प्रिय मित्र, 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' की द्वितीय मासिक प्रतियोगिता - 'शुद्द एवं धाराप्रवाह हिन्दी पढ़ने की प्रतियोगिता' में प्रतिभागियों को इस कहानी के अंश पढ़ने को दिये गये थे. आप से भी इसे पढ़ने का अनुरोध करते हुए 'ईश्वर के अस्तित्व और उसकी सत्ता' पर प्रश्न-चिह्न लगाने का दुस्साहस कर रहा हूँ.
'अनुत्तरित प्रश्न' - प्रो0 प्रभुनाथ सिंह ‘मयंक’
आचार्य वाचस्पति ने तुंगभद्र पर्वत पर रमणीक आश्रम स्थापित किया था। उस पर्वत पर हरी वनस्पतियों, रंग-बिरंगे फूलों तथा कल-कल निनाद से संगीत की लयात्मक राग-रागिनियों को जीवन्त करने वाले पाश्र्ववर्ती झरनों की शोभा देखते ही बनती थी। इस आश्रम के चतुर्दिक् परिवेश में प्रकृति ने मनोहारी शृंगार कर रखा था। आश्रम के अन्दर विशाल वटवृक्ष, देवदारु, साखू और सागौन के गगन-चुम्बी वृक्षों पर पक्षियों ने बसेरा किया था। जब वे आनन्द-विह्नल होकर उषा के आगमन के पूर्व ही लयात्मक कलरव करने लगते थे, तो आश्रम का वातावरण जागरण की पावन ऋचाओं और उदयपूर्व प्रकाश की लालिमा से प्राची क्षितिज को रंजित करके अद्वितीय सुषमा की सृष्टि कर देता था। प्रातर्विधि के प्श्चात् यज्ञ की वेदियों से ज्वलन्त अरणियों की अर्चियाँ वैदिक मन्त्रों की पवित्र ध्वनियों के साथ आर्ष वातावरण की चमत्कारमयी रचना कर देती थीं। शिव-मन्दिर के अन्दर रुद्राष्टाध्यायी का छान्दस पाठ साधकों के मन को अतीन्द्रिय लोक में प्रतिष्ठित कर देता था। वेद, पुराण, महाकाव्य, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, प्रातिशाख्य, ज्योतिष, दर्शन, आन्वीक्षिकी विद्या, यन्त्र-तन्त्र, अर्थशास्त्र, कला, सौन्दर्य-शास्त्र और पराविद्या का अध्यापन सुदूर क्षितिजों तक आश्रम की गरिमा का सम्वर्धन करता था। इस आश्रम में राजधर्म, आयुर्वेद, धनुर्वेद और नीतिशास्त्र का विधिवत् शिक्षण और अभ्यास किया जाता था। आचार्य वाचस्पति अपरा विद्या के साथ ही पराविद्या के भी निष्णात पण्डित थे। प्रकृति के सुरम्य वातावरण में स्थापित इस आश्रम के अन्दर वट, अश्वत्थ, शाल्मली, प्लक्ष, औदुम्बर और आम्र के छायादार वृक्षों के तलमूल में चैडे़, स्वच्छ, समतल चबूतरे बने हुए थे, जो आचार्यश्री के द्वारा किये जाने वाले अध्यापन के समय आसन्दी का काम करते थे। आचार्य वाचस्पति विभिन्न विषयों का अध्यापन अलग-अलग चबूतरों पर आसीन होकर मनोहारी रीति से किया करते थे। उनके शिष्यगण अनुशासन और तप की कठोर मर्यादाओं का पूर्ण समर्पण और विनय के साथ अनुपालन किया करते थे। आचार्य वाचस्पति के ही समान गौरांग शरीरधारी वटु पीताम्बर में आवृत होकर अपने हृष्ट-पुष्ट, स्वस्थ, रक्ताभ, मांसल अंगों के द्वारा सौन्दर्य की किरणों का प्रसार किया करते थे। प्रातः, मध्याह्न और सायं संध्याओं का नियमपूर्वक निर्वाह होता था।
