी न किसी तरह से यह देश के सम्मुख उपस्थित मुद्दों की स्पष्टता से ध्यान बँटाता प्रतीत होता था. कांग्रेस की ठीक पूर्व-संध्या पर ही रोष का एक नया तत्व रेंगता हुआ आ चुका था – भगत सिंह की फाँसी. यह भावना उत्तर भारत में विशेष तौर पर चिह्नित की गयी थी और उत्तर में स्थित होने के चलते कराची ने पंजाब से भारी संख्या में लोगों को आकृष्ट किया था. 

किसी भी अन्य पिछली कांग्रेस की तुलना में कराची कांग्रेस गाँधी जी के लिये और भी बड़ी व्यक्तिगत सफलता थी. अध्यक्ष, सरदार वल्लभ भाई पटेल गुजरात में विजेता नेतृत्व के सम्मान वाले तथा भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय एवं सशक्त व्यक्तियों में से एक थे, परन्तु यह महात्मा ही थे, जो दृश्य-पटल पर छाये थे. अब्दुल गफ्फार खां के नेतृत्व में सीमान्त प्रांत की सशक्त ‘लालकुर्ती’ टोली भी कांग्रेस में थी. ये लालकुर्ती वाले जहाँ भी जाते थे, लोकप्रियता तथा वाहवाही जीत लेते थे, क्योंकि अप्रैल 1930 के बाद से ही जबर्दस्त उकसावे के मुकाबले में उनके असाधारण तथा शान्तिपूर्ण साहस के द्वारा भारत प्रभावित हो चुका था. ‘लालकुर्ती’ नाम कई लोगों को बिल्कुल गलत तौर पर यह सोचने तक पहुँचा देता था कि वे कम्युनिस्ट हैं या वामपंथी मज़दूरवादी हैं. दरअसल उनका नाम ‘खुदाई-खिदमतगार’ था और इस संगठन का कांग्रेस से गठजोड़ था (बाद में 1931 में वे कांग्रेस संगठन के घटक हिस्से बन गये). वे अपनी कबायली पोशाक के कारण ही लालकुर्ती कहे जाते थे, जो कि लाल थी. उनके कार्यक्रम में ऐसी कोई आर्थिक नीति नहीं थी, जो राष्ट्रीय भी हो और सामाजिक सुधार भी कर सके.

कराची में प्रमुख प्रस्ताव दिल्ली समझौते और गोलमेज कान्फ्रेंस से जुड़ा था. निश्चय ही मैंने उसे स्वीकारा, क्योंकि वह कार्यकारिणी में से उभरा था, परन्तु जब मुझे गाँधी जी द्वारा उसे खुली कांग्रेस में पेश करने के लिये कहा गया, मैं हिचकिचा गया. वह मेरे स्वभाव के खिलाफ गया और मैंने पहले तो इन्कार कर दिया और तब वह ली जाने के लिये एक कमजोर और असंतोषजनक अवस्थिति प्रतीत हुई. या तो मैं उसके पक्ष में था या उसके विरुद्ध था और टाल-मटोल करना या लोगों को उस मामले में अनुमान लगाते हुए छोड़ना उचित नहीं था. लगभग आखिरी क्षण में, खुली कांग्रेस में प्रस्ताव ले जाने के कुछ ही मिनटों पूर्व, मैंने विराट जमावड़े के सम्मुख खुलेआम अपनी भावनाओं को खोल देने का और क्यों मैंने उस प्रस्ताव को पूरे दिल से स्वीकारा था और उनसे भी स्वीकारने की अपील की थी - का निर्णय किया. उस पल की प्रेरणा पर रचे गये और सीधे दिल से आने वाले उस वक्तव्य में अलंकार तथा सुन्दर वाक्यविन्यास कम ही थे और सम्भवतः वह अनेक अन्य प्रयासों की अपेक्षा अधिक सफल था, जिनके पीछे अपेक्षाकृत अधिक सतर्कतापूर्वक तैयारी की गयी थी.

