Wednesday, 5 September 2012

आरक्षण की भीख नहीं, सबको शिक्षा सबको काम - गिरिजेश 13 सितम्बर 1994


प्रिय मित्र, आज आरक्षण का प्रश्न नये सिरे से बहस का मुद्दा बना है. इस बहस में सन्दर्भ के तौर पर प्रस्तुत है आरक्षण विरोधी आन्दोलन में राजीव गोस्वामी के आत्मदाह के बाद लिखा गया यह लेख. 

आरक्षण की भीख नहीं, सबको शिक्षा सबको काम
                 - गिरिजेश 13 सितम्बर 1994
आरक्षण विरोधी संघर्ष में जूझ रहे साथियो, संघर्ष का समर्थन करने वाली माताओ-बहनो और हम सब का मनोबल बढ़ाने वाले बुजु़र्गो, हम आप सब का क्रान्तिकारी अभिवादन करते हैं। आइए देखें कि कौन हैं हमारे शत्रु? किस हथियार के बल पर हमें ललकारने की वे एक बार फिर जु़र्रत कर बैठे हैं और हमारी लड़ाई का अन्तिम लक्ष्य क्या है?
हमारा संघर्ष क्यों?
हमारा संघर्ष जातिवाद के आधार पर छात्र-एकता को तोड़ने की मुलायम सिंह की घिनौनी साज़िश के विरुद्ध है। मुलायम सिंह की पार्टी का नाम तो समाजवादी है मगर विचारधारा जातिवादी। मुलायम गरीबों के नहीं, बल्कि शासक पूँजीपति वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधि हैं। आरक्षण देने वाले शासक वर्ग की मंशा आरक्षण पाने वालों की तरह साफ-सुथरी नहीं है। हमें अफसोस है कि मक्कार बन्दर और भोली बिल्लियों की कहानी से पाखण्डी राजनेताओं ने तो सबक लिया। मगर हमारे अपने वर्ग-बन्धु हमें अपना शत्रु और असली शत्रुओं को अपना हितचिन्तक मानने के झाँसे में फँस गये। डंकल विरोधी आन्दोलन को ठण्डी चुप्पी का शिकार बनाने वाला भारतीय शासक वर्ग आरक्षण रूपी गाजर का शंख फूँक कर जाति-संघर्ष को हवा देने की फ़िराक में है। वह रामनामी चादर ओढ़े जन-द्रोही है। आइए, उसका पर्दाफ़ाश करें और असलियत समझें।
मण्डल-आयोग क्यों लागू किया गया?
वी0 पी0 सिंह ने 7 अगस्त ’89 को मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू करने की घोषणा की। 9 अगस्त ’89 को होने वाली भूतपूर्व उपप्रधानमन्त्री देवी लाल की रैली के जवाब के तौर पर उनको अलगाव में डालने और सम्भावित मध्यावधि चुनाव की तैयारी के तौर पर जातिवादी चुनावी गणित के समीकरण हल करने के लिए उन्होंने इस घोषणा की तुरुप चाल चली थी। जातिगत आधार पर वोट-बैंक पर कब्ज़ा जमाने की आरक्षण भी एक घिनौनी साज़िश है।
आरक्षण का इतिहासः-
गाँधी-अम्बेदकर ‘पूना-पैक्ट’ में सबसे पहले आरक्षण की बात उभरी थी, जिसमें यह व्यवस्था थी कि आज़ादी के बाद हरिजनों को अलग से आरक्षण दिया जायेगा। संविधान की धारा 330, 332 तथा 335 द्वारा अनुसूचित जातियों को 15 प्रतिशत तथा अनुसूचित जनजातियों को 7.5 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। अम्बेदकर ने स्वयं अनुसूचित जनजातियों को 7.5 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। अम्बेदकर ने स्वयं 27 दिसम्बर 1955 के अपने भाषण में अछूतों को दिये गये राजनीतिक आरक्षण को समाप्त कर देने की वकालत की थी।
पिछड़ी जाति या पिछड़ा वर्गः-
पिछड़ा वर्ग तय करने के लिए संविधान-सभा में जो बहस हुई थी, उसमें पिछड़ा वर्ग तय करने में सामाजिक और आर्थिक आधार मानने की बात तय हुई थी न कि जातीय आधार। पिछड़ा वर्ग संविधान की धारा 15(4) और 16(4) में है तो, मगर इसकी परिभाषा कहीं नहीं की गयी है। संविधान की धारा 340 में पिछड़े वर्गों की दशा का पता लगाने के लिए आयोग नियुक्त करने की बात कही गयी। संविधान ने ‘पिछड़े वर्गों’ कहा है, न कि ‘पिछड़ी जातियों’ क्योंकि सभी जातियों में सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग हैं। इस काम के लिए 1952 में ‘काका कालेलकर आयोग’ बनाया गया। मगर धीरे-धीरे भारतीय राजनीति के क्षितिज पर जातिवाद के जहरीले बादल फैलने लगे। कर्पूरी ठाकुर ने सबसे पहले ‘फ़ारवर्ड’ और ‘बैकवर्ड’ वार्डों में समाज का विभाजन किया।
मण्डल आयोग के पीछे की राजनीतिः-
1978 में जब मोरार जी देसाई और चैधरी चरण सिंह में खटकी, तो पिछड़ी जातियों के वोट-बैंक के सहारे राजनीति करने वाले एक कुलक - चैधरी चरण सिंह - की काट करने के लिए मोरार जी ने दूसरे कुलक - बी0 पी0 मण्डल - की अध्यक्षता में 20 दिसम्बर 1978 को आयोग बना डाला। जब यह आयोग गठित हुआ था, तब भी व्यापक हिंसा भड़की थी। इसीलिए जब 12 दिसम्बर 1980 को आयोग ने अपनी रिपोर्ट पेश की, तो उसे ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया। तब तक इन्दिरा गाँधी की सरकार दुबारा गद्दीनशीन हो चुकी थी। बाद में पिछड़ी जातियों की राजनीति के तत्कालीन पुरोधा चैधरी देवी लाल को सबक सिखाने के लिए वी0 पी0 सिंह ने धूल खाती रपट को चुपके से रातों-रात मन्ज़ूर कर लिया, जिसका भीषण परिणाम व्यापक आत्मदाह के रूप में प्रकट हुआ।
मण्डल आयोग की रिपोर्ट क्या है?