एक दिन आचार्य वाचस्पति अध्यापन के समय यह बता रहे थे कि ईश्वर सभी जीवों का पिता, रक्षक और पोषक है। उसकी सृष्टि में सभी जीव समान महत्त्व के हैं। ऊँच-नीच के भेद-भाव मनुष्यकृत हैं। प्रेम, सत्य, अहिंसा, शान्ति, आनन्द, परस्पर सहयोग और समता पर आधारित व्यवहार परमात्मा की बहुमूल्य निधियाँ हैं, जो प्राणियों के लिये प्रदान की गयी हैं। परमात्मा ने रत्नों और जीवधारियों से भरा-पूरा उछलता हुआ समुद्र बना दिया। पोषण, कर्म और निवास के लिये धरती का आधार दिया। उसी ने प्यास बुझाने के लिये जल की व्यवस्था की। उसने वायु की गति और स्पर्श-शक्ति में आनन्द का संचार किया, हिम की शीतलता से जीवों की रक्षा करने तथा प्राणमयी तेजस्विता और ज्योतिर्मयी जीवन-धारा प्रवाहित करने के लिये अग्नि और सूर्य की रचना की। उसी परमपिता ने मुक्त रूप से उड़ान भरने के लिये अनन्त आकाश की सृष्टि की। ईश्वर सबका स्वामी है। उसकी उदारता वर्णनातीत है। आचार्य वाचस्पति ने अपना उपदेश पूरा किया और वे अपने विश्राम-कक्ष में चले गये। उनके आश्रम के अन्तेवासी उनके द्वारा दिये गये उपदेशों का निरीक्षण और मूल्यांकन करने हेतु उन्हीं के आदेश से अलग-अलग दिशाओं में प्रकीर्ण हो गये।
उनका एक शिष्य पदयात्रा करते-करते सागर के तट पर पहुँचा। वह तट पर स्थित होकर इस चिन्तन में डूब गया कि आचार्यश्री ने जो जीवन का पाठ पढ़ाया है, उसकी सत्यता अवश्य ही परखने योग्य है। जब उसने सागर के जल के अन्दर दृष्टि डाली, तो देखा कि बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को निगल रही हैं। विशाल जल-जन्तु दुर्बल जल-जन्तुओं का शिकार कर रहे हैं, प्रचण्ड शक्तिमान् जलहस्ती लाचार जलजन्तुओं को अपनी मारक शुण्डिकाओं में जकड़ कर मृत्यु के निर्मम राज्य में भेज रहे हैं, किन्तु सागर अपनी ही निरीह सन्तानों की रक्षा करने में असमर्थ होकर अपनी उच्छल तरंगों के द्वारा अपना उद्वेग व्यक्त कर रहा है, मानो वह पुकार रहा है कि यदि जीवों का कोई समर्थ स्वामी है, तो वह इन असहाय और निर्बल जल-जन्तुओं की रक्षा क्यों नहीं करता? वह विद्यार्थी इस बात पर भी विचार कर रहा था कि प्रलयकाल में यह विशाल सागर क्रोधातुर होकर धरती के समूचे जीवन-विस्तार को क्यों निगल जाता है?
आचार्यश्री का दूसरा शिष्य हरी-भरी पर्वतीय उपत्यकाओं में दूर-दूर तक प्रकृति की मनोहारी सुषमा निहार रहा था। वह यह चिन्तन कर रहा था कि उड़ने वाले ये पक्षी कितने स्वतन्त्र हैं, जो पीड़ामयी धरती से आकाश की ऊँचाइयों में पहुँच कर निद्र्वन्द्व आनन्द की अनुभूति करते हैं। मनुष्यों से भले तो ये पक्षी ही हैं, जो बन्धनमुक्त हैं। चिन्तन के उन्हीं क्षणों में जब उसने आकाश की ओर हंसों के झुण्ड पर