Tuesday 1 January 2013

धारा के विरुद्ध जिन्दा मछली की कहानी - गिरिजेश


इन्कलाब ज़िन्दाबाद!
मेरे प्यारे दोस्त, दिन-रात मेरे दिल-ओ-दिमाग को मथने वाली एक कहानी मुझे अभी एक बार फिर से याद आ रही है. लीजिए, आप भी सुनिए. बचपन में हम सभी ने एक शिशु-गीत सुना था.
"मछली जल की रानी है, जीवन उसका पानी है;
हाथ लगाओगे डर जायेगी, बाहर निकालोगे मर जायेगी."
कहानी उसी मछली की है. मछली पानी में ही पैदा हुई थी. उसे पानी बहुत प्रिय था. पानी से अलग उसने अपने अस्तित्व की कल्पना भी न की थी. मछली जब छोटी थी, तो खूब खुश रहती थी. 

खेलती-कूदती, नाचती-गाती, उछलती-मचलती मछली धीरे-धीरे बड़ी होती गयी. मछली ने प्यार किया और खूब सारे अंडे दिये. उन नन्हे अण्डों से नन्हे-नन्हे, प्यारे-प्यारे ढेर सारे बच्चे बाहर आये. अब मछली का समूचा खुशहाल परिवार एक साथ तैरता था पानी में. 

मगर पानी में मछली ही तो नहीं थी. वहाँ आठ बाहों वाला, गोल-गोल आँखों वाला लालची और क्रूर ऑक्टोपस भी था. उसकी नज़र मछली और उसके बच्चों पर थी. उसने मछली के बच्चों को एक-एक कर के खाना शुरू किया. मासूम मछली पहले डर गयी, फिर रोने लगी, फिर क्षुब्ध हुई और फिर आखिरकार उसे गुस्सा आने लगा. 

उसने पानी से इन्साफ की गुहार लगायी. पानी बहुत बड़ा था. मगर उसका दिल मीठा नहीं खारा था. उसे अपने बड़े होने का अहंकार भी कम नहीं था. वह तनिक भी परेशान न हुआ, उसने मछली के आँसुओं को देख कर दुखी होने का ढोंग तो किया. मगर उसने ऑक्टोपस के अत्याचार के खिलाफ़ कुछ भी कर सकने में अपनी असमर्थता जतायी. 

पानी का ऐसा जवाब सुन कर भी मछली ने हार नही मानी. खूब सोचने के बाद मछली ने अब दूसरी सभी मछलियों को आवाज़ दी. सब ने एक स्वर से कहा -"हम सभी पूरा सच अच्छी तरह जानते हैं. ऑक्टोपस बारी-बारी से हम सब के बच्चों को खाता रहा है. जब हम अपने खुद के बच्चों को बचाने के लिये कुछ नहीं कर सकीं, तो तुम्हारे बच्चों के लिये इन्साफ कैसे जुटा सकती हैं!" 

पराजयबोध की ग्लानि में डूबी दूसरी मछलियों के इस नपुंसक जवाब से हताश हो कर विद्रोहिणी मछली ने फिर से पानी का दरवाज़ा खटखटाया. उसने अब आखिरी बार ज़ोर-ज़ोर से इन्साफ के लिये माँग की. पानी झल्लाता हुआ घर से बाहर निकला. अब उसका आराम-हराम हो चुका था. गुस्से से पागल हो चुकने पर उसका मत्था फिर गया था. लाल-लाल आँखों से मछली को घूरते हुए पानी का दो-टूक जवाब मछली के कानों से टकराया - "मैं जलनिधि हूँ. और तुम मेरी इकलौती बेटी नहीं हो. ऑक्टोपस भी मेरा ही बेटा है. और यह मेरा ही 'मत्स्य-न्याय' है, जिसके चलते हर छोटी मछली को बड़ी मछली खाती ही है." 