मण्डल आयोग ने सिफ़ारिश की है कि सरकारी, सार्वजनिक क्षेत्र, राष्ट्रीकृत बैंकों, सभी विश्वविद्यालयों, उनसे सम्बद्ध कालेजों और किसी भी रूप में सरकारी सहायता पाने वाले निजी क्षेत्र के प्रतिष्ठानों की नौकरियों में 3740 पिछड़ी जातियों को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाये। पिछड़ी जातियों को शिक्षा सम्बन्धी रियायतें भी दी जायें, ताकि वे उच्च शिक्षा प्राप्त कर के ऊँची नौकरियों के हकदार बन सकें। व्यापार और उद्योग में एक पृथक ‘नेटवर्क’ खड़ा किया जाये। साथ ही अपनी योग्यता के आधार पर चुने गये पिछड़ी जाति के उम्मीदवारों को आरक्षित कोटे में नहीं माना जाये।
बी0 पी0 मण्डल की सोचः-
बिन्देष्वरी प्रसाद मण्डल अहीर जाति के एक हजार बीघे जमीन के मालिक, ज़मींदार, मुख्यमन्त्री थे। उन्होंने वर्ग का आधार ‘एकमात्र जाति’ को माना है। जाति और वर्ग के अन्तर की उनके द्वारा जानबूझ कर की गयी इस उपेक्षा के पीछे उनकी आत्मनिष्ठ, स्वार्थपरक, संविधानविरोधी, अव्यावहारिक सोच है। वे समन्वयवादी नहीं अपितु उग्र जातिवादी थे। उन्होने 1931 की जनगणना को विगत पचास वर्षों के विकास को अनदेखा करके 1980 का यथार्थ कहने का दुराग्रह किया। वे समाज-वैज्ञानिक नहीं थे, इसीलिए सतत गतिमान, परिवर्तनशील और विकासमान भारतीय समाज को जड़ समझ बैठे।
मध्य जातियों के कुलकों की लाबीः-
आम तौर से ज़मींदारी उन्मूलन के बाद से और ख़ास कर साठ के दशक के बाद से मध्य जातियों के बीच से एक लाबी उभरी है। उसका भूमि पर मालिकाना अधिकार बढ़ता गया है। भूमि के मुख्य ख़रीददार यही लोग रहे हैं। इन्होने नवधनवान कुलक किसानों का वर्ग बनाया है। ये राजनीतिक लाॅबी के रूप में संगठित हुए हैं। इनकी भूख सत्ता में और अधिकारों में और भी बड़ा टुकड़ा चाहती है। ‘मण्डल आयोग’ इसी लाॅबी की महत्वाकांक्षा का संकेन्द्रित रूप से प्रतिनिधित्व करता है। इसके उत्थान को स्वीकारते हुए वी0 पी0 सिंह कहते हैं - ‘‘हरित क्रान्ति से ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक शक्ति के नये केन्द्र कायम हो गये हैं। किन्तु इनको राजनीतिक शक्ति के रूप में बदलने से रोका जा रहा है।’’ शरद यादव इसके प्रवक्ता के रूप में स्पष्ट घोषणा करते हैं - ‘‘यह अमीरी-ग़रीबी का सवाल नहीं है। पिछड़ी जातियों को सत्ता में भागीदारी चाहिए।’’
क्या यह न्याय है?
मण्डल आयोग ने पाँच ऐसी जातियों को इस समूह में शामिल किया है, जो 1931 में कुल जनसंख्या का बीस प्रतिशत थीं। और इतिहास साक्षी है कि उनके लोग कभी भी पिछड़े नहीं थे। क्या यादव और कुर्मी अछूत थे? क्या वे अन्त्यजों और शूद्रों के समान निम्न आर्थिक और सामाजिक स्तर वाले रहे हैं? ‘अखिल भारतीय यादव महासभा’ और ‘अखिल भारतीय कूर्मवंशीय क्षत्रिय महासभा’ के लोग अपने को क्षत्रिय मानते हैं। अतीत में वे सामन्ती राजवंशों से जुड़े रहे हैं। अहीर, कुर्मी, गूजर, लोध आदि जातियाँ मालिक किसान जातियों में से हैं। इनमें से कहीं-कहीं ज़मींदार भी रहे हैं। बेलछी से पिपरा तक खेत मज़दूरों का कत्लेआम ऐसे ही कुलक किसानों की करतूत रही है। या तो ये ‘शोषक’ रहे हैं या शोषकों के लठैत। किसी भी तरह ये ‘शोषित’ नहीं हैं। ‘शोषित’ हरिजनों को तो मात्र 22.5 प्रतिशत आरक्षण और ‘शोषक’ मध्य जातियों को 27 प्रतिशत आरक्षण देना क्या न्याय है? जब कि डाॅ0 लोहिया ने स्वीकारा है - ‘‘मध्य जातियों के रहन-सहन का स्तर और आर्थिक स्थिति उत्तर की उच्च जातियों से भी श्रेष्ठ है।’’
आँकड़ों का आईनाः-
हमारी कुल पुरुष-जनसंख्या का मात्र एक प्रतिशत स्नातक या उससे उच्च श्रेणी का डिग्रीधारी है। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति में मात्र 6 प्रतिशत शिक्षित हैं और इन 6 प्रतिशत लोगों के लिए 22.5 प्रतिशत नौकरियों की व्यवस्था होने पर भी अब तक आठ प्रतिशत से अधिक जगहें नहीं भरी जा पाती हैं। जबकि पिछड़ी जाति का सरकारी नौकरी में प्रतिशत बिना आरक्षण के 12 प्रतिशत से अधिक है। पब्लिक स्कूलों के छात्रों का आई0ए0एस0 और आई0पी0एस0 सेवा में 70 प्रतिशत सीटों पर कब्ज़ा है, जबकि भारत सरकार सारे देश की शिक्षा पर मात्र दो प्रतिशत खर्च करती है। सरकार हर साल किसी भी तरह चालीस हज़ार से अधिक नौकरी नहीं दे सकती, जबकि देश में 14 करोड़ बेरोज़गार नौजवान हैं। देश की 37 प्रतिशत आबादी ग़रीबी की रेखा के नीचे ज़िन्दगी काट रही है और राजीव गाँधी स्वीकार कर चुके हैं कि ‘‘सरकारी योजनाओं का मात्र 15 प्रतिशत ही निचले स्तर पर पहुँच पाता है।’’
आँकड़ों का सबकः-
ये आँकड़े स्पष्ट बताते हैं कि सरकार के पास देश की 85 करोड़ आबादी के लिए वास्तव में कोई योजना है ही नहीं। जो भी योजना है वह हमारे वर्ग-शत्रुओं - व्यवस्था के शिखर पर बैठे धनपशुओं, नेताओं, नौकरशाहों, ठेकेदारों, धनी कुलक किसानों के वर्गीय स्वार्थों की सेवा के लिए है। व्यापक जनता तो मात्र मुनाफ़ा पैदा करने वाला ‘मानव-संसाधन’ है।
आरक्षण से लाभ किसका है?
गरीब जातियों के मुट्ठी भर नौकरशाहों का विशेषाधिकार भोगी वर्ग अर्थात् ‘क्रीमी लेयर’ आरक्षण से मिलने वाला सारा लाभ ऊपर ही ऊपर हड़प कर जाता है। उन्हीं जातियों की शेष समूची आबादी, जो न पढ़ सकती है और न जिसके पास इतना अतिरिक्त पैसा ही है कि आवेदन-पत्र ख़रीदने, रजिस्ट्री करने, परीक्षा देने और साक्षात्कार के लिए बार-बार शहर जा सके, आरक्षण से ही सही, कैसे नौकरी पा सकती है? अन्ततोगत्वा रिश्वत देने की बात तो गाड़ी को पटरी से ही उतार देती है।
