Monday, 3 September 2012

भागो नहीं (दुनिया को) बदलो - राहुल सांकृत्यायन




भागो नहीं (दुनिया को) बदलो
राहुल सांकृत्यायन
किताब महल, इलाहाबाद
अष्टम संस्करण, 1978
प्रस्तुत संस्करण- 2011
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तनिक अरज
पहिली छाप

इस किताब की भाखा देख के कितने ही पढ़ने वाले अचरज करेंगे, लेकिन उमेद है, कि वह नाराज नहीं होंगे; काहेसे कि यहाँ उन्हें ऐसे सैकड़ों सबद मिलेंगे, जिनको उन्होंने माँ का दूध पीने के साथ सीखा है और अब भी वह ऐसे ही फिर मीठे लगते होंगे, लेकिन मैंने इस पोथी को भाखा फैलाने के ख्याल से नहीं लिखा। एक बरस पहले जो कोई कहता, कि तुम इस भाखा में एक किताब लिखोगे, तो मुझे बिसवास न होता। मैंने छपरा-बलिया की भाखा में आठ छोटे-छोटे नाटक लिखे, और मैंने देखा कि बातों को रखने में कोई कठिनाई नहीं है। उस भाखा में मैं इस पोथी को लिख सकता था, लेकिन फिर वह चार-पाँच जिलों ही के काम की होती। लेकिन इस तरह की हिन्दी में लिखना बहुत मुसकिल मालूम होता था। तो भी मैंने सोचा कि जिन लोगों के पास मैं अपनी बातों को पहुँचाना चाहता हूँ, उनके लिए ऐसी ही भाखा में लिखने की कोसिस करनी चाहिये। पोथी लिखते बखत मेरे दिल में हमेसा इस बात का ख्याल रहा है, कि जिन्होंने प्राइमरी तक हिन्दी पढ़ी है, वह इसे समझ पाएं। इस काम में सन्तोखी और दुखराम ने मेरी बड़ी मदद की है, जो यह मेरे सामने न रहते, तो मैं बहक जाता। मेरी जनम भाखा बनारसी ( कासिका ) है लेकिन 31 बरसों से छपरा में ज्यादा रहने के कारन मुझे वहीं की भाखा का ज्यादा ग्यान है। बनारसी बोलने लिखने में मैं गलती कर जाता हूँ, तो भी भाखा लिखते बखत मुझे बनारसी और छपरही भाखाओं से बहुत मदद मिली है। किसी समय मैं साल से बेसी बुन्देलखंड में रहा था और उस भाखा ने भी मुझे जरूर मदद की। इसके बाद सबसे बेसी मदद सिरी सतनरायेन दूबे (सेठवी) से मिली। मैं बोलता जाता था, और वह कागज पर उतारते जाते थे। कागज पर उतारने के साथ-साथ वह सबदों के बारे में अपनी राय देते जाते थे, जिससे भाखा और आसान बन सकी। वह भी राय देने में बहक जाते, जो उनके सामने गाँव की पुरबहिया (अहिरिन) भौजाई न होती। इस तरह फैजाबाद जिले की अवधी भाखा से भी मदद मिली। तो भी हिन्दी पढ़नेवालों के थोड़े से जिलों की मदद मिली। हो सकता है, इस पोथी में कुछ ऐसे सबद भी आ गये हों, जो पच्छिम के कुछ जिलों में न चलते हों। मैंने अपने जान ऐसे सबदों को न लेने की कोसिस की।

राजनीति को थोड़े से पढ़े-लिखे आदमियों के हाथ में देकर अब चुप बैठा नहीं जा सकता। ऐसा करने से जनता को बराबर नुकसान उठाना पड़ा। जनता को वोट देने का अख्तियार दे देने से काम नहीं चलेगा, उसे अपनी भलाई-बुराई भी मालूम होनी चाहिये और यह भी मालूम होना चाहिये कि राजनीति के अखाड़े में कैसे दाँव-पेच खेले जाते हैं। इस पोथी में इस बात के समझाने की मैंने थोड़ी-सी कोसिस की है। लोगों को, इससे कुछ फायदा होगा या नहीं, इसे मैं नहीं कह सकता। और इतना बड़ा काम एक पोथी से हो भी नहीं सकता। मुझे उमेद है कि मेरे दूसरे भाई अपनी मजबूत कलम से और अच्छी किताबें लिखेंगे; तब ज्यादा काम हो सकेगा।

हो सकता है किसी-किसी भाई को पोथी पढ़ते बखत कुछ सबद कड़े मालूम हों. दुखराम भाई की कोई-कोई बातें देह में तीर जैसी लगती हैं, लेकिन दुखराम जैसे किसान को हम वैसी ही भाखा में बोलते सुनते हैं। तो भी जो किसी भाई के दिल में चोट लगे तो मैं छमा माँगता हूँ। मैं किसी एक आदमी को दोसी नहीं मानता। आज जिस तरह का मानुख जाति का ढाँचा दिखाई पड़ता है, असल में सब दोस उसी ढाँचे का है। जब तक वह ढाँचा तोड़कर नया ढाँचा नहीं बनाया जाता, तब तक दुनिया नरक बनी रहेगी। ढाँचा तोड़ना भी एक आदमी के बूते का नहीं है, इसके लिये उन सब लोगों को काम करना है, जिनको इस ढाँचे ने आदमी नहीं रहने दिया।

आखिर में एक बार फिर सिरी सतनारायेन दूबे (सेठवी) को धन्यवाद देता हूँ कि उन्होंने रात-दिन लगा के बारह दिनों (17 मई- 28 मई 1944) में लिख डालने में अपनी कलम से मुझे मदद दी!
प्रयाग
राहुल सांकिरतायन
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तनिक अरज
तीसरी छाप

तीन बरिस पहिले मैंने इस पोथी को लिखा था। तबसे अपने देस में बहुत बड़ा फेर-फार हुआ है। उस बखत भी मैं देखता था कि लड़ाई के पीछे हिन्दुस्तान को गुलाम बनाकर रखा नहीं जा सकता, सो बात अब आँख के सामने हैं। गुलामी गई, मुदा गरीबी बाकी है। गरीबी दूर करके हिन्दुस्तान को एक बलवान देस बनना है। रूस और अमेरिका के बाद तीसरी जगह अपने देस को लेनी है। मुदा, यह मुँह से कहने से ही नहीं होगा। इसकी खातिर समूचे देस में पंचैती खेती, नये ढंग की खेती और कल-कारखाने छा जाना चाहिए और जल्दी-से-जल्दी। कुल पच्चीस बरिस हमारे पास है। इसी बीच हमें यह कुल मंजिल मारना है। यह तभी हो सकता है कि सब जगह सेठों के “लाभ-सुभ” को हटाकर देस की भलाई को सामने रक्खा जाय। सेठ और सेठ के पायक लोग लम्बी-लम्बी बात करके भरमाना चाहते हैं और देस की भलाई का बहाना कर के! हमें बात नहीं, काम देखना है। काम में देख रहे हैं कि लड़ाई के बखत भी सेठ लोगों ने दोनों हाथों से नफा बटोरा और आज भी उन्हीं की पाँचो अँगुरी घी में है, खाली चीनी पर से आँकुस (कन्टरोल) उठाने से कई करोड़ रुपैया सेठों की थैली में चला गया। कपड़ा और अनाज पर से आँकुस उठाने पर और बहुत करोड़ रुपैया सेठों और चोरबजारी बनियों की थैली में जायेगा। कब तक थोड़े से आदमियों के हाथ में देस का सारा धन और देस की सारी जिनगी बटुरती जायगी? और, ऊपर से जो बेसी नफा पर बड़ा एकमटिकस (इनकम टैक्स) भी सेठों पर से उठा लिया गया है। सेठों के लिए सब काम फुर्ती से हो रहा है, सो हमारे सामने है।

दूसरी ओर जनता की भलाई के सब काम में आज-कल आज-कल हो रहा है। जिमीदारी उठाने की बात खटाई में पड़ी हुई है। कमेरों के खिलाफ खूब हथियार चलाया जा रहा है और उनको फोड़कर आपस में लड़ाने की तदबीर की जा रही है। बाहर से कमेरों के परघट दुसमन बारयाम उछल-कूद रहे हैं। मुदा, एक ही भरोसा है “जिसको सालिगराम को भूनकर खाने में अबेर नहीं हुई, उसे बैगन भूनने में कितनी देर लगेगी?” जनता की तागत बहुत बढ़ गई। जनता के सेवकों की भी तागत बहुत बढ़ी है। कुल जनसेवकों को एक होने का बखत आ गया है। घर के भीतर कमुनिस, सोसलिस, फरवडबिलाकी, करन्तिकारी सोसलिस आपस में चाहे लड़ो, मुदा बूझ लो कि अकेले चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। जो सब लोग आपुस में मिलके काम नहीं कर सकते हैं तो कमेरों के पंचैती राज (समाजवादी प्रजातन्त्र) का सपना दूर, बहुत दूर चला जायगा।

लड़ाई के बाद अब क्या करना चाहिये, यही बात इस छाप में बढ़ा दी गई है। और पहले की बहुत-सी पाँती और एक समूचा अधियाए निकाल दिया गया है।

परयाग,  16-1-48
राहुल सांकिरतायन
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तनिक अरज
चौथी छाप

सात बरस बाद चौथी छाप निकल रही है। पोथी के खतम हो जाने पर भी इतनी देर लेखक और परकासक दोनों की ढिलाई के कारन हुई। इस छाप में भी बहुत-सी बातें घटा-बढ़ा दी गई हैं।