निष्ठुर सागर का दो-टूक जवाब सुन कर बेचारी मछली का मन मर गया. अपने सबसे बड़े होने के घमण्ड में डूबे सागर को इन्साफ माँगती मछली पर तनिक भी रहम नहीं आया. उसने अपने अहंकार में ज्वार की ज़बरदस्त उछाल ली. अब मछली का सागर से भी मोह-भंग हो चुका था. ज्वार की ऊँची उछलती लहरों ने पूरी क्रूरता के साथ विद्रोहिणी मछली को किनारे की चट्टानों पर उठा कर पटक दिया. 

कठोर चट्टानों पर गिरी मछली की हड्डियाँ चूर-चूर हो गयीं. खून से लथपथ मछली छटपटा रही थी. अब वह जिन्दा रह भी नही सकती थी और जिन्दा रहना भी नहीं चाहती थी. मरती हुई मछली को अपने नन्हे बच्चों की ऑक्टोपस द्वारा की गयी ह्त्याएं याद आ रही थीं. धरती और आकाश दोनों ही विद्रोहिणी मछली की ठण्डी मौत के गवाह थे. 

मछली अब मरना ही चाहती थी. उसकी आंसुओं से डबडबायी आँखों में केवल एक ही सपना था - "काश, इस समूचे सागर का खारा पानी किसी तरह मीठा हो जाता! काश, उसके मीठे पानी में कोई ऑक्टोपस न होता! काश, अब किसी नन्हे बच्चे की मासूम खुशियों को इतनी बेरहमी से लीला न जाता! काश, काश, काश, इन्साफ केवल एक खोखला शब्द न रह जाता, तो जिन्दगी कितनी खूबसूरत होती!" 

मरती हुई मछली ने धरती और आकाश की ओर मुँह करके ज़ोर से चिल्ला कर कहा - "तुम सब ने मेरे बच्चों को मरते देखा है. और अब आज तो मैं भी इन्साफ की लड़ाई में हार जाने पर मर रही हूँ. मगर मैं फिर आऊंगी और उस खारे सागर के क्रूर न्याय को बदल दूंगी, तब मैं केवल एक अकेली मासूम मछली नहीं रहूंगी. सभी जिन्दा ज़मीर वाले लोग मेरे साथ होंगे. और फिर वह सपनीली दुनिया गढी जायेगी. जिसमे प्यार आजादी के साथ परवान चढेगा." 

धरती और आकाश दोनों के मुँह से ईमान का केवल एक शब्द निकला, जिसे इतिहास के पन्नों ने अगली पीढ़ियों के जिन्दा ज़मीर वाले लोगों के बच्चों को पढ़ाने के लिये अपनी कोख में छिपा लिया और वह था "आमीन!". मर रही मछली को अब केवल अपने बच्चों की किलकारियां याद आ रही थी और उसने पूरे सुकून से अपनी आँखें बन्द कर लीं. इस तरह शहीद हुई मछली ने दुनिया को अलविदा कहा.

क्या उस मछली को न्याय मिलेगा? कौन करेगा इन्साफ? 
सोचिए मेरे दोस्त, सोचिए! कीजिए मेरे दोस्त, कुछ कीजिए!


इन्कलाब ज़िन्दाबाद!

इसी सन्दर्भ में पठनीय हैं ये दो गीत :
बाज का गीत : गोर्की की कलम : 'आह्वान' का सौजन्य
 