आरक्षण नहीं प्रतिभाः-
नेहरू ने सन् 1961 में कहा था - ‘‘पिछड़े समूहों को सहायता जाति के आधार पर नहीं, वरन् आर्थिक विषमता के आधार पर देनी चाहिए। आरक्षण से अकुशलता और दोहरे मापदण्ड उपजते हैं। यदि भारत को प्रथम श्रेणी का देश बनाना है, तो आरक्षण रूपी बैसाखी से हमारे समाज के पिछड़े समूहों का पिछड़ापन दूर नहीं होगा। सरकारी नौकरियों में आरक्षण द्वारा अयोग्य व्यक्तियों को थोपना ग़लत है क्योंकि सरकारी नौकरियाँ सिर्फ़ नौकरी के लिए नहीं समाज-सेवा के लिए होती हैं।’’
सारी दुनिया में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जहाँ प्रतिभा की जगह जाति के आधार पर न केवल अधिकारी बल्कि वैज्ञानिक और चिकित्सक भी बनाये जाते हैं। समाज का धनी वर्ग, उच्च अधिकारी और राजनेता अपने बच्चों के लिए पब्लिक स्कूलों और अन्य प्राइवेट संस्थाओं से ‘कैपिटेशन फ़ीस’ देकर शिक्षा और रिश्वत देकर नौकरी ख़रीद लेते हैं। जबकि समाज के ग़रीब वर्ग का युवक, चाहे वह किसी भी जाति का हो, मुर्दा सरकारी स्कूलों की सड़ी हुई शिक्षा लेकर बेरोज़गारों की सड़क पर खड़ी फौज में शामिल होने के लिए अभिशप्त और विवश है।
आरक्षण द्वारा न तो असमानता कम होती है और न ही धन और सत्ता पर आधारित निहित स्वार्थ कमज़ोर होते हैं। बल्कि गुणवत्ता के बजाय जाति आधारित चयन राष्ट्र की प्रगति को चैपट कर देगी। तीसरे दर्जे़ की कार्यक्षमता वाले कर्मचारी पैसे के बल पर सब कुछ ख़रीदने के लोभ में भ्रष्ट से भ्रष्ट आचरण करते रहेंगे। प्रतिभा और श्रम की प्रतिष्ठा की स्थापना के मार्ग में आरक्षण भी एक व्यवधान है। दलित और शोषित वर्ग को आरक्षण की भीख नहीं, विकास का समान अधिकार चाहिए। उसमें बुद्धि और बल की कमी नहीं है। कमी है तो आर्थिक संसाधनों की और वह आरक्षण से नहीं बल्कि लूट, निजी मालिकाने एवं विरासत के अधिकार पर टिकी इस आदमख़ोर व्यवस्था के क्रान्ति द्वारा परिवर्तन से ही पूरी हो सकती है।
आरक्षण और जाति-संघर्षः-
आरक्षण वास्तव में शोषण पर आधारित विगत और वर्तमान व्यवस्थाओं के चलते पीड़ित जनसमुदाय के आँसू पोंछने का मानवतावादी प्रयास है ही नहीं। वह तो ऐसी प्रवंचना है जो जातियों में एक दूसरे के प्रति सजगता, वैमनस्य तथा आक्रोष पैदा कर जाति-संघर्ष के आधार पर सामाजिक विघटन को घनीभूत करके देश को कमज़ोर कर डालेगा। आजा़दी के बाद से जैसे-जैसे आर्थिक विकास की गति बढ़ रही थी, वैसे-वैसे जात-पाँत, छुआछूत का भेदभाव और दूसरी सामाजिक बुराइयाँ दूर होने लगी थीं। गाँवों में अधिकतर नयी पीढ़ी में और शहरों में लगभग पूरी तरह समृद्धि, शिक्षा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण फैलने के साथ-साथ यह प्रक्रिया आगे बढ़ रही थी। मगर राजनीति के मक्कार खिलाड़ियों ने अपने निहित स्वार्थों के लिए जातिवाद को मजबूत करने के जी-तोड़ प्रयास किये, जिनके चलते पिछले दशकों में देश के जातीय मानचित्र के समीकरण बदल गये हैं। पहले उच्च जातियों में ही शोषक थे, मगर अब उसी जाति विशेष का उच्च वर्ग भी उनकी जातिवादी भावनाओं का लाभ उठा कर शोषक बन बैठा है।
हमारा लक्ष्यः-
‘हर हाथ के लिए काम’ का मौलिक अधिकार जीतने के लिए जारी हमारा संघर्ष न केवल आरक्षण विरोधी है, बल्कि मूलतः जातिवाद विरोधी है। देशी शासक और विदेशी साहूकार चाहते हैं धरती के इस सबसे अधिक सम्भावनाओं से भरे राष्ट्र को टुकड़े-टुकड़े करके कमज़ोर कर देना, ताकि 85 करोड़ हाथ कभी एक साथ उठ ही न सकें। ‘‘रोम जलता रहे और नीरो वंशी बजाता रहे।’’ हमारा संघर्ष न तो गरीब हरिजनों से है और न ही गरीब यादवों से। हमारा असली षत्रु - पूँजीवादी शासक वर्ग हमें आपस में बार-बार लड़ाता रहा है और एक बार फिर हमें आपस में ही लड़ा देने के कुचक्र में लगा हुआ है। एक ओर ‘राम जन्मभूमि - बाबरी मस्ज़िद विवाद’ के नाम पर उसने हिन्दू-मुसलमानों के बीच दंगा भड़काया, तो दूसरी ओर सवर्ण और आरक्षितों के बीच संघर्ष खड़ा करने की ताक में वह है। क्या आप उसकी साज़िश सफल हो जाने देंगे? हमारा एक ही प्रश्न है आपसे - आप कैसा समाज चाहते हैं? जातिवाद के कोढ़ से बजबजाता? नहीं न! तो फिर जातिविहीन, वर्गविहीन, शोषण-उत्पीड़न विहीन समाज की स्थापना के लिए जारी इस लड़ाई में आजीवन हिस्सेदारी का संकल्प कीजिए। हम समझते हैं कि अब विवेक, प्रार्थना, अनुरोध, हृदय-परिवर्तन का कोई रास्ता नहीं बचा। संवेदनहीन तानाशाही प्रवृत्तियों की जकड़न को झकझोरने का अन्तिम प्रयास आत्मदाह भी कारगर नहीं हो पाया। आइए, एक साथ मिल कर अन्तिम विजय तक क्रान्तिकारी संघर्ष जारी रखने की शपथ लें, ताकि भावी भारत का कोई भी नागरिक राजीव गोस्वामी की मौत मरने के लिए बाध्य न किया जा सके।
इन्कलाब-ज़िन्दाबाद