परयाग, 8-10-55
राहुल सांकिरतायन

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सूची

1. दुनिया नरक है
2. दुनिया क्यों नरक है?
3. जोंक-पुरान
4. जोंकों के दुसमन मरकस बाबा
5 वह देस जहाँ जोंकें नहीं हैं
6 भसमासुर भूतनाथ पर चढ़ बैठा
7 पागल सियार गाँव की ओर
8 लाल चीन
9 सान्ती का रास्ता
10 हिन्दुस्तान की आजादी
11 पंडा, मुल्ला, सेठ
12 औरत की जाति
13 अछूत और सोसित
14 मरकस बाबा का रास्ता बिदेसी है?
15 ग्यान और भाखा
16 सुतन्त भारत
17 दुनिया-जहान की बात
18 अनाज कैसे बढ़े?
19 कल-कारखानों का फैलाव
20 कमेरों का राज


जोंकों के दुसमन मरकस बाबा
दुखराम: आज तो भैया मरकस बाबा के बारे में कुछ बताओ!
सन्तोखी: हाँ भैया, जोंकों की बात सुन कर के तो हमारा दिल खौलने लगा। उनके सामने गाय, भैंस की देह में लगने वाली जोंकें तो कुछ भी नहीं।
भैया: देखा न सन्तोखी भाई, जोंकों की सकल-सूरत चाहे कितनी ही देखने में सुन्दर हो, उनके आस-पास कितनी ही दया-धरम की बात चलती हो, लेकिन उनके चारों ओर की धरती खून से लथपथ रहती है।
सन्तोखी: इनके बड़े-बड़े महलों के नीचे न जाने कितनी जिन्दा लासें पड़ी हुई हैं और पग-पग पर उनके खून की प्यास बढ़ती ही गई है।
भैया: हाँ, पहिले बिरादरी-बिरादरी की छोटी-मोटी लड़ाई होती थी, फिर राजाओं की बड़ी-बड़ी लड़ाई हुई। लेकिन इन जोंकों की लड़ाइयों के सामने तो पहिले की लड़ाइयाँ कुछ भी नहीं! आज भी जो इतनी बड़ी लड़ाई हो चुकी है, सो भी उन्हीं जोंकों के कारन। जब से जोंकों का त्रास बढ़ा तभी से कितने ही दया रखने वाले महात्मा सोचने लगे कि कैसे दुनिया का दुख कटे। उन्होंने सोचा कि जब तक धनी-गरीब रहेंगे, तब तक लोगों को सुख-चैन नहीं मिलेगा, क्योंकि धनी होते ही हैं बहुत से लोगों को गरीब बनाकर। जो धनी-गरीब का भेद मिटा दिया जाय तो दुनिया में इतना दुख नहीं रह जायेगा।
दुखराम: क्यों भैया। ऐसे महात्मा लोग दुनिया में पहिले भी पैदा हुए हैं?
भैया: पैदा हुए, लेकिन उन्हें ठीक से नबज नहीं मालूम हुई। वह रोग के असली कारन का पता नहीं लगा सके।
दुखराम: कारन का पता नहीं लगेगा तब दवा कैसे बतायेंगे!
भैया: खून के भीतर के रोग को पानी से धोने क्या होता है? अढाई हजार बरस पहले हमारे ही देस में बुद्ध नाम के महात्मा हुए थे!
सन्तोखी: वही बौधावतार भैया?
दुखराम: बस सन्तोखी भाई! मालूम पड़ता है कि औतार तुम्हारे मुँह से नहीं छूटेगा। कौन औतार? किसका औतार? कहीं उसका पता भी है? बिलायती बनियों ने एक बरस में करोड़ आदमियों को मार डाला, लेकिन औतार का कहीं पता नहीं! जोंकों ने साठ लाख आदमियों को तड़पा-तड़पा कर मार डाला, लाखों तिरियों से इज्जत बेंचवाई, तब भी उस औतार का पता नहीं! छोड़ो औतार की बात। औतार होता है राजाओं-रानियों के लिए। दुनिया भर की जोंकों को बचाने के लिए हमें औतार से कोई मतलब नहीं।
भैया: लेकिन दुक्खू भाई! बुद्ध ने अपने को किसी का औतार नहीं कहा, वह मानुख थे और मानुखों का हित चाहते थे। उन्होंने सोचा कि सारी दुनिया को धनी-गरीब का भेद मिटाने के लिए तैयार करना मुस्किल होगा, राजा और सेठ दोनों बड़ी-बड़ी जोंकें खिलाफ हो जायेंगी; इसलिए उन्होंने चाहा जो थोड़े से समझदार और त्यागी आदमी अपने भीतर से धनी-गरीब का भेद मिटाकर अपने सुन्दर जीवन से दिखला दें, तो क्या जानें दूसरे लोग भी पसन्द करें और उसी रास्ते पर चलें।
सन्तोखी: तो बुद्ध ने ऐसे लोगों की जमात बना ली थी, जिसमें धनी-गरीब का कोई भेद न था?
भैया: हाँ, ऐसे औरत-मरदों की जमात बनाई थी, जिसमें न कोई धनी था, न गरीब। उनका घर-द्वार, खटिया-बिछौना, खाना-पीना सब साझे में रहता। बाभन हो या चंडाल, उनके भीतर जात-पाँत का भेद न था, सब एक साथ खाते, एक साथ सोते, एक दूसरे के दुख-सुख में सरीक होते।
दुखराम: बड़ी सुन्दर जमात बनाई थी भैया!
भैया: लेकिन जोंकों का इससे क्या बिगड़ा। बड़ी-बड़ी जोंकों ने इस जमात के लिए बड़े-बड़े महल बनवा दिए थे, गाँव और जमीन दे दी, खाने-पीने का आराम कर दिया। फिर कहने लगे यह तो महात्मा लोग हैं, संसार-त्यागी भिच्छु सन्यासी हैं, इनमें सब सामरथ हैं।
सन्तोखी: माने उनके चारों ओर दीवार घेरकर उसी में उनको बन्द कर दिया, जिसमें उनके आचरन का दूसरों पर कोई असर न पड़े।
भैया: और असर नहीं पड़ा, क्योंकि लोग समझने लगे कि ऐसा जीवन तो साधू-सन्यासी ही बिता सकते हैं, वह सारी दुनिया के लिए सम्भव नहीं। इस तरह बुद्ध की दवा सारी दुनिया के लिए नहीं रह गई और फिर जोंकों ने उस जमात को बिगाड़ना सुरू किया। बुद्ध ने कहा था कि जिस किसी को कुछ दान देना हो तो सारी जमात (संघ) को दे, एक आदमी को नहीं। लेकिन बुद्ध के देह छूटने के बाद जोंकों ने बड़ा-बड़ा दान जमात के नाम नहीं, आदमी के नाम देना सुरू किया। जमात में फूट पड़ गई, धनी-गरीब का भेद फिर सुरू हो गया, जोंकों का बाल भी बाँका न हुआ। जैसे बुद्ध ने हमारे देस में किया, वैसे दूसरे देसों- चीन, ईरान, यूरप में भी कितने ही महात्मा पैदा हुए, जिन्होंने धनी-गरीब का भेद मिटाना चाहा, पर कोई सफल नहीं हुआ। अन्त में कल-मसीन की विद्या का पता लगा। व्यौपारियों ने कारखाने खोल लिये। एक-एक कारखाने में एक छत के नीचे हजार-हजार, दो-दो हजार मजूर काम करने लगे। कारीगरों का रोजगार कलों ने चौपट कर दिया। धुनिया, जुलाहा, बढ़ई, लोहार, रंगरेज, कुम्हार, लहेरा, ठठेरा कल की चीजों के सामने सबको हार माननी पड़ी। सब का घर उजड़ा और कारखाने में मजूरी करना छोड़ जीने का कोई रास्ता नहीं दिखाई दिया। लाखों मजूर बिलायत के कारखानों में मजूरी करने लगे। मालिक तो गुलाम चाहते हैं, मजूर नहीं चाहते। गुलाम को चाहे मारो-पीटो, उसको कहीं ठौर नहीं है। उसकी देह तो मालिक के हाथ में बिक चुकी है। मजूरों के साथ मालिक ऐसा ही सलूक करना चाहते थे। जब चाहा किसी को नौकर रख लिया, नराज हुए तो निकाल दिया। लेकिन कारखाने वाले मजदूरों का घर तो पहले ही उजड़ गया था, अब मालिक के निकालने पर जायें तो कहा जायें? अपने भाई मजूर के ऊपर जुलुम करते देख दूसरे मजूरों का दिल पसीज गया। वह भी समझने लगे जो आज इसकी गति है, वही कल हमारी होगी। मजूरों में एका होने लगा, उन्होंने कहा कि हमारे भाई को काम से निकालना ठीक नहीं, निकालोगे तो हम काम नहीं करेंगे।
दुखराम: हड़ताल करेंगे।
सन्तोखी: हड़ताल क्या दुक्खू भाई?
दुखराम: सब तुम्हीं समझ लोगे? मजूर कारखाने का काम छोड़ देते हैं, इसी को हड़ताल कहते हैं।
