जब आप किसी भी निबन्ध-प्रतियोगिता में विषय को जान लेते हैं, तो कलम उठाने के पहले विषय-वस्तु के बारे में थोड़ी देर अच्छी तरह सोचिए. अपने मन में अपने निबन्ध को प्रस्तावना, पृष्ठभूमि, विश्लेषण और उपसंहार के टुकड़ों के अन्तर्गत् तोड़ लीजिए. प्रस्तावना आम तौर से एक पैराग्राफ की होती है. वही पैराग्राफ यह निश्चय करता है कि पाठक उस लेख में रूचि लेगा या नहीं. उसके तुरन्त बाद वाला पैराग्राफ विषय को छूना शुरू कर देता है. इसका आरम्भ विषय की पृष्ठभूमि के बारे में लिखने से करना बेहतर होता है. पृष्ठभूमि अक्सर एक, दो या तीन पैराग्राफ की लिखी जाती है और विश्लेषण की ज़मीन तैयार कर देती है.
विश्लेषण करते समय सत्य और शास्त्र, जीवन और जगत, विज्ञान और साहित्य, दिल और दिमाग, सभ्यता और संस्कृति, अतीत और वर्तमान के विविध पक्षों को स्पर्श करना होता है. विश्लेषण करते समय समर्थ लेखक जिस भावभूमि पर जा पहुँचता है, वहाँ वह अपनी वैयक्तिक स्वतन्त्र सत्ता का पूरी तरह से परित्याग करके अपने पाठक की समस्याओं से अपनी चेतना को नाभिनालबद्ध कर चुका होता है. तभी ऐसी सशक्त रचना जन्मती है कि पाठक हठात् बोल बैठता है कि अरे यह तो मेरी ही बात है. और फिर रचना लोकप्रियता के शिखर चढती चली जाती है. विश्लेषण से जीवन-समर में जूझ रहे पाठक को अपने सामने आने वाले अनेक प्रश्नों के उत्तर मिल जाते हैं और इसके साथ ही अगणित जिज्ञासाएँ भी उसके दिमाग में सिर उठाने लगती हैं. ऐसे में अपनी रचना के अन्त में उपसंहार में पाठक की समस्याओं के समाधान के रूप में उज्जवल भविष्य की कामना के साथ ही असीम धैर्य और अश्रुतपूर्व शौर्य की प्रेरणा के झिलमिलाते हुए सन्देश के साथ निबन्ध समाप्त किया जाता है.
उद्धरण निबन्ध के आरम्भ से अन्त तक कहीं भी लिखा जा सकता है. मगर आम तौर से निबन्ध के अन्त में कोई प्रेरक उद्धरण देने की परम्परा है. उद्धरण निबन्ध के सौन्दर्य में चार चाँद लगा देते हैं. मगर उनकी अति भी कभी-कभी निबन्ध को हल्का कर देती है. सन्दर्भ, आँकडे और तालिकाएँ निबन्ध को तथ्यों की विश्वसनीयता प्रदान करती हैं. मगर कभी-कभी लेखक उनका बोधगम्य विश्लेषण नहीं कर पाता है और उनकी अधिकता से निबन्ध को अनावश्यक तौर पर अग्राह्य और बोझिल बना देता है.
रचनाकर्म के शिल्प की विविध विधाओं में तुलना करने पर हम पाते हैं कि एक वास्तुशिल्पी के पास विशाल निर्माण-सामग्री, अनेक सहकर्मी और पर्याप्त धन की शक्ति का बल होता है. उसकी तुलना में मूर्तिकर्मी के पास मात्र एक शिलाखण्ड, अपनी छेनी-हथौड़ी होती है. उससे भी कम सामग्री के रूप में चित्रकार के पास रंग, तूलिका और चित्र-फलक होता है. एक वक्ता के सम्मुख सजग श्रोताओं का अपनी और उसकी क्षमता के अनुरूप प्रतिदान करने वाला जनसमूह होता है. मगर एक लेखक को बन्द कमरे के एकान्त में केवल सादा कागज़ और कलम ही मयस्सर रहता है. परन्तु अपनी-अपनी साधना का बल और अपनी-अपनी कल्पना-शक्ति सबके पास होती है.
शब्दों के चितेरे की साधना इन सभी विधाओं में सबसे अधिक सूक्ष्म और सशक्त मानी गयी है. शब्द को ही ब्रह्म कहा गया है. लेखक के सामने उसका पाठक नहीं होता. उसे अँधेरे में अग्निबाण छोड़ना होता है. और अचूक लक्ष्यवेध करके समर्थ लेखक अपने कलम के दम पर देश-काल की सारी सीमाओं को ध्वस्त कर देता है. ऐसे कालजयी रचनाकार पढ़े ही नहीं, कढ़े भी होते हैं.