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इसी क्रम में  प्रस्तुत है मेरे मित्र सईद अयूब का यह पत्र.
Sayeed Ayub - 
सरकारी नमकहरामों, हमें वोट के लिए रिश्वत में आरक्षण मत दो. देना ही है तो हमें युनिवर्सिटीज दो, मेडिकल कॉलेज दो, इंजीनियरिंग कॉलेज दो, हमारे गरीब होनहार बच्चों के लिए मुफ़्त कोचिंग सेंटर्स दो, हमारे देश भर में फैले जामा मस्जिद जैसे गंदे मोहल्लों को बेहतर सफ़ाई सुविधा दो, उन्हें बिजली दो, पानी दो, और इन सब में अगर कोई तथाकथित शाही ईमाम और उसके गुंडे रुकावट डालते हैं तो उन्हें जेल भेजो. आतंकवाद के नाम पर जेलों में बंद हमारे बेगुनाह नौजवानों को रिहा करो, और उनसे और जो पहले ही अदालतों से बेगुनाह साबित होकर छूट चुके हैं उनसे माफ़ी माँगो और उनकी जिंदगियों को नरक बना देने के ऐवज में उन्हें हर्जाना दो. तुम्हारे और तुम्हारी पुलिस और ख़ुफ़िया विभागों के इशारों पर हमें हमारे ही देश में आतंकवादी की नज़र से देखने का जो ट्रेंड चल पड़ा है, उसे खत्म करो. दुर्दांत हत्यारे कसाब को तुरंत फाँसी दो और अफजल गुरुओं जैसो का फैसला जल्द से जल्द करो, उन्हें फाँसी पर लटकाना है तो उनकी फाइलों को मत लटकाओ और उनके बहाने दूसरों को यह मौक़ा मत दो कि हमारी जिंदगियों को तल्ख करें. अमित शाह जैसे छुट्टा सांड़ों और मोदी जैसे उसके आकाओं को जेल भेजो और फिर सरे आम फाँसी दो ताकि इशरत जैसी हमारी बहन-बेटियों और गुजरात के हमारे बहन-भाइयों, बेटे-बेटियों से इंसाफ हो सके. देना है तो ये सब दो वरन कुछ मत दो. हम वैसे भी अपनी ज़िंदगी जी लेंगे नमकहरामों, मगर हमें आरक्षण की रिश्वत मत दो, मत दो, मत दो.
इसी क्रम में  प्रस्तुत है मेरे मित्र शमशाद अली शम्स का यह पत्र.
क्या मेरा काम हरामखोर सरकारी नौकरों के लिये लडना है?
Shamshad Elahee Shams on Thursday, September 6, 2012
...क्या बात है, सत्ता के खेल देखो, एक बार फ़िर पूरा देश आरक्षण के पक्ष अथवा विपक्ष में फ़िर उलझा जा रहा है, पद्दोन्नतियों में कोटा को लेकर सत्ताबाज़ों ने सुर्रा छोड़ दिया..एक आध गोस्वामी नाम का अफ़सर खुद में आग लगाने ही वाला होगा, फ़िर मीडिया उसका खेल घर घर पहुंचा ही देगा.
मुख्य प्रश्न है सरकारी नौकरी जो आमतौर पर हरामखोरी का प्रर्याय बन गयी हो और वहां बैठे चपरासी से लेकर अफ़सर तक जनता का खून चूसतें हों भला मुझे, आपको या आम जनता को इन खून चूसू तबके के पक्ष अथवा विपक्ष में बोलने की क्या पडी है? मेरे लिये तो वर्मा हो या शर्मा, सिंह हो या चटर्जी, अहमद हो या नाग..सब लुटेरे हैं. अगर ये सिपाही हैं तब यह मुमकिन नहीं कि आरक्षण की बेल पर चढा कोई दलित अथवा पिछडा मुझ पर रहम कर देगा...वो भी गोली ही मारेगा. कलर्क हुआ तो रिश्वत लेगा ही, अधिकारी हुआ तो मेरा खून नहीं गोश्त भी माँगेगा. मैं कौन हूँ?? मैं हूँ आप, आप और आप...यानि आम आदमी. जो हर बार वोट देकर सत्ता के चरित्र के बदलने का इंतज़ार करता है. पर यह नहीं जानता..कि सत्ता का असल चरित्र नेता नहीं वह तो पटवारी, सचिव, तहसीलदार, दरोगा, थानेदार, कानूनगो, जज आदि के रुप में हमारे दिलो दिमाग ही नहीं बल्कि समाज में अपना स्थायीत्वकरण कर चुका है.
सरकारी नौकरी में हरामखोरों की इस जमात ने देश का नेता से भी अधिक नुकसान किया है, नेता से तो पिण्ड छुट भी जाये ५-१० साल बाद लेकिन ये तबका पूरे ३५ साल खून चूसता है. आखिर मैं इस खून चूसू, दीमक, रक्त पिपासु जमात के लिये क्यों लडूँ? सभी नेता कोटे के चक्कर में देश को भन्नाये दे रहे हैं, आखिर नेता जानता है कि वह "अस्थायी" (कुर्सी) है लेकिन जिसके लिये वह लड-लडा रहा है वही "स्थायी" (नौकरी) है, लिहाजा सत्ता के साथ जुड कर उसकी बदंरबांट में एक टुकडा तुम अपने समाज के आगे भी डलवा दो तो तुम्हारी तस्वीर भी देश की संसद में एक न एक दिन लग ही जायेगी. सत्ता की सडी हुई खुरचन में हिस्सेदारी-लूटमारी के नाम पर यह सब प्रपंच जारी है. इस जमात से मेरी कोई दिलचस्पी नहीं और न इसमें शामिल करने के अभियान चलाने वालों से. मेरी साफ़ समझ है कि जो भी सरकार की पंक्ति में गया वह जनता का दुश्मन अगर नहीं बना तो दोस्त कभी बन ही नहीं सकता.
कोई भी क्रांतिकारी व्यक्ति अथवा चिंतक इस प्रपंच का हिस्सा नहीं बनेगा बल्कि उसका भांडाफ़ोड करेगा, सत्ता और उसके धमनीतंत्र को बेनकाब करेगा. इसे मज़बूत नहीं बल्कि इसे तोडने का प्रयास करेगा. सरकार की नौकरी के लिये प्रोत्साहित नहीं हतोत्साहित करेगा. रिश्वतखोरों की जमात में एक और इज़ाफ़े के बजाये, एक क्रांतिकारी बनने के लिये उत्साहित करेगा..इस सडी हुई व्यवस्था में गुजरा एक एक दिन नर्क के समान अगर है तब अपने सूरज को उगाने की जी तोड चेष्टा करेगा. झाडियों के पत्तो पर नहीं सीधा जडों पर हमला करेगा. पुराने तंत्र में गुजारा नहीं नये की रचना करेगा. कुल मिलाकर स्वतंत्रतापूर्व हालात फ़िर से सामने हैं, दुर्भाग्य से कोई आवाज़ नहीं दे रहा...कोई आह्वान नहीं कर रहा, आओ..क्रांति के लिये आगे बढो... नया भारत बनाना होगा, सबको हक दिलाना होगा...!!