भैया: पूँजीपति जोंकों को यह पता नहीं था। उन्होंने समझा कि जिनका घर-द्वार नहीं, ठौर-ठिकाना नहीं, उनकी क्या मजाल है कि हमें आँख दिखायें। लेकिन उन्हें यह नहीं समझ में आया, कि जिन कल-कारखानों ने उनके घरों में करोड़ों की बरसा की, उन्होंने इन हजारों मजदूरों को एक जगह कर दिया, एक नाव में बैठा दिया। अब सबका अच्छा-बुरा भाग एक ही तरह का था। एक के ऊपर संकट पड़ने पर दूसरे चुप कैसे रह सकते थे? मजूरों की एक बिरादरी बन गई। उन्होंने हड़तालें कीं, हड़ताल करने पर उनके बाल-बच्चों को भूखा मरना पड़ता, लेकिन मालिक का भी लाखों का नुकसान होता। सरकार भी मालिकों की, पुलिस और पलटन भी पूँजीपतियों की। सबने मजूरों को एक ओर से दबाया। कितने ही गोली से मरते, कितनों ही को जेलखाना भेजा जाता और कितने ही भूख के मारे तड़पते; लेकिन यह एक दिन की आफत तो नहीं थी कि मजूर सिर नवा देते। ‘बुढ़िया को मरने का डर नहीं था, डर था तो जम के परच जाने का’। हारते, तकलीफ सहते भी मजूरों की बहुत सी माँगों को पूँजीपति मानने के लिए मजबूर थे। यह अठारह सौ ईसवी से कुछ पहिले और कुछ पीछे की बात है। इसके बाद ही आज से सवा सौ बरस पहले (5 मई 1818 ई0) मरकस बाबा का जनम जर्मनी में हुआ। राइनलैंड इलाके के ट्रेवेज नगर में उनके पिता एक यहूदी वकील थे। मारकस यह खानदान का नाम था। बाबा का नाम था कारल।
दुखराम: पूरा नाम कारल मारकस हुआ न भैया?
भैया: हाँ, लेकिन दुनिया में मारकस नाम ही को सब जानते हैं।
दुखराम: और यहूदी क्या है?
भैया: यहूदी एक जाति है, जिनमें बड़े-बड़े पूँजीपति भी हैं, बड़े-बड़े पंडित भी हैं लेकिन सबसे अधिक मजूर हैं। दुनिया में हर जगह बिखरे हुए हैं। 1951 बरस पहले कुछ यहूदियों ने चुगली कर के ईसा मसीह को फाँसी पर चढ़वा दिया, इसी वास्ते ईसा मसीह के माननवाले किरिस्तान लोग यहूदियों से घिनाते हैं। मरकस बाबा के पिता वकील थे, जब मरकस बाबा छ ही बरस के थे, तभी उनके पिता यहूदी धरम छोड़ कर ईसाई हो गए थे। मरकस बाबा लड़कपन ही से बुद्धि के बड़े तेज थे।
दुखराम: तेज न होते तो जोंकों के चार हजार बरस के जाल को तोड़ पाते!
भैया: मरकस बाबा अपने सहर के इसकूल में पढ़े। कभी-कभी अपने पिता के दोस्त एक तालुकदार से भी सतसंग होता। तालुकदार विद्वान थे और विद्या का आदर करते थे। इसकूल की पढ़ाई खतम करके सत्रह बरस की उमर में वह बोन सहर के विस्सविद्यालय में वकालत पढ़ने लगे। लेकिन एक साल बाद मरकस बाबा का मन उचट गया। तब वह जर्मनी के सबसे बड़े सहर बर्लिन के विस्सविद्यालय में चले गये। वकालत पढ़ना छोड़ दिया, अब वह पढ़ने लगे इतिहास, कविता और दरसन।
दुखराम: दरसन क्या है भैया!
सन्तोखी: दरसन भी नहीं जानते? रोज हमलोग दरसन-परसन करते हैं।
दुखराम: तो इस दरसन-परसन में पढ़ना क्या है? यह कोई दूसरा ही दरसन होगा। सखी-समाज वालों को जैसे भगवान दरसन देते हैं, वैसा दरसन तो नहीं है भैया!
भैया: हाँ, कुछ वैसा ही है। है तो यह अँधेरी कोठरी में काली बिल्ली का पकड़ना, बल्कि खाली अँधेरी कोठरी में काली बिल्ली का पकड़ना। लेकिन इसको लोग समझते हैं कि वहाँ पहुँचकर विद्या का ओर होता है।
दुखराम: यहाँ भी तो जोंकों की माया नहीं है भैया?
भैया: बहुत भारी माया है। दरसन वाले कहते हैं कि यह दुनिया सब माया है।
दुखराम: उनके सामने जब थाली परोसकर रख दी जाती है, तो वह अपना हाथ उधर फैलाते हैं कि नहीं?
भैया: फैलाते हैं, खाते हैं, मौज करते हैं।
दुखराम: बस-बस हो गया भैया! यह भारी धोखा है। जोंकों का बड़ा भारी जाल है। जोंकों का छप्पन परकार तो छिनाएगा नहीं। उनका सराब और परियों का नाच चलता ही रहेगा। वह लोगों का खून पी-पी कर साल में करोड़-करोड़ आदमी मारते रहेंगे। उनके भोग-विलास में यह दरसन कोई दखल नहीं देगा। वह बस यही चाहता है कि जोंकों के जुलुम को लोग माया समझें। दुनिया को नरक बनाने का सारा कसूर जोंकों का है, लेकिन वह लोगों को बतलाना चाहते हैं, कि यह सब माया है।
भैया: तुम्हारा कहना ठीक है दुक्खू भाई! लोगों को भूल-भुलैया में डालने के लिए हिन्दुस्तान में भी दरसन वाले ग्यानी पैदा हुए, यूरप में भी पैदा हुए। मरकस बाबा ने जवानी में दरसन पढ़ा, तो अच्छा ही किया। जब मरकस बाबा उन्नइस साल के थे, तभी कांट और फिखटे जैसे चोटी के पंडितों का दरसन उन्हें थोथी कल्पना मालूम होने लगी। फिर मरकस बाबा को एक और दरसन के पंडित हेगल की किताब पढ़ने को मिली। हेगल की यह बात मरकस बाबा को बहुत पसन्द आई कि दुनिया जो यह चित्तर-विचित्तर दिखाई दे रही है, वह इसीलिए कि वह हर छन बदल रही है। दुनिया की कोई चीज छोटी से छोटी या बड़ी से बड़ी ऐसी नहीं जो नहीं बदले। हमारे यहाँ भी हेगल से चौबीस सौ बरस पहले बुद्ध महात्मा ने यही कहा था।
दुखराम: चौबीस सौ बरस पहले! और बुद्ध महात्मा भी तो धनी-गरीब का भेद मिटाना चाहते थे। वह भगवान को मानते थे कि नहीं भैया!
भैया: नहीं, बिलकुल नहीं। वह कहते थे कि “है” कहकर जिसे हम पुकारते हैं, वह सभी चीजें छिन-छिन बदलती हैं। जो बदलती नहीं, ऐसी दुनिया में कोई चीज़ नहीं है।
दुखराम: बुद्ध महात्मा से जो सन्तोखी भाई पूछते कि भगवान हैं कि नहीं, तो क्या जवाब देते?
भैया: पहले सन्तोखी भाई से पूछते कि भगवान बदलते हैं कि नहीं, माने बिलकुल मर जाते हैं कि नहीं और फिर उनकी जगह कोई दूसरा बिल्कुल नया भगवान पैदा होता है कि नहीं? पहले बुद्ध महात्मा सन्तोखी भाई से यह सवाल करते।
दुखराम: सन्तोखी भाई! बताओ तुम क्या जवाब देते?
सन्तोखी: जो भगवान को मानता है, वह उन्हें जनम-मरन से परे मानता है।
भैया: तो ऐसी चीज के बारे में बुद्ध महात्मा कहते, कि वह अफीमची की पिनक है। ऐसी दुनिया में कोई चीज नहीं हो सकती।
दुखराम: तो सब चीज बदलती रहती है, दुनिया में न बदलने वाली चीज कोई नहीं है, यही बात मरकस बाबा को पसन्द आई न भैया?
भैया: हाँ, बरलिन से फिर मरकस बाबा जेना सहर के विस्सविद्यालय में चले गए और तेईस बरस की उमर में पारंगत होने के लिए उनको डाक्टर की पदवी मिली।
दुखराम: दवाई देने वाले डाक्टर भैया?
भैया: ग्यान के डाक्टर दुक्खू भाई! मरकस बाबा ने ग्यान तो सब पढ़ लिया, लेकिन दुनिया में देखा, सब जगह नरक की आग धाँय-धाँय जल रही है। उनकी कलम में बज्जर की ताकत थी। उनकी नजर इतनी पैनी थी कि गहरी से गहरी जगह में घुस जाती थी। विसविद्दालय से पढ़कर निकलने के बाद मरकस बाबा एक अखबार के सम्पादक हो गये।
दुखराम: सम्पादक क्या है भैया?
भैया: अखबार के सब लेखों के परखने और रास्ता दिखलाने के लिए मुक्ख लेख लिखने की जिसपर जिम्मेदारी हो, उसे ही सम्पादक कहते हैं। इसी सम्पादक रहते बखत मरकस बाबा को मजूरों की दुख-तकलीफ जानने का और मौका मिला। फिर दो साल तक उन्होंने उसके कारन ढूँढ़ने और दवाई का पता लगाने के लिए खूब सोचा, खूब पढ़ा, खूब गुना। जब मरकस बाबा पच्चीस बरस (1843) के थे, तभी अपने एक दोस्त को खत लिखा—“बटोरने और व्यौपार करने का जो ढंग दुनिया में चल रहा है, मानुख जाति को गुलाम बनाने और खून चूसने जो ढंग चल रहा है, वह सारे समाज की जड़ भीतर ही भीतर जल्दी-जल्दी कुतुर रहा है, जितनी जल्दी-जल्दी आदमियों की तादाद बढ़ रही है, उससे भी जल्दी-जल्दी वह कुतुर रहा है, इस घाव को पुराना (जोंकों वाला) ढंग भर नहीं सकता, क्योंकि उसके पास भरने की कोई तागत ही नहीं है। वह (जोंकों का ढंग) तो सिरिफ भोग करना और अपने जीना, बस इतना ही जानता है।” मरकस बाबा ने उसी साल अपने पिता के दोस्त तालुकदार की लड़की, जेनी से ब्याह किया।