दृष्टि डाली, तो वह उनके सौन्दर्य पर मुग्ध हो गया, किन्तु हंसों का झुण्ड उत्तुंग शिखरों के ऊपर आकाश में उड़ता हुआ अन्यत्र प्रवास करने की कामना लेकर लम्बी यात्रा पर जा रहा था। इतने में हंस का एक मासूम बच्चा पंखों में अपेक्षित शक्ति न होने के कारण उड़ान की वेला में थककर लड़खड़ाते-लड़खड़ाते अपने माता-पिता और भाइयों के झुण्ड से बिछड़ गया। उसी समय घात लगाकर उड़ने वाला परम शक्तिमान् हिंसक बाज पक्षी उसके समीप पहुँचा और उसने हंस के निरीह बच्चे को अपने चंगुल में दबोच लिया और इस असहाय स्थिति में हंस का अनाथ बच्चा मर गया।
आचार्य के तीसरे शिष्य के मन में हिरनों के सौन्दर्य का अवलोकन करने की बलवती इच्छा जागृत हो गयी। वह धीरे-धीरे हरे-भरे जंगल की ओर अग्रसर होता जा रहा था। इतने में चितकबरे, सुनहरे और श्याम रंग वाले हिरनों का झुण्ड कुलाँचंे भरता हुआ, अनेक प्रकार की केलियों का प्रदर्शन करता हुआ निश्चिन्त रूप से दौड़ रहा था। यह झुण्ड दौड़ते-दौड़ते थक गया। हिरनों को प्यास बुझाने के लिये जल की आवश्यकता थी। हिरन और हिरनियों की टोलियाँ अपने बच्चों के प्रति स्नेह का प्रदर्शन कर रही थीं। उन्हें जल से भरी हुई एक नदी दिखायी पड़ी। वह झुण्ड जब नदी के तट पर पहुँच कर जल पीने और नहाने के लिये नदी में उतरा, तो उसी समय अचानक कालरूप एक विशाल मगरमच्छ ने एक हिरन को अपने जबड़ों में कस लिया और वह अपनी भूख मिटाने के लिये उसे जल के भीतर खींच ले गया। मृत्यु-स्वरूप मगरमच्छ से जान बचाने के लिये शेष हिरनों का झुण्ड जब जंगल की ओर भाग रहा था, उसी समय अपनी प्यास बुझाने के लिये जलाशय के समीप पहुँचे हुए सिंहों और बाघों ने दौड़ा-दौड़ा कर कई हिरनों का हृदय-विदारक वध करके उनका रक्त पी लिया और वे उन्हें खा गये।
चौथा शिष्य जब घनी वनानियों का सौन्दर्य निहारते हुए आगे बढ़ रहा था, तो उसने देखा कि वृक्ष की शाखा पर लटका हुआ विशाल अजगर एक वन्य पशु को अपनी प्राणान्तक जकड़ में कस कर निगलता जा रहा था।
आश्रम में आचार्यश्री के द्वारा प्राप्त की गयी शिक्षा और ज्ञान को व्यावहारिक रूप में प्रमाणित करने के लिये जो शिष्य आश्रम के परिसर से बाहर गये थे, वे आश्रम में लौट आये। सायं संध्या की विधि पूर्ण करने के पश्चात् उन चारों शिष्यों ने अलग-अलग ढंग से आचार्य वाचस्पति के सम्मुख अपने प्रत्यक्ष सांसारिक अनुभव सुनाये और समवेत स्वर में चारों शिष्यों ने श्रद्धेय आचार्य से प्रश्न किया - "हे आचार्य! क्या शास्त्र और लोक किसी बिन्दु पर एक हैं, अथवा सत्य के धरातल पर अलग-अलग हैं? आपने तो प्रेम, अहिंसा, रक्षण और परस्पर सहयोग से सम्बन्धित गुणों की चर्चा की थी और यह बताया था कि ईश्वर सबका रक्षक है, किन्तु लोक-व्यवहार और उपदेश में इतना बड़ा अन्तर क्यों है?"