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dear friend, some of my friends are continuously debating on the caste question. this is a very important question of our society. i want it to be eradicated. but my friends want to capture "laddoo" in their both hands. how is it possible? to maintain the caste based reservation and think to eradicate the caste system - is it not only a day-dream? how can you take the benefits of one ugly thing introduced by the antipeople system and oppose also the same thing at the same time? first you have to decide to oppose the caste system in totality and in mentality of both the upper and lower caste flag-holders, only then you can try to proceed with the task of its eradication. otherwise your debates can only widen the gap and intensify the hatred between both poles. and they are creating havoc. has this problem not disrupted the unity of the revolutionary movement? has it not transformed the lower caste members of our underdeveloped society from the mass-base of revolutionary forces into the vote-bank of mayavati? and is she not manipulating the power and involved in the dirty game of corruption only because of their support to her? has it not developed suspicion in the lower castes for the progressive personalities of the upper castes of indian history? is it not helpful to the system to maintain the grip over the masses by 'divide and rule' law? am i wrong? if yes, please oppose me and give your comments.

i agree that the marriage between the two poles are the last solution to the caste problem. it is not that easy today. but the polarization between both the upper and lower castes are widening daily. they both believe in caste values. we have to change this mentality first. we must feel that both are being exploited and oppressed by the capitalist state of india and both must unitedly struggle to remove the yoke. without this unity the revolutionary movement can't reach to the next stage. and the ruling class is interested in maintaining and broadening this contradiction of caste feeling.