दुखराम: जोंक की लड़की से ब्याह किया?
भैया: जोंक आदमी से पैदा हुई है। और जोंकों में भी कोई-कोई आदमी पैदा हो सकता है कि नहीं?
दुखराम: हो सकता है भैया।
भैया: जेनी उसी तरह की आदमी थी। जोंकों के घर में उसने जनम लिया। तेईस-चौबीस बरस तक जोंकों के सुख और भोग में पली, लेकिन बाकी सारा जीवन उसने कितनी तपस्या की, कितना कस्ट सहा, उसको सुनकर रोआँ खड़ा हो जाता है। पच्चीस बरस के ही मरकस बाबा हो पाये थे, कि जर्मन सरकार उनके विचारों को जानकर घबराने लगी। जानते हो न दुनिया भर की सरकारें जोंकों की सरकार है। जोंकों के स्वारथ को बचाना ही उनका सबसे पहला काम है। जर्मन सरकार ने मरकस बाबा को जेहल में डाल देना चाहा। लेकिन बाबा और जेनी दोनों उनके हाथ में नहीं आये, वे फ्रांस की राजधानी पेरिस में चले गये।
दुखराम: चाबस (शाबास)! बाबा जर्मन जोंकों के पंजे से बच गये।
भैया: लेकिन जर्मन जोंकों की सरकार ने फ्रांस की जोंकों की सरकार पर दबाव डालना सुरू किया और डेढ़-दो साल बाद फ्रांस की सरकार ने उन्हें अपने देस से निकल जाने का हुकुम दिया। बाबा को वहाँ से (1845 में) बेल्जियम के सहर ब्रूसेल्स में जाना पड़ा। दो बरस बेल्जियम में रहे। बड़ी गरीबी की जिन्दगी बिताई। जेनी को सब काम अपने साथ से करना पड़ता, बाबा खाली जोंकों से कमेरों की मुकती कैसे हो, इसी पर सोचते और लिखते रहे। 1843 में “न्याय वालों की सभा” (जिसे पहले ही से विदेस में भागे जर्मन मजूरों ने कायम किया था) की बड़ी सभा लन्दन में हुई थी, उस सभा में मरकस बाबा और जिनगी भर के साथी ऐङ्गल बाबा भी बुलाये गये थे। मरकस बाबा से वहीं सभा वालों ने कहा, कि हम लोगों का एक ढिंढोरा-पत्तर (घोषणापत्र) लिख दीजिए, जिससे जोंकों को भी पता लग जाय, कि कमेरे क्या करना चाहते हैं; और दुनिया भर के कमेरों को भी पता लगे, कि दुनिया के इस नरक को ढहाने के लिए क्या करना है, जोंकों की देह से छुड़ाने के लिए कौन-सा रास्ता पकड़ना है। मरकस बाबा ने बत्तिस साल की उमर में यह ढिंढोरा पत्तर लिखा, जो हिन्दी में भी ‘कमूनिस्ट घोसना’ के नाम से छप गया है। बीस-पचीस पन्ने की इस छोटी-सी पोथी में जो तागत है, वह दुनिया की किसी बड़ी-सी-बड़ी किताब में भी नहीं देखी गई। दुनिया के कमेरों की आँख खोलने में इस ढिंढोरा-पत्तर जितना काम किसी ने नहीं किया। किताब खतम करते हुए बाबा ने कहा, “कमेरो! अपने पैर की बेड़ियों को छोड़कर तुम्हारे पास खोने के लिए रखा ही क्या है? (जोंकों को खतम देने पर) यह सारा संसार तुम्हारा है। सभी देसों के कमेरो! एक हो जाओ।”
दुखराम: बाह रे बाबा, आज तू मिलता, तो अपने आँसुओं से तेरे पैर पोंछता।
भैया: अगले साल (1848) फ्रांस में बड़े जोंक राजा के तखत को उलट दिया गया। दुनिया के मुकुटधारी काँपने लगे। फ्रांस के लोगों ने पंचायती राज कायम किया। मरकस बाबा को सरकार के मुखिया ने (1 मार्च 1848 को) बड़े आदरभाव से आने के लिए बिनती की। बाबा पेरिस सहर में आये। जर्मनी में भी कमेरों ने जोंकों के खिलाफ बगावत की। उसके लिए एङ्गल बाबा और दूसरे कई साथियों को बाबा ने जर्मनी भेजा और अपने भी राइनलैंड इलाके में पहुँच गये। वहाँ से कमेरों को रास्ता दिखलाने के लिए एक अखबार निकाला। जोंकों की सरकार दब गई थी, इसलिए मरकस बाबा की ओर उसने हाथ नहीं बढ़ाया। डेढ़ बरस अखबार निकालने में बाबा की और जेनी माई के पास जो कुछ भी कौड़ी-पैसा था, सब चला गया। जर्मन जोंकों की सरकार का फिर कुछ हौसला होने लगा, इसलिए बाबा और जेनी पेरिस चले आये। लेकिन पेरिस के कमेरों ने जोंकों के स्वभाव को ठीक से पहचाना नहीं। उन्होंने जोंकों को अँगूठे से दबाया। खून निकल जाने से वह सुटुक कर पतली हो गई। कमेरों ने समझा- अब यह कुछ नहीं कर सकती, इसलिए उन्हें उठाकर फेंक दिया।
दुखराम: जोंकों का जीव बड़ा कड़ा होता है भैया! उनको तो जब-तक गत्तर-गत्तर काट-चोथ कर न फेंका जाय, तब-तक वह मरतीं नहीं।
भैया: पेरिस में फिर जोंकों का जोर बढ़ गया और 1849 में मरकस बाबा को फ्रान्स से निकल जाने का हुक्म हुआ। बाबा और जेनी कमेरों की भलाई के लिए सब दुख सहने के लिए तैयार थे। घर छूटा, देस छुड़ाया गया और जिस देस में भी जाते, वहाँ की जोंकें उनके पीछे पड़ जातीं। अब वह लन्दन चले गये। 1849 से 1883 तक के लिए (चौंतीस बरसों के लिए) लन्दन ही मरकस बाबा का घर बना।
दुखराम: लन्दन तो सबसे बड़ी-बड़ी जोंकों की राजधानी है, वहाँ मरकस बाबा को कैसे जगह मिली।
भैया: जोंक सरकारों का आपस में भी झगड़ा है, यह तो सैंतिस साल पहले वाली लड़ाई और पिछली लड़ाई से तुम्हें मालूम है। इसलिए भी अपने मुद्दई जर्मनी और फ्रान्स की जोंकों के दुसमन मरकस को अपने यहाँ रहने देने में उन्हें कोई हरक्कत नहीं मालूम हुई और सारे अँगरेजों के गुलाम देसों का इतना अधिक धन आता था कि अपने यहाँ के मजूरों को वह कुछ दे-दिवाकर संतुस्ट कर देते थे। मरकस बाबा ने बड़ी-बड़ी पोथियाँ लिखीं। दुनिया भर के कमेरों पर उनकी नजर रहती थी।
दुखराम: हिन्दुस्तान के रहने वाले हम कमेरों के बारे में बाबा ने कुछ सोचा और लिखा?
भैया: हाँ दुक्खू भैया! बाबा के सामने आज से 91 साल पहले भी हिन्दुस्तान का कोई रोग छिपा नहीं था। बाबा ने उस बखत लिखा था—“काहे अँगरेज हिन्दुस्तान के मालिक बन गये? मुगल सूबेदारों ने मुगलाई राज-संगठन को तोड़ा। सूबेदारों की तागत मराठों ने तोड़ा। मराठों की तागत को (पानीपत की लड़ाई में) अफगानों ने तोड़ा और जब यह सभी सब के खिलाफ लड़ रहे थे, तो अँगरेज चढ़ दौड़े और उन्होंने सबको दबा दिया। (क्यों दबा सके?) यह देस सिरिफ हिन्दू, मुसलमानों में ही बँटा नहीं है, बल्कि खोम-खोम और जाति-जाति में बँटा है। यहाँ के समाज का ढाँचा इस तरह कसकर बाँधकर रखा गया है, कि आदमी-आदमी के बीच बिखराव और बेमेलपन फैला है। जो देस, जो समाज ऐसा हो, वह हारने के लिए, गुलाम होने के लिए नहीं बना तो किस लिए बना। चाहे हिन्दुस्तान का पुराना इतिहास हम न भी जानते हों, तो भी इस बात में तो कोई दो मत नहीं है, कि इस छन भी हिन्दुस्तान अँगरेजों की गुलामी में जकड़बन्द है। और उस जकड़बन्दी का काम करती है हिन्दुस्तानी फौज, जिसका खर्च भी हिन्दुस्तान ही देता है। ऐसा भारत गुलाम होने से कैसे बच सकता है?”
दुखराम: भैया! बाबा ने सचमुच हम लोगों के रोग को पहिचाना।
भैया: बाबा ने एक और भी बात लिखी है। उन्होंने हिन्दुस्तान के पुराने जमाने के गाँव का, जो पंचायती इंतजाम था, उसके बारे में कहा, “ये सुन्दर (गाँव के) प्रजातन्त्र सिरिफ पड़ोसी गाँव से अपने गाँव की सीमा की रच्छा के लिए मुस्तैदी दिखा सकते थे, लेकिन वहाँ के राजाओं की मनमानी को रोकने की उनमें जरा भी ताकत नहीं थी।”