1
“ऊँचे पहाड़ों पर एक साँप रेंग रहा था, एक सीलनभरे दर्रे में जाकर उसने कुण्डली मारी और समुद्र की ओर देखने लगा।
“ऊँचे आसमान में सूरज चमक रहा था, पहाड़ों की गर्म साँस आसमान में उठ रही थी और नीचे लहरें चट्टानों से टकरा रही थीं…
“दर्रे के बीच से, अँधेरे और धुन्ध में लिपटी एक नदी तेज़ी से बह रही थी – समुद्र से मिलने की उतावली में राह के पत्थरों को उलटती-पलटती…
“झागों का ताज पहने, सप़फ़ेद और शक्तिशाली, वह चट्टानों को काटती, गुस्से में उबलती-उफनती, गरज के साथ समुद्र में छलांग मार रही थी।
“अचानक उसी दर्रे में, जहाँ साँप कुण्डली मारे पड़ा था, एक बाज, जिसके पंख ख़ून से लथपथ थे और जिसके सीने में एक घाव था, आकाश से वहाँ आ गिरा…
“धरती से टकराते ही उसके मुँह से एक चीख़ निकली और वह हताशापूर्ण क्रोध में चट्टान पर छाती पटकने लगा…
“सांप डर गया, तेज़ी से रेंगता हुआ भागा, लेकिन शीघ्र ही समझ गया कि पक्षी पल-दो पल का मेहमान है।
“सो रेंगकर वह घायल पक्षी के पास लौटा और उसने उसके मुँह के पास फुँकार छोड़ी -
“मर रहे हो क्या?”
“हां मर रहा हूँ!”
गहरी उसाँस लेते हुए बाज ने जवाब दिया।
‘ख़ूब जीवन बिताया है मैंने!…बहुत सुख देखा है मैंने!…जमकर लड़ाइयाँ लड़ी हैं!…आकाश की ऊँचाइयाँ नापी हैं मैंने…
तुम उसे कभी इतने निकट से नहीं देख सकोगे!…तुम बेचारे!’

आकाश?
वह क्या है?
निरा शून्य…
मैं वहाँ कैसे रेंग सकता हूँ?
मैं यहाँ बहुत मज़े में हूँ…
गरमाहट भी है और नमी भी!’

“इस प्रकार साँप ने आज़ाद पंछी को जवाब दिया और मन ही मन बाज की बेतुकी बात पर हँसा।

“और उसने अपने मन में सोचा –
‘चाहे रेंगो, चाहे उड़ो, अन्त सबका एक ही है –
सबको इसी धरती पर मरना है, धूल बनना है।’

“मगर निर्भीक बाज़ ने एकाएक पंख फडप़फ़ड़ाये और दर्रे पर नज़र डाली।
“भूरी चट्टानों से पानी रिस रहा था और अँधेरे दर्रे में घुटन और सड़ान्ध थी।
“बाज़ ने अपनी समूची शक्ति बटोरी और तड़प तथा वेदना से चीख़ उठा -

“काश, एक बार फिर आकाश में उड़ सकता!
…दुश्मन को भींच लेता
…अपने सीने के घावों के साथ
…मेरे रक्त की धारा से उसका दम घुट जाता!
…ओह, कितना सुख है संघर्ष में!’…

“सांप ने अब सोचा –
‘अगर वह इतनी वेदना से चीख़ रहा है, तो आकाश में रहना वास्तव में ही इतना अच्छा होगा!’

“और उसने आज़ादी के प्रेमी बाज से कहा –
‘रेंगकर चोटी के सिरे पर आ जाओ और लुढ़ककर नीचे गिरो।
शायद तुम्हारे पंख अब भी काम दे जायें और तुम अपने अभ्यस्त आकाश में कुछ क्षण और जी लो।’

“बाज़ सिहरा, उसके मुँह से गर्व भरी हुँकार निकली और काई जमी चट्टान पर पंजों के बल फिसलते हुए वह कगार की ओर बढ़ा।
“कगार पर पहुँचकर उसने अपने पंख फैला दिये, गहरी साँस ली और आँखों से एक चमक-सी छोड़ता हुआ शून्य में कूद गया।
“और ख़ुद भी पत्थर-सा बना बाज चट्टानों पर लुढ़कता हुआ तेज़ी से नीचे गिरने लगा, उसके पंख टूट रहे थे, रोयें बिखर रहे थे…
“नदी ने उसे लपक लिया, उसका रक्त धोकर झागों में उसे लपेटा और उसे दूर समुद्र में बहा ले गयी।
“और समुद्र की लहरें, शोक से सिर धुनती, चट्टान की सतह से टकरा रही थीं…पक्षी की लाश समुद्र के व्यापक विस्तारों में ओझल हो गयी थी…