i know so many general caste young men posted and working as safaai karmchari in this area of u.p.

i am humble enough to request my position on this caste question. i have no intention of giving updesh to my honourable friends. we have got only one life and we must live it according to our own vision and attempt to materialize our own dreams. none has right to dictate the rules or draw the limitations for any body to live his whole but limited life according to the whims of any one. i want to request you to enjoy your self and laugh at the intellectual limitations of such persons who are full of such unwanted expectations!

if you are ready to eradicate it, don't talk too much please. please do what you can. if you can't dare to do, your talks and debates are irrelevant. but please take me positive, if you like. love a lot – girijesh

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आरक्षण नहीं, जाति समस्या है. - Samar Anarya

[प्रभात खबर में कोटा नहीं, जाति है समस्या शीर्षक से 1-09-2012 को प्रकाशित]
देखने में यह बहुत मासूम सा तर्क लगता है. आरक्षण खत्म कीजिये, जाति अपने आप चली जायेगी. फिर यह तर्क कहीं भी टकरा सकता है. एक दिन उच्चवर्ग में शामिल हो जाने के सपने देखती मध्यवर्गीय आँखों में, अन्ना हजारे के ‘आंदोलन’ में लहराते ‘क्रांतिकारी’ मनुवादी मोर्चे के झंडे में, चेहरों की उस नयी किताब की दीवालों में, कही भी. यह तर्क देने वाले ज्यादातर लोग हमारे ही वर्ग से आते हैं. यह तर्क देते हुए उनकी आवाज में अंतिम सच जान चुके होने की आश्वस्ति होती है. वे जानते हैं आरक्षण देश के विकास के लिए घातक है, योग्यता के खिलाफ है और अगर यह ठीक भी हो तो कैसे इसका लाभ जरूरतमंदों तक न पंहुच दलित-बहुजन वर्ग के अपने अभिजात वर्ग तक सिमट कर रह जाता है.
पर फिर यहीं एक सवाल बनता है कि इस तर्क की राजनैतिक और दर्शनशास्त्रीय अवस्थिति क्या है? यह तर्क खड़ा कहाँ से होता है? ज्ञानमीमांसा को तो छोड़ ही दें, क्या इस तर्क में किसी को सत्यान्वेषण के लिए तैयार कर सकने की भी तार्किक संगगता है? या फिर विशुद्ध समाजवैज्ञानिक सन्दर्भों में देखें तो इस तर्क की वैधता और विश्वसनीयता है भी या नहीं और है तो कितनी है?