दुखराम: क्यों भैया! गाँव का पंचायती राज क्या बुरा था!
भैया: पंचायती राज को बुरा कोई नहीं कहता। बाबा ने भी वही कहा। जो कनैला की कोई जमीन या ताल-पोखरी का हक भदया छीनने लगे, तो कनैला वाले कितना मन से लड़ेंगे?
दुखराम: भैया! गाँव का बच्चा-बच्चा लाठी लेकर दौड़ पड़ेगा। भला कोई आदमी घर में बैठा रह सकता है? न जाने कितनी बार कनैला नरेहता से लड़ा, उसने उमरपुर का दाँत खट्टा किया, भदया को सिवाना में घुसने नहीं दिया।
भैया: बाबा यही कहते हैं कि, जब देस में इतना बिखराव हो जाता है कि लोगों को सारा देस तो भूल जाता है, याद रहता है सिरिफ अपना गाँव; तो गाँव की सीमा की रच्छा भले ही हो जाय, लेकिन देस की सीमा की रच्छा नहीं हो सकती। क्योंकि लोग अपने को उतना ही मन से देस का बासी नहीं समझते, जितना मन से कि गाँव का बासी समझते हैं। इसीलिए हिन्दुस्तान की सीमा की रच्छा की जिम्मेदारी सिरिफ राजाओं को रह गई। राजाओं का जुलुम और मनमानापन लाखों गाँवों के पंचायती राज्यों में बँटे हिन्दुस्तानी लोगों के रोकने की चीज नहीं रह गया। गाँव की पंचायतों ने कारीगरों को हजारों बरस पुराने बसूलों और रुखानियों से चिपके रहने दिया, किसानों को हँसुओं-फालों से एक कदम भी आगे नहीं बढ़ने दिया। जबकि दूसरे मुल्कवाले अपने जुल्मी राजाओं की गरदन कुल्हाड़े से काट रहे थे, उस बखत सब जुलुम, सब अन्याय बरदास करते हिन्दुस्तानी लोग कहते थे—“कोउ नृप होइ हमैं का हानी”। इससे वह यही दिखलाते थे, कि हमारा हाथ-पाँव बँधा हुआ है, हम कुछ नहीं कर सकते। हमारे इस गाँव-गाँव के बिखराव, जाति-जाति के बिखराव, धरम-धरम के बिखराव ने हमें बिलकुल कमजोर बना दिया। हम हिल-डोल नहीं सकते। हम समय देखकर अपने को बदल नहीं सकते। हम अचल मुरदा बने रहना चाहते थे। लेकिन यदि कोई दूसरा न छेड़ता तब न? मुसलमानों ने राज किया, उससे पहिले सकों और यूनानियों ने भी राज किया था, लेकिन हिन्दुस्तान के समाज के पुराने ढाँचों, गाँव-गाँव के अलग-बिलग संगठनों और जाति-पाँति को कोई नहीं तोड़ सका। लेकिन वह काम अँगरेजों ने किया। उन्होंने मुरदे को खूब झकझोरा। वह बिलकुल मुरदा नहीं था। उन्होंने हजारों बरस से चले आये हमारे चरखों को तोड़ डाला, पुराने करघे को बिदा किया। यह सब कैसे किया? अपने यहाँ के मिल के बने सस्ते कपड़ों को भेजकर। बाबा ने लिखा—“अँगरेजों ने कपास की जनम भूमि में कपड़े की बाढ़ ला दी। 1818 में उन्होंने जितना कपड़ा भेजा था, उससे 52 गुना कपड़ा 18 बरस बाद 1836 में अँगरेजों ने हिन्दुस्तान भेजा। 1837 में मुस्किल से दस लाख गज बिलायती मलमल हिन्दुस्तान में आया था, लेकिन दस ही बरस बाद 1847 में 6 करोड़ 40 लाख गज से ऊपर मलमल हिन्दुस्तान आया। लेकिन इसी बीच में ढाका सहर उजड़ गया, वह डेढ़ लाख की जगह सिरिफ 20 हजार की बस्ती रह गया। इस तरह अपनी कारीगरी के लिए दुनिया भर में मसहूर हिन्दुस्तान के सहर बरबाद हो गये।”
दुखराम: जोंकों ने बड़ा जुलुम किया भैया!
भैया: बाबा ने भी लिखा था—“यह सब देखकर आदमी का दिल व्याकुल हो जाता है। हिन्दुस्तान जो अनगिनत पंचायती गाँवों में सान्ती के साथ जिनगी बिता रहा था, उसके सारे संगठन को जोंकों ने तितर-बितर कर दिया, लोगों को कस्टों के समुन्दर में फेंक दिया। पीढ़ियों से चले आते जीविका कमाने के रास्ते बन्द कर दिये। यह ठीक है, कि गाँवों का पुराना पंचायती राज संगठन बहुत सुन्दर था, वह देखने में (दुधमुँहे बच्चे की तरह) बहुत ही भोला-भाला था। लेकिन यह भी याद रखना चाहिये, कि पूरबी देसों में जोंकों को मनमानी करने में सबसे बड़ी मदद इसी भोले-भालेपन ने दी। इसने आदमी के दिमाग के नन्हीं-नन्हीं कोठरियों में बन्द कर दिया। गप्पों और झूठे बिस्वासों को चुपचाप मानने के लिए वहाँ के लोगों को तैयार किया, उन्हें पुराने रवाजों का गुलाम बनाया। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए, कि एक छोटी-सी जमीन की टुकड़ी में ही जब सारी ममता बटुर गई हो, तो बिसाल देस का बिधंस क्यों नहीं होता? इसी छोट ममता ने लोगों को कितना जुलुम सहने के लिए मजबूर किया। बड़े-बड़े सहरों में भयंकर हत्या करवाई, (जिसमें लाखों बालक-बूढ़े, नर-नारी गाजर-मूली की तरह काट डाले गये) हमें यह नहीं भूलना चाहिए, कि यह अपमान भरा जीवन, मुरदे कीड़े-मकोड़े का जीवन ही, बिलकुल जड़ जीवन ही था, जिसको देखकर जंगलियों, अत्याचारियों, सत्यानासियों को वैसा करने की हिम्मत हुई। हमें यह न भूलना चाहिए, कि भारत की यह (गाँव-गाँव में) बिखरी छोटी-छोटी जमात भी सैकड़ों जातों में बँटी थी, गुलामी के रोग में फँसी थी। जहाँ मानुख का काम है ऊपर उठकर जो भी रास्ते में बाधाएँ आएँ, उनको परास्त करना, वहाँ हिन्दुस्तानियों को परिस्थिति का गुलाम बनना पड़ा। उसी के कारन मानुख समाज को जहाँ बहती गंगा की धारा की तरह बराबर बढ़ते रहना चाहिए था, वहाँ वह अचल बनकर जमाने के हाथ की कठपुतली बन गया। मानुख अन्धे जमाने का दास हो गया। जिस मानुख को जमाना का राजा बनना था, वह इतना पतित हुआ कि बानर, हनुमान और कपिला गाय के सामने घुटने टेकने लगा।”
सन्तोखी: क्यों भैया! बाबा को हनुमान जी की पूजा और गोमूत्र पीने की बात मालूम थी?
दुखराम: खूब मालूम थी सन्तोखी भाई! और बाबा ने हम मूढ़ों के गाल पर खूब चपत लगाया। लेकिन यह चपत ऐसे माँ-बाप का था, जिसका हृदय भीतर ही भीतर रो रहा हो।
भैया: बाबा ने और कहा, “हिन्दुस्तान में अँगरेज जो समाज में उलट-पुलट कर रहे हैं, उसके पीछे उनका एक बहुत ही नीचा स्वारथ छिपा हुआ है। लेकिन हम पूछेंगे, कि क्या एसियावासियों के समाज को बिना उलटे-पुलटे मानुख जाति अपने पहुँचने की जगह पहुँच सकती है? अगर नहीं पहुँच सकती तो अँगरेजों ने चाहे जितना भी पाप किया, उन्होंने अनजाने ही इस हितकारी उलट-पुलट को करने में सहायता की; फिर चाहे (हिन्दुस्तान में) टूट-टूटकर गिरती हुई पुरानी जिन्दगी को देखकर हमारा दिल कितना ही बिकल क्यों न हो जाय, उसके खिलाफ हमारे दिल में कितनी ही आग क्यों न लग जाय; लेकिन उसने उलट-पुलट करके हिन्दुस्तान का नया इतिहास बनाने में मदद की है।”
दुखराम: बात तो भैया! बाबा ने सच्ची-सच्ची कह डाली, चाहे किसी के गले उतरे या न उतरे।