आचार्य वाचस्पति शिष्यों के प्रश्न सुनकर आत्म-चिन्तन में डूब गये। उन्होंने कहा - "हे वत्स! विधाता ने अपनी सृष्टि में गुण और अवगुण - दोनांे को मिश्रित कर दिया है। उनकी प्रकृति में सत्त्व, रज और तम - तीनों गुणों की अनिवार्य सत्ता है। हिंसा, असत्य, चोरी, मिथ्यावाद, ठगी, भोगवाद और अहंता टिकाऊ तत्त्व नहीं हैं। इस संघर्षमय जीवन में सत्य, अहिंसा, प्रेम, उपकार, सेवा, क्षमाशीलता, इन्द्रिय-निग्रह और बुद्धिमत्ता ही सत्त्व गुण के स्थिर आधार हैं। जिन लोगों ने इन्हें अपने जीवन में सिद्ध कर लिया, वे जीवन-मुक्त हो गये। उन्होंने ही प्रेरक इतिहास की रचना की। तुम लोग भी उसी सत्त्व गुण को अपने जीवन का आधार बनाओ, कल्याणार्थ योजनाओं को क्रियान्वित करो। परमात्मा तुम्हारे भीतर नैतिकता, गुणवत्ता और आदर्श की शक्ति बन कर तुम्हारा मार्ग-दर्शन करेगा।"
आचार्यश्री ने शिष्यों को विभिन्न दृष्टान्तों के द्वारा उनके प्रश्नों का उत्तर तो दे दिया, किन्तु वे प्रश्न आज भी उत्तर चाहते हैं। धार्मिक और आध्यात्मिक मार्गों पर चलने वाले असंख्य जन जीवन के वे समाधानकारी उत्तर सदियों से ढूँढ़ रहे हैं, किन्तु क्या समाधान का सर्वमंगलकारी, सर्वरक्षक, समतावादी समय उन अनुत्तरित प्रश्नों की प्यास बुझा सकेगा? आचार्य वाचस्पति क्षण-भंगुर जीवन के सच और जंगल-कानून पर आधारित असुरक्षित जीवों की समस्याओं के समाधान का मार्ग ढूढ़ रहे थे। वे इस बात पर भी गम्भीरतापूर्वक विचार कर रहे थे कि कपिल, कणाद, पतंजलि, अक्षपाद गौतम, वर्धमान महावीर, गौतम बुद्ध, चार्वाक और अन्य जड़वादी आचार्य किन कठोर, सत्याधारित, अनुभवसिद्ध परिस्थितियों में नास्तिक हो गये और उन्होंने निर्ममतापूर्वक ईश्वर की सत्ता को ही नकार दिया। इस संसार में वधिक, आतंकी निर्ममतापूर्वक जीवों का वध करते हैं, लूट-पाट करते हैं, अग्निकाण्ड के माध्यम से कला-विज्ञान की बहुमूल्य वस्तुओं और संस्कृतियों के अभिज्ञान को राख कर देते हैं। यहाँ कोई भी प्राणी सुरक्षित नहीं है। रक्तपात और विध्वंस का ताण्डव निर्बन्ध रूप से अनवरत जारी है। असुरत्व गर्जन कर रहा है। समरसता और आनन्द आतंक-कम्पित हैं।
आचार्य ने शिष्यों से आगे कहा - "तुम्हारे प्रश्नों का सटीक उत्तर तो समय ही देगा। मैं यथार्थ और आदर्श, प्रकृतिवाद और वेदान्त के सन्तुलन-बिन्दुओं के उस समाहित समरस काल को प्रणाम करने के लिये प्रतीक्षा करूँगा। जाओ, विश्राम का समय हो चुका है। कल प्रतिदिन की भाँति अभीष्ट समाधानों का सूर्य उगेगा।''
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शब्दार्थ:- वाचस्पति - ब्रह्मा, तुंगभद्र - ऊँचा, मनोरम, रमणीक - सुन्दर, अर्चियाँ - लपटें, छान्दस - सस्वर, निरुक्त - व्युत्पत्ति युक्त अर्थ, प्रातिशाख्य - शिष्य-परम्परा, आन्वीक्षिकी विद्या - न्यायशास्त्र, यन्त्र-तन्त्र - टेक्नाॅलाॅजी, पराविद्या - ब्रह्मविद्या, अपराविद्या - जगद्विज्ञान, अश्वत्थ - पीपल, शाल्मली - सेमर, प्लक्ष - पाकड़, औदुम्बर - गूलर, आसन्दी - आसन, अन्तेवासी - छात्रावास में रहने वाले, प्रकीर्ण - बिखर, जलहस्ती - आॅक्टोपस, शुण्डिकाओं - सूँड़ों, उच्छल - उठती हुई, उद्वेग - वेदना, उपत्यकाओं - घाटियों, उत्तुंग - ऊँचे, कुलाँचें - उछलना-कूदना, केलियों - क्रीड़ाओं, वनानियों - वनों, परिसर - चहारदीवारी, समवेत - एक साथ मिलकर, दृष्टान्तों-उदाहरणों, अनवरत-लगातार, अभीष्ट समाधानों-मनचाहे हल,
I am Vachaspati .. This post is very nice thx sir
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