2
“कुण्डली मारे साँप, बहुत देर तक दर्रे में पड़ा हुआ सोचता रहा –
पक्षी की मौत के बारे में, आकाश के प्रति उसके प्रेम के बारे में।
“उसने उस विस्तार में आँखें जमा दीं जो निरन्तर सुख के सपने से आँखों को सहलाता है।
“‘क्या देखा उसने – उस मृत बाज़ ने –
इस शून्य में, इस अन्तहीन आकाश में?
क्यों उसके जैसे आकाश में उड़ान भरने के अपने प्रेम से दूसरों की आत्मा को परेशान करते हैं?
क्या पाते हैं वे आकाश में?
मैं भी तो, बेशक थोड़ा-सा उड़कर ही, यह जान सकता हूँ।’

“उसने ऐसा सोचा और कर डाला।
कसकर कुण्डली मारी, हवा में उछला और सूरज की धूप में एक काली धारी-सी कौंध गयी।
“जो धरती पर रेंगने के लिए जन्मे हैं, वे उड़ नहीं सकते!
…इसे भूलकर साँप नीचे चट्टानों पर जा गिरा, लेकिन गिरकर मरा नहीं और हँसा -

“‘सो यही है आकाश में उड़ने का आनन्द!
नीचे गिरने में!…हास्यास्पद पक्षी!
जिस धरती को वे नहीं जानते,
उस पर ऊबकर आकाश में चढ़ते हैं और उसके स्पन्दित विस्तारों में ख़ुशी खोजते हैं। लेकिन वहाँ तो केवल शून्य है।
प्रकाश तो बहुत है,
लेकिन वहाँ न तो खाने को कुछ है और न शरीर को सहारा देने के लिए ही कोई चीज़। तब फिर इतना गर्व किसलिए?
धिक्कार-तिरस्कार क्यों?
दुनिया की नज़रों से अपनी पागल आकांक्षाओं को छिपाने के लिए,
जीवन के व्यापार में अपनी विफलता पर पर्दा डालने के लिए ही न?
हास्यास्पद पक्षी!
…तुम्हारे शब्द मुझे फिर कभी धोखा नहीं दे सकते!
अब मुझे सारा भेद मालूम है!
मैंने आकाश को देख लिया है…उसमें उड़ लिया,
मैंने उसको नाप लिया और गिरकर भी देख लिया,
हालाँकि मैं गिरकर मरा नहीं,
उल्टे अपने में मेरा विश्वास अब और भी दृढ़ हो गया है।
बेशक वे अपने भ्रमों में डूबे रहें, वे, जो धरती को प्यार नहीं करते।
मैंने सत्य का पता लगा लिया है।
पक्षियों की ललकार अब कभी मुझ पर असर नहीं करेगी।
मैं धरती से जन्मा हूँ और धरती का ही हूँ।’

“ऐसा कहकर, वह एक पत्थर पर गर्व से कुण्डली मारकर जम गया।

“सागर, चौंधिया देने वाले प्रकाश का पुंज बना चमचमा रहा था और लहरें पूरे ज़ोर-शोर से तट से टकरा रही थीं।
“उनकी सिह जैसी गरज में गर्वीले पक्षी का गीत गूँज रहा था। चट्टानें काँप रही थीं समुद्र के आघातों से और आसमान काँप रहा था दिलेरी के गीत से -

‘साहस के उन्मादियों की हम गौरव-गाथा गाते हैं! गाते हैं उनके यश का गीत!’

‘साहस का उन्माद-यही है जीवन का मूलमन्त्र ओह, दिलेर बाज!
दुश्मन से लड़कर तूने रक्त बहाया…
लेकिन वह समय आयेगा
जब तेरा यह रक्त
जीवन के अन्धकार में चिनगारी बनकर चमकेगा और
अनेक साहसी हृदयों को आज़ादी तथा प्रकाश के उन्माद से अनुप्राणित करेगा!’