मैं दूसरे प्रस्तावों पर भी बोला, खासकर भगत सिंह प्रस्ताव तथा मूलभूत अधिकारों तथा आर्थिक नीति सम्बन्धी प्रस्ताव पर. बाद वाले प्रस्ताव ने मुझे विशेष रूप से आकर्षित किया, एक तो अपनी अन्तर्वस्तु के चलते तथा दूसरे और भी अधिक क्योंकि वह कांग्रेस में एक नये दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करता था. तब तक कांग्रेस ने शुद्ध रूप से राष्ट्रवादी कार्यदिशाओं के इर्द-गिर्द सोचा था, और आर्थिक मुद्दों का सामना करने से बचती रही थी, सिवाय उसके कि उसने तब तक कुटीर उद्योगों और आम तौर से स्वदेशी को प्रोत्साहित किया था. कराची प्रस्ताव में उसने मुख्य उद्योगों तथा सेवाओं के राष्ट्रीयकरण की वकालत तथा दूसरे विभिन्न क़दमों द्वारा गरीबों पर बोझ घटाने और अमीरों पर उसे बढ़ाने के माध्यम से समाजवादी दिशा में एक कदम, एक छोटा-सा कदम बढ़ाया था. वह बिलकुल ही समाजवाद नहीं था, और कोई भी पूँजीवादी राजसत्ता उस प्रस्ताव में निहित लगभग प्रत्येक चीज़ को आसानी से स्वीकार सकती थी.

इस बहुत ही हल्के और फीके प्रस्ताव ने भी स्पष्ट रूप से भारत सरकार के बड़े लोगों को कुपित होकर सोचने तक पहुँचा दिया. सम्भवतः उन्होंने अपनी सामान्य कुशाग्रता द्वारा यहाँ तक चित्रांकन कर डाला कि कराची में बोल्शेविकों का लाल सोना चोरी-चोरी घुस आया है और कांग्रेस के नेताओं को भ्रष्ट बना रहा है. बाहरी संसार से कट कर एक तरह के राजनीतिक हरम में रहते हुए और गोपनीयता के माहौल से घिरे हुए उनके दिमाग रहस्य और कल्पना की कहानियाँ सुनना पसन्द करते हैं और फिर ये कहानियाँ थोड़ा-थोड़ा करके रहस्यात्मक तरीके से उनके पसन्दीदा अखबारों द्वारा पेश की जाती हैं और यह संकेत कर दिया जाता है कि यदि केवल पर्दा उठा दिया जाये, तो बहुत कुछ देखा जा सकता है. कहानी कही जाती है कि किसी कम्युनिस्ट जुड़ाव वाले रहस्यमय व्यक्ति ने इस प्रस्ताव को या इसके भारी हिस्से को लिखा और कराची में इसे मेरे ऊपर थोप दिया, ताकि उसके ज़रिये मैं मिस्टर गाँधी को चुनौती दे पाया कि या तो इसे स्वीकार करें या दिल्ली समझौते पर मेरे विरोध का मुकाबला करें और मिस्टर गाँधी ने इसे निगल लिया और थकी हुई कांग्रेस कमेटी के सामने आख़िरी दिन ला पटका, यह मेरे लिये मिस्टर गाँधी का एक घूस है....”
(जवाहर लाल नेहरू, आत्मकथा, एलाइव प्रकाशन, 1962, पृष्ठ 1/ 4-76, 192-94, 260-61, 265-67 से ली गयी यह सामग्री bhagat singh - patriot and martyr - s.r. bakhshi, anmol publications, new delhi - 1990 में प्रदत्त सन्दर्भ खण्ड से मेरे द्वारा अनूदित ‘गाँधी-इरविन-भगत सिंह’ में मुद्रित रूप में मेरे पास उपलब्ध है.http://www.biblio.com/9788170412588)  


4 comments:

  1. लेख निश्चित रूप से महत्‍वपूर्ण है और आज के संदर्भों में तो बहुत ही प्रासंगिक भी... धन्‍यवाद... लेकिन अनुवाद में बहुत गलतियां हैं...

    ReplyDelete
  2. 2 kaudi ka lekh,
    station par khatm hui bharat teri khoj,
    nehru ne likha nahi kuli ke sar ka bojh (nida fazli)
    jahan tak maine nehrudiin ka padha hai, samjha hai, wo सत्तालोभी ही लगा |
    जब कोई मेरे पढ़े को जूठ समझ सकता है तो इसे क्यूँ ना ?
    आतंकवादी शब्द बहुत कुछ गलत बयां दे रहा है यहाँ,
    कुछ बातें ठीक हैं पर अधिकांशत: त्रुटियाँ और बनाबटीपन, गुमराह करती हुई लगतीं है |
    और फिर हम वही पढते हैं, जिन्हें चेले-चपाटे लिखके चले जाते हैं या जो हमें जबरदस्ती पढाया जाता है |

    ReplyDelete
  3. दरअसल इस लेख को पड़ने से पहले जो उत्सुकता थी वो पड़ने के बाद भी है......मतलब सीधा सा है.....इसमें कुछ नया पन नहीं लगा.....

    ReplyDelete