साहित्य जीवन का पुनर्सृजन ही तो है. जो कुछ भी एक बार जिया जा चुका है, उसी को साहित्यकार अपने साधना-कक्ष के एकान्त में एक बार फिर से जीता है. और उस समय वह अपने अन्तर्मन में उसी तीखी वेदना से गुज़रता है, जिससे हर माँ को गुज़रना ही पड़ता है. इस तीखी वेदना की ही चरम उपलब्धि होती है एक नूतन कृति का जन्म. कलमकार के लिये पाठक के मन को छू पाना तभी मुमकिन है, जब उसकी यह वेदना घनीभूत, उसकी अभिव्यक्ति बोधगम्य, उसकी धार मारक और उसके सपने विराट होते हैं और वह अपने ‘स्व’ में जन-सामान्य की सम्वेदना को आत्मसात् कर चुका होता है.
शब्द-चयन का संकट लेखक के लिये सबसे विकट होता है. विषय-वस्तु की विविधता के अनुरूप शब्द-बन्ध गढ़ना कलमकार की विवशता होती है. सरल और सुबोध लेखन श्रेष्ठ माना जाता है. मगर बोधगम्य बनाने के चक्कर में सरलीकरण करते समय लेखन के सतही और अखबारी बन जाने का खतरा बराबर बना रहता है. जटिल सैद्धान्तिक अवधारणाओं को बोलचाल की भाषा में प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है.
प्रसव की वेदना की ही तरह विचारों की धारा का उद्भव भी एक बुद्बुद की तरह अचानक उठता है, शनैः-शनैः उभरता है, तीखा होता जाता है, फिर मद्धिम पड़ता है और अकस्मात् बन्द हो जाता है. भावभूमि की रचना के क्रम में मस्तिष्क-पटल पर पहले कुछ अस्फुट शब्द उभरते हैं. फिर कुछ वाक्य. और तब तक अचानक न जाने कहाँ से और कैसे सामने आ कर एक विराट शून्य कलम की धार को चट्टान की तरह रोक देता है. वेदना की तीव्रता असह्य हो उठती है. लेखक अब बिलबिलाता रहता है. उसे सूझता ही नहीं कि अब क्या और कैसे करे. कभी-कभी तो महज एक सटीक शब्द की ही तलाश दिल-दिमाग को मथ डालती है. बात में बात जोड़ना नामुमकिन लगने लगता है. हार मान कर कलम रख देनी पड़ती है. अब आवेग घनीभूत होता चला जाता है, बेचैनी बढ़ती चली जाती है. और अचानक शिला के सम्पुट के बीच से विस्फोट करता हुआ अंगारों की तरह दमकते हुए शब्दों का ज्वालामुखी फूट पड़ता है और विचारों के प्रवाह की नयी धारा के रूप में मन-मस्तिष्क को उजास, ऊर्जा और ऊष्मा से लबालब भर देता है. अचकचा कर भागता है लेखक अपने मेज़ की ओर, हडबड़ा कर उठाता है कलम और फिर क्या कहना! वह अब भूल जाता है सब कुछ. जल्दी से जल्दी समेट लेना चाहता है उन सभी शब्दों, वाक्यों, विचारों, प्रतीकों, बिम्बों और विवेचनाओं को जो-जो उसके पकड़ में आ पाते हैं. क्योंकि जो छूट गया, वह छूट गया.
कभी-कभी तो ऐसा भी हो जाता है कि लेख में हम कहना कुछ चाहते हैं, कहना कुछ और शुरू करते हैं और अन्त आते-आते कह कुछ का कुछ डालते हैं. और फिर जो बनाना चाहा था, उसकी जगह जो बन गया उसे काटने-छाँटने, सजाने-सँवारने, सुधारने-बदलने, जोड़ने-घटाने के बाद ‘लास्ट-टच’ देते-देते लेखक अपनी रचना के प्रति खुद ही अभिभूत हो जाता है. और तब अगर वह अहंकार की पतनकारी जकड़न से बच भी गया, तो भी उसे लोक की सेवा में विनम्रता से समर्पित करने के पश्चात् जब अपनी उस असामान्य भावभूमि से निकल कर सामान्य मनोदशा में वापस आ चुका होता है, तो अपनी खुद की ही कृति का पाठ करते समय उसे अचरज हो उठता है कि क्या वाकई इसे उसी ने लिखा है. महाकवि तुलसी साहित्यकार के इस तरह ‘आत्म-मुग्ध’ होने को इन शब्दों में बांधते हैं –
“निज कबित्त केहि लागि न नीका, सरस होउ अथवा अति फीका.”