‘बेशक तू मर गया!…
लेकिन दिल के दिलेरों और बहादुरों के गीतों में तू सदा जीवित रहेगा,
आज़ादी और प्रकाश के लिए संघर्ष की गर्वीली ललकार बनकर गूँजता रहेगा!’

“हम साहस के उन्मादियों का गौरव-गान गाते हैं!”
http://ahwanmag.com/baaz-ka-geet-Maxim Gorky


Kavita Krishnapallavi - -: गरुड़ की उड़ान :-
"बौद्धिक विमर्श के आँगन में घरेलू मुर्गियों ने काफ़ी चीख-पुकार मचा रखी है।
पर्वतीय गरुड़ शत्रु से जूझते हुए लहूलहुान, घायल, एक चट्टान पर पंख फैलाये पड़ा है।
वह शत्रु के हाथों पाये जख्‍़मों से अधिक आने वाले दिनों के अभियानों और संघर्षों के बारे में सोच रहा है।
शायद वह स्‍वस्‍थ होकर फिर से आकाश की ऊँचाइयों को चूमने के बारे में सोच रहा है।
शायद वह अपने बच्‍चों के बड़े होकर शत्रुओं से जूझने के भविष्‍य-स्‍वप्‍नों में डूबा हुआ है।
आँगन की कुछ मुर्गियाँ उसके पागलपन पर हँस रही हैं...
क्‍या फ़ायदा इसतरह के जोखिम उठाने में, यह भी भला जीने का कोई तरीक़ा है, मौत के ख़तरों और अनिश्‍चय से भरा हुआ!!
कुछ मुर्गियाँ आसमान में उड़ने के ही विरुद्ध हैं।
कुछ सीमित ऊँचाई और सीमित दायरे का आसमान चुनकर उड़ने के पक्ष में हैं।
कुछ गारण्‍टीशुदा सुरक्षित उड़ानों और बिना कोई जोखिम लिये शत्रु पर फ़तह हासिल करने की तरक़ीब खोज निकालने का दावा कर रही हैं।
कुछ का कहना है कि अब समय वैसी उड़ानों और युद्धों का नहीं रहा।
कुछ का कहना है कि फिलहाल ऐसी चीज़ें मुमकिन नहीं।
कुछ का कहना है कि पर्यावरणीय परिवर्तनों के कारण जल्‍दी ही पर्वतीय गरुड़ विलुप्‍त हो जायेंगे।
फिर ज़माना सिर्फ़ आँगन की मुर्गियों का, बत्‍तखों, बुलबुलों, बटेरों और पण्‍डूकों का होगा।
विमर्श लगातार जारी है।
सेमिनार-सिम्‍पोजियम-कोलोक़ियम हो रहे हैं।
पुस्‍तकालयों में बस मुर्गियों की कुड़क-कुड़क ही सुनाई दे रही है।
पर्वतीय गरुड़ पुरानी चोटों से उबर कर नयी ओजस्विता और तूफ़ानी वेग के साथ फिर से शत्रु पर टूट पड़ने के संकल्‍प बाँध रहा है।
- कविता कृष्‍णपल्‍लवी


1 comment:

  1. मेरे प्यारे दोस्त Dr. Salman Arshad सलमान भाई, मुझे नहीं मालूम कि इस मछली को किन अँगुलियों ने कागज़ पर उकेरा. मगर मैं उसे सलाम कर रहा हूँ और मुझे उसकी प्रतिभा पर गर्व है. उस तक मेरी यह कहानी पहुँचाने की कोशिश कीजियेगा. यह आज मैं उसी अनजान चित्रकार को अर्पित कर रहा हूँ. बच्चों की दुनिया में आपके पैरों की धमक यूँ ही कमाल करने वालों को रौशनी के घेरे तक पहुँचाती रहे - दुआ कर रहा हूँ.

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