भैया: बाबा ने एक ओर जुगों से चले आये हिन्दुस्तान को लाखों गाँवों में छिन्न-भिन्न देखकर उसे बुरा कहा; गँवई संगठन और उलट-पुलट को आगे की भलाई के लिए जरूरी बतलाया। साथ ही यह भी कहा—“अँगरेजों ने तलवार से हिन्दुस्तान के ऊपर जो जबर्दस्ती एकता लाद दी है, उसे बिजली के तार और भी मजबूत और बहुत दिन तक रहने वाली बना रहे हैं। अँगरेज सरजन्ट जो हिन्दुस्तानी सेना को परेड सिखला रहे हैं, उसका संगठन कर रहे हैं; वही हिन्दुस्तानी सेना बिदेसियों के हमले से ही देस को नहीं बचाएगी, बल्कि वह देस को छुटकारा दिलाने का काम भी करेगी। अखबार और छापाखाना नया हिन्दुस्तान बनाने के बड़े ही जबर्दस्त हथियार हैं। जो हिन्दुस्तानी अँगरेजों से पच्छिमी विद्या सीख रहे हैं, वह राज चलाने के काम और पच्छिम के साइंस में भी चतुर हो रहे हैं, यह भी हित करनेवाला है। भाप के इंजन ने हिन्दुस्तान की यूरप के साथ आने-जाने में और सहायता की है। हिन्दुस्तान के मुक्ख-मुक्ख बन्दरगाह इंगलैंड के बन्दरगाहों से जुड़ गए हैं, जिसके कारन अब हिन्दुस्तान अलग-बिलग नहीं रह सकता और वह जड़ताई को जड़मूल से उखाड़ फेंकेगा। वह दिन दूर नहीं है, जब भाप से चलने वाली रेल और जहाज मिलकर इंग्लैंड को आठ दिन के रास्ते पर ले आ देंगे। उस समय हिन्दुस्तान भी पच्छिमी देसों का पड़ोसी देस बन जायेगा। बिलायत की राज करनेवाली जमात ने हिन्दुस्तान में जो कुछ तरक्की का काम किया है, वह अनजाने और सिरिफ अपने स्वारथ से किया है। बिलायती सरदार हिन्दुस्तान को जीतना चाहते थे, बिलायती थैलीसाह (बनिये) उसे लूटना चाहते थे और मिल-साह (पूँजीपति) गलाकट्टी कर रहे थे।…अब मिल-साह सारे भारत में रेलों का जाल बिछाना चाहते हैं। और वह ऐसा कर के रहेंगे।…मैं जानता हूँ कि अँगरेज मिल-साह (पूँजीपति) हिन्दुस्तान में रेल सिरिफ इसीलिए बिछाना चाहते हैं कि बहुत थोड़े खर्च में हिन्दुस्तान के कपास और दूसरे कच्चे माल को अपने कारखानों में ले आएँ; लेकिन अँगरेज ऐसे देस में कल-मसीन को ले जा रहे हैं, जहाँ कोयला और लोहा मौजूद है। फिर कोयला लोहा के धंधे को आगे बढ़ने से कौन रोक सकता है?...हिन्दुस्तानियों में ऐसे बहुत लोग हैं जो कल-मसीन के इलिम को समझ सकते हैं, वह पूँजी भी जमा कर सकते हैं, उनमें बड़ा दिमाग भी है; यह इसी से मालूम है कि गिनती (हिसाब) जैसे इलिम में वे बहुत चतुर होते हैं। उनकी बुद्धि बड़ी तेज है।”
दुखराम: बाबा ने देख लिया था, कि हिन्दुस्तानी लोगों की आँखें जरूर खुलेंगी और वह अपनी विद्दा को अपनी भलाई, अपनी मुकती के लिए इस्तेमान करेंगे।
भैया: बाबा ने यह भी सोच लिया था, कि हिन्दुस्तान को आजाद करने, उसके आगे बढ़ने में बिलायत के कमेरों की भी सहायता जरूरी होगी।
दुखराम: बिलायत के कमेरों में भी क्या बाबा के माननेवाले लोग हैं?
भैया: बाबा ने उनकी भी आँख खोल दी है दुक्खू भाई! बिलायत में एक लाख तो बाबा के पाटी के खास लोग हैं। वहाँ की जोंकें बहुत घबरा रही थीं, कि लड़ाई खतम होते कहीं उनका तखता न उलट जाय। बाबा ने 91 बरस पहले लिखा था—“जब तक खुद बिलायत में वहाँ के कमेरे अपने जोंक-राज को हटाकर अपना राज न कायम कर लें या खुद हिन्दुस्तानी ही इतने मजबूत न हो जायँ, कि अँगरेजों के जूए को उतार फेंकें (तब तक हिन्दुस्तान के लिए वह सुन्दर दिन नहीं आ सकता)। चाहे कुछ भी हो थोड़े या अधिक दूसरे समय में वह दिन जरूर आएगा, जब बिसाल मनोहर हिन्दुस्तान देस का नया जनम होगा। वह देस जिसके नरम सुभाव वाले निवासियों में आज की गुलामी में भी एक तरह की सांति और अभिमान है। आलसी से दिखाई देने पर भी जिन्होंने अपनी बहादुरी से अँगरेजों को चकित कर दिया। जिनका देस हमारी भाखाओं का, हमारे धरमों का मूल रहा; जिसके जाट अपनी बहादुरी में पुराने जर्मनों जैसे हैं, जिसके बाम्हन ग्यान में पुराने यूनानियों जैसे हैं। उस देस का जरूर उद्धार हो कर रहेगा।”
सन्तोखी: बाबा क्या हिन्दुस्तान में आये थे भैया!
भैया: हिन्दुस्तान नहीं आये थे, लेकिन सैकड़ों बरसों से अँगरेज लोग हिन्दुस्तान के बारे में लिख-लिख कर जो ढेर किए थे, उस सबको बाबा ने पढ़ा, हिन्दुस्तान से जाने वाले आदमियों से बातचीत की; उसी से उनको सब बातें मालूम हुईं। हम कहते थे, कि बाबा को असली रोग और दवा का पता लगा। उन्होंने समझा कि रोग है यही जोंकें, जिनमें सबसे बड़ी हैं यह पूँजीपति, मिलमालिक, कारखाने वाले जो 75 पैसे का 20) बनाते हैं और दुनिया पर राज करते हैं। बिलायत के मजूरों ने इन जोंकों से लड़ाई ठानी। जब पेट काटा जाय, बेकसूर आदमी निकाल बाहर किये जायँ, तो भला वह कैसे चुप रहें? जोंकों का अपार धन, उनकी पलटन, पुलिस, धरम और पुरोहित सब कमेरों को पीस देना चाहते थे; लेकिन वे तीस-चालीस बरस से बराबर लड़ते रहे। तोंद पचकती देख जोंकों को कितनी बातें माननी पड़ीं और कमेरों का बल घटने की जगह और बढ़ता गया। बाबा ने समझा- जोंकों की असली दवा यह कल-कारखाने के मजूर हैं। जो वह हजारों लाखों-गाँवों में बिखरे रहते, तो जोंकों का मुकाबिला नहीं कर सकते। अपने कारखानों को चलाने के लिए जोंकों ने उन्हें सहरों में एक जगह जमा कर दिया। यह बड़ी तागत है। जोंकों ही ने मजूरों को अपने स्वारथ के लिए इकट्ठा किया और वही जोंकों को तबाह करेंगे।
दुखराम: हाँ भैया! चटकल-पटकल में लाखों मजूर काम करते हैं। जब मालिक कोई जुलुम करने लगते हैं, तो सब एका करते हैं। दस-दस, बीस-बीस दिन काम छोड़ने पर मजूरों को तो तकलीफ बहुत होती है, लेकिन मालिकों को झुकना पड़ता है।
भैया: झुकना क्यों न पड़े, जो मजूरों का एक रुपया जाता है, तो जोंकों का 19 रुपया। लेकिन बाबा ने कहा कि मजूरी बढ़वाने और छोटे-मोटे जुलुम को हटवाने से काम नहीं चलेगा, दुनिया भर के किसानों, मजूरों— सभी कमेरों को एका करके जोंकों का राज खतम करना होगा। पुलिस-पलटन, अदालत-कचहरी, कल-कारखाना सबको जोंकों के हाथ से छीन लेना होगा। हवा-पानी की तरह धरती-धन सब कुछ को सबका साझे का करना होगा; तब जाकर के दुनिया का यह नरक खतम होगा।
सन्तोखी: हाँ भैया! बाबा ने बड़े काम की बात बतलाई।
भैया: अब सुनो बाबा का बाकी जीवन चरित्तर। 31 साल की उमर में बाबा कहाँ-कहाँ की जोंक-सरकारों से बचते लन्दन पहुँचे। और वहीं 65 बरस की उमर में बाबा का देह छूटा। बाबा ने अमरीका, यूरप सब जगह के मजूरों को जोंकों से लड़ने में मदद दी, रास्ता बतलाने के लिए किताबें लिखीं। कोलोन के कमूनिसटों के ऊपर मुकदमा चल रहा था।
दुखराम: कमूनिस्ट कौन हैं भैया?
भैया: बाबा के चेला लोगों को, बाबा का पार्टी वालों को कमूनिस्ट कहते हैं। दुनिया भर की जोंकें कमूनिस्टों से बहुत डरती हैं। कमूनिस्टों ने कमेरों की लड़ाइयाँ खूब बहादुरी से लड़ी हैं, अपना सरबस होम कर दिया है। रूस से जोंकों का राज उन्होंने ही खतम किया।
दुखराम: तो भैया! हमारे देस में भी ऐसे कमूनिस्ट होने चाहिए। बाबा के चेला हम लोगों को रास्ता नहीं बतलाएँगे, तो हम कैसे लड़ पाएँगे!
भैया: हमारे यहाँ भी बाबा के चेला है दुक्खू भाई! लेकिन 40 करोड़ की आबादी में कुछ हजार कमूनिस्ट तो बहुत कम होते हैं न? सरकार ने अब भी दो-तीन हजार कमूनिस्टों को जेल में बन्द करके रखा है और जोंक और पुलिस दोनों उन्हें फूटी आँख से भी नहीं देखना चाहतीं; लेकिन वह रकतबीज की तरह बढ़ते रहेंगे। सहर-दिहात सबमें छा जायेंगे। बाबा का पंथ कौन कमेरा है, जिसको पसन्द न होगा?
दुखराम: हाँ भैया! वह अभागा ही होगा। बाबा ने सब दुख-तकलीफ सहकर हमारे ही फायदा के लिए न काम किया।