कार्य-कारण की सबसे भोथरी समझ के साथ भी देखते ही यह तर्क भरभरा के ढह जाता है. ऐसे कि ऐसे कि आरक्षण जाति के पहले नहीं बाद में आता है. ऐसे कि आरक्षण कारण नहीं परिणाम है. परिणाम भी ऐसा नहीं कि खुद ही से निकल आया हो. यह ऐसा परिणाम है जो कारण के कुप्रभावों से पैदा हुए असंतोष से, प्रतिकार से निकला है. समाजविज्ञान की एक विशिष्ट धारा मनोविज्ञान से उधार लिए हुए शब्दों में कहें तो यह उद्दीपन-प्रतिक्रिया वाली क्लासिकीय अनुकूलन (कंडीशनिंग) के विपरीत उद्दीपन-जीव-प्रतिक्रिया वाला वह सिद्धांत जो 'जीवन' को चुनाव की स्वतंत्रता देता है, भले ही इस स्वतंत्रता का ज्यादा उपयोग दंड के द्वारा कुछ इंसानों द्वारा बाकी इंसानों को कब्जे में रखने के लिए ही किया गया है.
आरक्षण खत्म करिये, जाति खत्म हो जायेगी के तर्क के पीछे की मनोग्रंथि यही है. उत्पीड़ित अस्मिताओं के संघर्षों के उफान वाले आज के दौर में सत्ता और संसाधनों पर काबिज वर्गों द्वारा यथास्थिति बनाये रखने को गढ़ ली गयी वह राजनीति है जो वह राजनीति है जो अपने शब्दों को शगूफों सा हवा में उछालती रहती है और फिर इन तर्कों के विरोधियों के जेहन में भी घुस जाने का इन्तेजार करती रहती है. बीते लंबे दौर से इस राजनीति का केन्द्रीय कार्यभार ही रहा है कि समस्या को जाति से खिसका कर आरक्षण पर ला खड़ा किया जाये, और यह अगर नहीं भी हो सके तो आरक्षण को भी जाति के बराबर की ही समस्या तो बना ही दिया जाय. अपने इस प्रयास में वे काफी हद तक सफल भी हुए हैं.
इस तरह कि कि अब तमाम बार सामाजिक न्याय की लड़ाइयों के साथ खड़े साथियों के सवालों में भी आरक्षण और जाति चेतना एक ही तरह न भी सही, एक साथ तो आने ही लगी हैं. बेशक आरक्षण जातिप्रथा के अंत के लिए न तो अंतिम विकल्प है न सबसे कारगर. बाबासाहेब अम्बेडकर के ही विचारों को याद करें तो जाति के ब्रह्मराक्षस को खत्म करने का असली तरीका अंतरजातीय विवाह हैं क्योंकि वे श्रेणीगत पहचानों में बंटे समाज में बंटवारे और ऊंचनीच की मूल इकाई को ही ध्वस्त कर देंगे. पर जब तक ऐसा नहीं हो पा रहा है तब तक क्या करें? तब तक क्या जाति और आरक्षण दोनों को समस्या मान लें जैसा कि प्रगतिशील खेमे के कुछ साथी भी करने लगे हैं? यह स्वीकार करते हुए भी कि सामाजिक न्याय की राजनीति भी अपने अंतर्विरोधों का शिकार हुई है, पर इससे आरक्षण की धारणा को ही समस्याप्रद नहीं माना जा सकता. और फिर, ऐसे दौर में हल्की चूकें भी विमर्श का प्रस्थान बिंदु ही बदल देती हैं
ठीक बात है कि अस्मिताओं की राजनीति की एक सीमा होती है, उसकी अस्तित्वगत सीमा. कायदे से किसी भी अस्मितावादी आंदोलन का अन्तिम लक्ष्य अपनी 'अस्मिता' माने अपनी पहचान को खत्म करने का ही हो सकता है, उसी में मुक्ति भी होती है. उदाहरण के लिए जैसे दलित आंदोलन का केन्द्रीय कार्यभार होगा उस दिन को लाना होगा सब समाज में जातिगत गैरबराबरी और उत्पीड़न के ढाँचे ही ध्वस्त हो जाएँ और दलित शब्द एक अस्मिता के रूप में खत्म हो जाये. पर इस सपने की राह में इस राजनीति के केन्द्रीय नेतृत्व के अपने स्वार्थ ही एक बड़े रोड़े के बतौर खड़े हो जाते हैं.
जाति के खात्मे की इस लड़ाई को बराबरी के, मुक्ति के अम्बेडकरवादी सपनों के साथ एक 'मिशन' की तरह शुरू करने वाले नेतृत्व के बारे में आज यह विश्वास से नहीं कहा जा सकता कि वह अब भी इस मुक्तिकामी आदर्श के साथ खड़ा हुआ है. उसकी मूल दिक्कत ही यही है कि अगर वह अस्मिता खत्म करने के मूल कार्यभार पर लगे रहें तो उनका स्वयं की नेतृत्वकारी स्थिति और इसके साथ आने वाली तमाम सुविधाएँ भी खतरे में पड़ जायेंगी. इतना ही नहीं, इन अस्मिताओं के अंत के लिए प्रयास करने पर इनके भीतर आरक्षण की ही वजह से पैदा हुए उस छोटे से वर्ग की महत्वाकांक्षाओं को नुक्सान होगा जिसे हम तथाकथित उच्च जातियों की तुलना में तो नहीं पर अपने स्तर पर एक मध्यवर्ग के बतौर देख सकते हैं.
यही वह कारण है जो रिपब्लिकन पार्टी को तमाम धडों में बांटता है और जातिविरोधी आकांक्षाओं की प्रतिनिधि रही बसपा को हिंदूवादी राजनीति की अलम्बरदार भाजपा के साथ खड़ा कर देता है. इसी जगह पर आ कर मुद्दा बुनियादी व्यवस्था में परिवर्तन का नहीं बल्कि अपने प्रभाव को बनाए रखने का हो जाता है. पर इससे भी न आरक्षण के औचित्य पर कोई सवाल उठता है न इसे समस्या के बतौर देखा जा सकता है. सत्य यह है कि आज भी जाति ही समस्या है और इस बात के सबूत जनगणनाओं से लेकर अन्य तमाम सर्वेक्षणों में मिलने वाले संसाधनों से लेकर सत्ता तक में जातिगत विभेदन के आंकड़ों में देखे जा सकते हैं.
आरक्षण को लेकर एक और सवाल है जो कुछ 'प्रगतिशीलों' के दिमागों में भी खटकता है. यह सवाल है आरक्षण की तथाकथित अंतहीनता का. उन्हें लगता है कि 'आरक्षण' सिर्फ दस सालों के लिए दिया गया था फिर इसे अब तक क्यों बढ़ाया जा रहा है. इस बात के जवाब में दो बाते हैं, पहली तो यह कि यह दस साल का नुक्ता वह झूठ है जिसे यथास्थितिवादी लगातार प्रचार की गोयेबल्सियन शैली में तथ्य सा बनाने में सफल हो गए हैं. दस साल का आरक्षण सिर्फ संसद में था, और वह भी अन्य शर्तों के साथ था. नौकरियों में आरक्षण का सवाल उससे बहुत अलग है और यह एक तरफ तो संविधानप्रद्दत विभेदन को रोक समानता को बढ़ाने वाले मूल अधिकारों से निकलता है और दूसरी तरफ आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़े तबकों के उत्थान के लिए प्रयास करने की उस जिम्मेदारी से जिसके लिए संविधान के नीतिनिर्देशक सिद्धांतों के तहत 'राज्य' वचनबद्ध है. फिर उस आरक्षण के साथ इसको जोड़ देना चूक नहीं साजिश है. इसके साथ एक और भी नुक्ता जुडता है. यह कि क्या सच में जातिगत विभेदन और उससे पैदा होने वाली गैरबराबरी खत्म हो गयी है और अब समस्या जाति नहीं आरक्षण है? सरकारी सेवाओं में बहुलता की कमी से लेकर नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो तक के आंकड़े देखे जाएँ तो जवाब मिलेगा कि नहीं, देश के अधिसंख्य दलित-बहुजन नागरिक आज भी न केवल अन्याय और उत्पीड़न के तमाम प्रकारों के शिकार हैं बल्कि वह संसाधनों और शक्तिसंबंधों से खारिज भी हैं.
अब एक दूसरी जगह से भी देखें तो आरक्षण के अंतहीन होने से परेशान लोगों को विक्सित देशों में सकारात्मक विभेदन नाम से जाने जानी वाले आरक्षण का अब तक चलते आना देखना चाहिए. वस्तुतः वहाँ की उत्पीड़ित अस्मिताओं से आने वाले बराक ओबामा और कोंडलीजा राइस जैसे लोग अगर शिखर तक पंहुच पाते हैं तो इसी व्यवस्था की वजह से. अब यह देश तो भारत से तमाम मामलों में बहुत आगे हैं, फिर वह आरक्षण क्यों चलाये जा रहे हैं? दूसरे, इन देशों में सकारात्मक विभेदन सिर्फ सरकारी क्षेत्र में नहीं बल्कि निजी क्षेत्र में भी अनिवार्य है. आसान शब्दों में कहें तो वहां किसी भी संस्था का 'समान अवसर नियोजक' होना ही पड़ता है, यानी कि वर्ण, लिंग, और नृजातीयता के आधार पर सिर्फ नकारात्मक विभेदन न करने को नहीं बल्कि नियुक्तियों की दृष्टि से बहुलतावादी होने को मजबूर हैं इसीलिए वहां के ऑफिस हों या सीरियल्स/फिल्मों से छनकर हमतक पंहुचने वाला सामाजिक जीवन, ब्लैक, एशियाई, गोरों, हिस्पैनिक जैसी बहुल पहचानों का समुच्चय ही होता है.
अब जरा अपने देश के निजी क्षेत्र पर नजर डालें जहाँ अभी हाल में ही यूनिवर्सिटी ऑफ नोर्थ ब्रिटिश कोलम्बिया के डी अजित और अन्यों के किये अध्ययन में चौंकाने वाले आंकड़े मिले हैं. भारत की शीर्ष 1000 निजी कंपनियों के निदेश बोर्डों में सवर्ण 93 प्रतिशत, ओबीसी 3.8 प्रतिशत और दलित 3.5 प्रतिशत हैं! इससे ज्यादा और कुछ कहने की शायद जरूरत नहीं होनी चाहिए. यही तर्क भी है आरक्षण के कमसेकम तब तक जारी रखने का जब तक भारतीय समाज बहुलवादी न हो जाय. आखिर को किसी भी समाज के उत्थान की कोशिशें के लिए उसके अंदर एक खास वर्ग का होना जरूरी है. आप चाहे उसे मध्यवर्ग कहें, या वामपंथ की भाषा में हरावल, जब तक रोज दिहाड़ी करके खाने की चिंता से मुक्त ऐसा वर्ग अस्मिताओं के अंदर पैदा नही होगा उनके मुक्त होने की संभावना बहुत कम होगी. आरक्षण ने तमाम उत्पीड़ित अस्मिताओं के अंदर ऐसा ही वर्ग खड़ा करने में सफलता पाई है. आरक्षण लागू रखने के पीछे सबसे मजबूत तर्क बस यही है. और यह भी कि एक ऐसा वर्ग खड़ा हो जाने के बाद सामाजिक शक्ति-संबंधों में आने वाले बदलावों से जाति को बड़ा धक्का लगेगा और तब शायद आरक्षण की जरूरत ही न रह जाये.
http://www.mofussilmusings.com/2012/08/blog-post_31.html