भैया: बाबा ने कमूनिस्टों के मुकदमे के लिए किताब लिखी, लेकिन छापने के लिए कागज नहीं था। उनके पास एक कोट बच रहा था।, उसे भी उन्होंने बन्धक रख दिया।
दुखराम: तो बाबा बिना कोट ही के रह गए? सुनते हैं, बिलायत में हाड़ चीरने वाला जाड़ा पड़ता है।
भैया: बाबा अपने लिए कस्ट सहने को तैयार थे। और जेनी माई की तकलीफ सोचो दुक्खू भाई! एक तालुकदार की लड़की, बड़ी लाड़-प्यार में पली, वह भी बाबा के साथ गली-गली मारी-मारी फिरती रही; लेकिन उसने एक दिन भी अफसोस नहीं किया। बाबा इतने पंडित थे, कि हजार दो हजार कमा सकते थे और अपने बाल-बच्चों को आराम से रख सकते थे; लेकिन बाबा ने कमेरों की सेवा के लिए अपना जीवन दे दिया था। बाबा के दो लड़के, चार लड़कियाँ हुईं; लेकिन दोनों लड़के और एक लड़की ज्यादा दिन नहीं जी सके। बीमार पड़ते तो दवाई और पथ का पाना मुसकिल होता। बाबा ने कमेरों के लिए गरीबी की जिन्दगी बिताई, जोंकें उन को फूटी आँखों नहीं देखना चाहती थीं। गरीबी के कारन बाबा के तीनों बच्चे मर गये; लेकिन बाबा ने सोचा, हजारों बरसों से जोंकें कमेरों के करोड़ों बच्चों को मार चुकी हैं, उन्हीं बच्चों में मेरे भी तीनों बच्चे गये।
सन्तोखी: बाबा जैसी तपेस्सा कौन करेगा भैया? दूसरे तपेस्सा करने वाले तो जोंकों की जड़ में पानी डालते हैं, जोंकों को और मजबूत करते हैं।
दुखराम: बाबा ने भी जोंकों की जड़ में पानी डाला, लेकिन खूब खौलाकर गरम-गरम पानी।
भैया: बाबा के साथी एङ्गल बाबा ने भी बड़ी तपेस्सा की। उन्होंने ब्याह नहीं किया और कमा-कमा कर हर साल साढ़े तीन सौ गिन्नी मरकस बाबा को देते गए। जो एङ्गल बाबा ने यह तपस्या न की होती, तो बाबा के ऊपर और आफत आती। बड़े बाबा ने एङ्गल बाबा को एक चिट्ठी में लिखा था— ‘तुम्हारे बिना मैं कभी अपने काम को पूरा न कर सका होता। सिरिफ मेरे लिए तुमने अपनी जबरजस्त बुद्धि को बेकार जाने दिया और गलाघोंटू व्यौपारी जिनगी अपनायी।’
सन्तोखी: क्या एङ्गल बाबा व्यौपारी थे भैया?
भैया: हाँ, उनके बाप का कारखाना था, उसी को एङ्गल बाबा ने सँभाला लेकिन वह कितना ऊब गये थे, यह उनकी इस चिट्ठी से मालूम हो जाता है— “मैं किसी चीज को उतना नहीं चाहता, जितना कि इस व्यौपारी की जिनगी से भाग निकलने को।” बाबा के जीवन में ही (18 मार्च 1871 में) पेरिस के कमेरों ने वहाँ से जोंकों का राज कुछ महीनों के लिए उठा दिया। कमेरों की तागत अभी उतनी मजबूत नहीं थी, इसलिए जोंकों ने फिर हजारों मजूरों को कतल कर के अपना राज जमा लिया। लेकिन पेरिस के कमेरों ने जितना अच्छी तरह से अपना राज चलाया, उससे यह पता लग गया, कि कमेरे जोंकों को हटा सकते हैं और अच्छी तरह राज चला सकते हैं। पेरिस के कमेरों ने क्या गलती की थी, इसे बाबा ने लिख दिया था। फिर 46 वर्ष बाद जब रूस के कमेरों ने जोंकों का राज उलटा, तो उस बखत बाबा की वही सिच्छा बड़े काम आई। 41 साल तक कमेरों की लड़ाई लड़ते-लड़ते बाबा ने आखिर 65 साल की उमर में (14 मार्च 1883 को) देह छोड़ा। लन्दन के हाई गेट के कबरिस्तान में अब भी बाबा की समाधि है। कौन होगा जो बाबा की समाधि पर फूल चढ़ाने की लालसा न रखता हो? बाबा के मरने पर एङ्गल बाबा ने लिखा था—“मानुख जात के पास जितने दिमाग हैं, उनमें सबसे बड़ा दिमाग आज खो गया। कमेरा-दल की लड़ाई चलती रहेगी, लेकिन वह दिमाग चल बसा, जिसकी ओर फ्रांस, रूस, अमेरिका और जर्मनी के कमेरे गाढ़ के समय आँख दौड़ाते थे और वह दिमाग सदा बहुत साफ दो-टूक सलाह देता था।”
दुखराम: धन्न है भैया! मरकस बाबा और धन्न हैं सती जेनी माई।
भैया: सती जेनी की तपेस्सा की बहुत सी बातें हैं, जिनको सुनने पर आँसू रोकना मुसकिल है। अब दुक्खू भाई, बाबा की मोटी-मोटी सिच्छा सुनो।
दुखराम: हाँ भैया! वह जरूर सुनाओ।
भैया: बाबा ने पहली बात यह बतलाई कि रोटी, कपड़ा, घर आदमी को सदा से जरूर रहे हैं, इनको पैदा करना मानुख का सबसे पहला काम रहा है। मानुख इनके पैदा करने के लिए नये-नये हथियार, नये-नये ढंग सोचता रहा है, जिससे रोटी-कपड़ा-घर के पैदा करने का ढंग बदलता रहा है। वह पहले सिकार करके जीता था, फिर खेती करने लगा, खेती से फिर कारीगरी की ओर बढ़ा, कारीगरी से व्यौपार होने लगा, व्यौपार से कारखाने के ढंग पर चला आया। पैदा करने का ढंग जैसे-जैसे बदलता गया, वैसे-वैसे मानुख की जमात भी बदलती रही और पहिली जमातबन्दी टूटती गई। सिकार और फल जमा करके जीविका करते समय माई का राज और सबका एक परिवार चलता था। लेकिन जब खेती आई, ताँबा आया, तब वह पुराना ढाँचा नहीं चल सकता था। रोटी-कपड़ा वगैरह पैदा करने के ढंग के बदलने के साथ ही मानुख-समाज के ढाँचे को बदलने से रोका नहीं जा सकता। और जब ढाँचा बदलता है, तो उसका कानून, आचार-विचार सब बदलता है, आदमी का मन तक बदल जाता है। बाबा ने एक जगह लिखा है कि रोटी-कपड़ा इत्तादि के पैदा करने का ढंग बदल गया। और जहाँ मानुख पुराने ढर्रे को छोड़ना नहीं चाहता, पुराने ही तरह का मालिक-मिल्कियत का ख्याल रखता है, वहाँ तो दोनों का संग्राम छिड़ जायगा।
दुखराम: भैया! थोड़ा समझा के कहो।
भैया: देखो, जब कपड़ा चरखा और करघा से बनता था, घर-घर में लोग चरखा चलाते थे और गाँव का जुलाहा कपड़ा बुन देता था; उसी तरह बढ़ई लोहार भी अपना-अपना काम करते थे। तब गाँव अपने काम की करीब-करीब सभी चीजों को पैदा कर लेता था, सबको चीज भी मिल जाती थी, सबको काम भी मिल जाता था। यह उस समय की बात है, जब रोटी-कपड़ा के पैदा करने का ढंग सिरिफ हाथ से किया जाता था। इसके बाद भाप की कल-मसीन बनी। कल-मसीन ने इतना सस्ता कपड़ा और चीज तैयार किया, कि हाथ की कारीगरी चौपट हो गई।
दुखराम: यह तो देखा है भैया! हमारे देस के सब जुलाहे करघा छोड़के चटकल-पटकल में भाग गए।
भैया: तो अब पौनी-परजा, मालिक-जजमान ओगैरह वाला गाँव का ढाँचा टूटने लगा कि नहीं?
दुखराम: बहुत टूट गया भैया! और टूटने के लिए लोग हाय-हाय करते हैं, कलजुग का दोख देते हैं। लेकिन जान पड़ता है भैया! यह किसी का दोख नहीं है। पाथर, ताँबा, लोहा, कल, मसीन जैसे-जैसे नई चीज, नया ढंग आदमी के हाथ में आता गया, वैसी ही मानुख-जाति का ढाँचा भी बदलता गया। टिटिहिरी के पैर रोपने से आसमान ऊपर नहीं टँगा रहेगा।
भैया: इसी तरह का एक और संकट भी आया है। कल-मसीन से अन्न भी बेसी पैदा किया जा सकता है। रूस और अमेरिका में नई-नई खाद और मोटर का हल लगाकर बिगहा पीछे चालिस-चालिस, पचास-पचास मन अनाज पैदा करते हैं और एक-एक खेत में नहीं समूचे देस में। इसी तरह चीनी, कपड़ा, लालटेन दुनिया की खाने-पहनने और रहने की सभी चीजें कल-कारखानों में इतनी पैदा की जा सकती हैं, कि सारी धरती के दो अरब लोग एक साल की उपज से दो-दो साल तक खूब आराम से रहें। लेकिन हो क्या रहा है? दुनिया में गरीबी बढ़ रही है, लोग और ज्यादा नंगे-भूखे रह रहे हैं।
दुखराम: इसका कारन तो जोंकें ही हैं भैया?