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प्यारे दोस्त, तुलसी बाबा के इस कथन पर क्या कहना है!
"पूजिय विप्र सकल गुण हीना, नाहिन शूद्र गुण ज्ञान प्रवीना."
तुलसी और कबीर में यही अन्तर है. क्योंकि कबीर बोलते हैं -
"जात-पांत पूछे नहि कोई, हरि को भजे सो हरि का होई."
"जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान;
काम करो तलवार से, धरी रहन दो म्यान."
जातिवाद मुर्दाबाद!
इसीलिये मैं कबीरपंथी हूँ.

और आप?

1 comment:

  1. ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी।
    सकल ताड़ना के अधिकारी।।
    मानस की ऐक बहुत ही सुनदर चौपाई है।महात्मा तुलसीदास की इस चौपाई पर बड़ी ही क्रूरता से कटाक्ष होता आया है।प्राय: अर्थ काअनर्थ करते हुए लोग यह भी जानना उचित नहीं समझते की इसे लिखने वाला क्यों लिखा है।
    सेतुबन्ध के पूर्व समुद्र ने भगवान राम से विनय करते हुए अपने आप को कमतर बताते हुए कहीथी।
    यहाँ पर भ्रम ताड़न शब्द में है। जिसका अर्थ प्राय: प्रताड़ना से लगाते हैं। इसका अर्थ जानने से पहले हमें तुलसीदासजी को जानना होगा।
    रामचरितमानस के प्रारंभ में ही देव-गुरु की स्तुती के उपरांत सज्जन-असज्जन की एवं पूर्व तत्कालीन एवं भविष्य के होने वाले कवियो को भी सम्मानित किया था।
    वेद-पुराण व शास्त्र सम्मत वाते लिखने का विश्वास दिया था। पुराणों का संक्षिप्त रूप देखें तो यथा।
    अष्टादशपुराणेषु व्याषस्य वचनम् द्वयम।
    परोपकाराय पूण्याय पापाय परपीडनम्।।
    क्या ऐसी सोच रखने वाला महात्मा गवार जिसे मूढ या अज्ञानी के रूप मेजाना जाता है। सूद्र शेवक अथवा (अन्य जिसका व्यापक अर्थ है)पशु जो हमारे हितों से जुड़ा एक मूक प्राणी है।
    नारी जो हमारी जननी,भगिनी, जीवनसंगिनी अथवा पुत्री है। संततुलसीदासजी भला इन्हें प्रताड़ित क्यों कराना चाहेंगे।
    मानस की रचना से पूर्व गोस्वामीजी सम्पूर्ण भारत का भ्रमण व अनवेषण किए थे। समस्त स्थानीय भाषाओ का समायोजन का प्रयास भी दृष्टिगोचर होता है। उत्तर भारत में ताड़ना शब्द का प्रयोग बहुतायत होता आया है।
    जैसे " फला व्यक्ति ने मेरे बिरुद्ध साज़िश तो रची थी। कयोंकि मेंने उसके इरादे को ताडलिया था। कहने का मतलब जानना समझना है। प्रताड़ना नहीं।
    ह ढोलक समझने जानकारी के बाद बजाने की वस्तु है।पीटने की कदापि नहीं।
    गवार अज्ञानी के इरादे भावनाओं को उ की आवश्यकता है।वह प्रताड़ना का पात्र कदापि नहीं होसकता।
    शूद्र या शेवक प्रताड़ना का पात्र कैसे और क्यों कहाजायेगा।
    पशू मानव समाज का सहयोगी व उपयोगी मूक प्राणी है। उसे प्रताड़ना क्यों। उसे जानना अति आवश्यक है।
    नारी श्रध्दा व सम्मान की पात्र है। देवी के रूपमें पूजनीय है। नारी क्या उसके बिभिन्न रूपों को जानने की आवश्यकता नहीं है? जयश्रीराम।

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