भैया: हाँ, जोंकें ही हैं दुक्खू भाई! लेकिन उसको इस तरह समझो। अब एक-एक बढ़ई, लोहार अपना-अपना हथौड़ा, बसूला लेकर अलग-अलग काम तो नहीं कर सकता। कारखानों के कारन अब सभी काम साझे में एक-दूसरे से मिलकर करना होता है। यह छोटी-सी सुई जो बनकर आती है, वह भी सैकड़ों हाथों में तैयार होती है। काम साझे में— सबको मिलकर करना होता है लेकिन चीजों का मालिक है जोंक। जोंक कहती है, यह हमारी चीज है, इसलिए हम 20) की चीज बनाने वाले मजूर को 75 पैसे देंगे, किसान को उसके कपास का 1) देंगे। और बाकी दाम को वह अपने पास रखना चाहती है। लेकिन सुई वाली जोंक नफे में सुई अपने पास रखना नहीं चाहती। वह चाहती है कि उसका सब माल बिक जाय। लेकिन बिकने के लिए पैसा चाहिए। किसान को उसने 1) दिया, मजूर को 75 पैसे दिया, कमेरों के हाथ में कुल मिलाकर पौने दो रुपया गया। अब बताओ 20) की चीज वह कैसे खरीदें?
दुखराम: तो भैया! यही न हुआ कि जोंकें हमारे पास पैसा भी नहीं आने देती और बेसी माल पैदा करके खरीदने को कहती है!
भैया: हाँ, इसीलिए तो जोंकों का दिवाला निकलता रहता है। जब माल बेसी हो जाता है और खरीदने वालों के पास पैसा नहीं रहता, तब भारी सस्ती लग जाती है। याद है न बीस-इक्कीस बरस पहले की बात?
दुखराम: मत कहो भैया! उस बखत तो अनाज इतना सस्ता लग गया था कि बेंचकर जमीदार की मालगुजारी भी हम बेबाक नहीं कर सके थे। कितनों की जमीन नीलाम हो गई। बड़ी साँसत हुई।
भैया: एक ओर लोग सस्ती होने पर भी पैसे बिना कपड़ा नहीं खरीद सकते थे और दूसरी तरफ कपड़ा गोदाम में सड़ रहा था। जब पहिले ही का कपड़ा गँजा हुआ है, तो नया कपड़ा क्यों बनवाया जायगा? जोंकों ने उस मन्दी के दिनों में करोड़ों मजदूरों को काम से निकाल दिया। कारखाने बन्द हो गये।
सन्तोखी: तब तो भैया! इन करोड़ों मजूरों के पास भी पैसा नहीं रहा कि माल को खरीदें। इससे तो माल गोदाम ही में सड़ेगा न, कौन उसे खरीदेगा?
भैया: इसी को कहते हैं कबीर साहब की उलटबाँसी ‘पानी में मीन पियासी।’ एक ओर उसी अमेरिका में बेरोजगार होने से करोड़ों मजूर भूखे मर रहे थे, दूसरी ओर अमरीका की जोंकों की सरकार ने 1933 में पचास लाख सूअर खरीदकर मरवाकर फेंक दिये— भूखों को खाने के लिए नहीं दिया!
दुखराम: आततायी! जोंकों को क्या दया-माया होगी!
भैया: डेनमार्क देस में हर हफ्ता 1500 गाएँ मारकर उनका माँस जमीन में गाड़ दिया जाता था, अरजनतीन देस में लाखों भेड़ों को मारकर नस्ट कर दिया गया। अमेरिका में लाखों मन गेहूँ को आग में झोंक दिया, जहाजों भरी नारंगियाँ समुन्दर में फेंक दी गईं।
सन्तोखी: भैया! क्या दुनिया बौरा गई।
भैया: दुनिया की बात मत कहो, सन्तोखी भाई! दुनिया तो भूखों मर रही है। यह जोंकों का कसाईपन है। वह सोचते थे कि दो रुपया मन गेहूँ है, जो पचास लाख मन गेहूँ और बजार में चला आया, तो वह और सस्ता हो जायगा! फिर नफा कहाँ से मिलेगा; इसलिए पचास लाख मन गेहूँ या पचास लाख सूअरों को बरबाद कर दिया गया, जिसमें कि बाजार में बाकी जो चीजें वह भेजेंगे, उसका दाम ज्यादा मिलेगा।
सन्तोखी: हाँ भैया! बाजार में माल कम और गाहक ज्यादा हो तो दाम चढ़ जाता है।
भैया: यही दाम चढ़ाने के लिए जोंकों ने आदमी के मुँह का आहार, तन का कपड़ा सब चीज बरबाद किया।
दुखराम: और नये गाहक ढूँढ़ने के लिए जर्मन जोंकों ने सैंतिस साल पहले वाली लड़ाई छेड़ी।
भैया: और पिछली लड़ाई भी जोंकों ने उसी मतलब से छेड़ी है दुक्खू भाई! बाबा ने कहा था, कि जैसे दुनिया भर की चीजें सब मिलकर पैदा करते हैं, उसी तरह सबको मिलकर उन चीजों का मालिक बनना चाहिए, तभी दुनिया में सुख-सान्ती होगी।
दुखराम: मिलकर मालिक बनना कैसे होगा भैया?
भैया: जैसे दुक्खू भाई! तुम्हारे घर में पचास परानी हैं, कोई खेती देखता है, कोई गाय-भैंस देखता है, कोई रसोई देखता है, मतलब कि परिवार का हर आदमी रोटी-कपड़ा आदि के लिए कोई न कोई काम करता है। घर में तो कायदा है न, कि सब लोगों के खाना, कपड़ा इत्तादि का काम किया जाय। अब तुम ऐसा कायदा चलाओ— नहीं, हम तो सबके काम की मजूरी देंगे और दो रुपया के काम की चार आना से बेसी नहीं। अब इसका फल क्या होगा? जितना काम लोगों ने किया है, उसका आठवाँ ही हिस्सा मजूरी में उनके पास क्या होगा, वह सब चीज को खरीद नहीं सकेंगे। अब यही जोंकों वाली बलाय आएगी कि नहीं?
दुखराम: हाँ भैया! आठ भागों में सात भाग को खरीदने के लिए किसी के पास पैसा ही नहीं होगा, तब वह चीज सड़ेगी कि नहीं। लेकिन ऐसा परिवार कहाँ होगा?
भैया: हाँ, यह जोंकें ही कर सकती हैं। मरकस बाबा कहते हैं, कि नफा की यह बात उठा देनी चाहिए और लोग एक परिवार की तरह साथ ही चीज पैदा करें और साथ ही भोगें।
दुखराम: तब जोंकें कहाँ रहेंगी भैया!
भैया: इसलिए तो बाबा कहते हैं, कि जोंकों का काम खतम हो गया, उन्होंने राजाओं की तागत को नस्ट करके कल-कारखानों का रास्ता दिखला दिया; अब उनका एक दिन भी जीना करोड़ों आदमियों को भूखों मारने और लड़ाइयों में कतल होने के लिए होगा!
दुखराम: यह बात बहुत पक्की है भैया!
भैया: दूसरी बात बाबा ने बताई, कि मानुख जाति में जब से जोंकें पैदा हुईं, तभी से जोंकों और कमेरों का झगड़ा सुरू हुआ और यह तब तक बन्द नहीं होगा, जब तक कि जोंकें खतम न हो जाएँगी। जोंकें अहिंसा और दया का ढोंग भले ही करें, लेकिन वह अहिंसा-दया पर कभी बिस्वास नहीं करतीं। सौ में पंचानबे कमेरे (मजूर) हैं और पाँच जोंकें हैं। उन्होंने पंचानबे आदमियों को पुलिस-पलटन-जेल के बल पर दबाकर रक्खा है। एड़ी से चोटी तक जोंकें हथियार से लैस हैं, उनका सारा राज-पाट हिन्सा, खून, लूट, झूठ और धोखा पर हैं। वे किसी साधू-महात्मा की बचन में आकर गले में कंठी बाँध लेंगी, यह सोचना पागलपन है। जोंकों को और बड़े हथियार से और बड़े संगठन से और बड़े त्याग के कल-बल से पछाड़ना होगा, उनका हथियार छीनना होगा और पूरी तरह मीस-मास देना होगा।
दुखराम: देखता हूँ भैया! मरकस बाबा ने जो भी कहा है, वह एक-एक बात मेरे दिल में घुसती चली जा रही है। बाबा ने धोखे वाली बात नहीं कही है। सुनते हैं महात्मा गाँधी तालुकदारों-जमींदारों, सेठों-साहूकारों को कंठी पहिनाना चाहते थे और कितने लोग तो कहते फिरते, कि गाँधी महात्मा ने सेर-बकरी को एक जगह पानी पिला दिया। लेकिन मुझे यह बात तो धोखा की मालूम होती है। बच्चा जब नहीं सोता है, तो माँ लोरी गाती है, जिससे वह सो जाय। मुझे तो यह लोरी ही जैसी मालूम होती है।
भैया: गाँधी महात्मा के रास्ते के बारे में मैं फिर कहूँगा दुक्खू भाई! और गाँधी बाबा ने कोई नई बात नहीं कही है। महात्मा बुद्ध, ईसामसीह और भी सैकड़ों महापुरुख कंठी बाँधकर सेर को भेड़ बनाने की कोसिस करते रहे, लेकिन कोई सफल नहीं हुआ। जोंकों को कहीं कंठ भी है, कि उसमें कंठी बाँधी जायगी? घोड़ा घास से यारी करेगा तो जिन्दा रहेगा? जोंकों को खतम कर देना, बस यही रास्ता है।
Posted by rajneesh mangla कोई टिप्पणी नहीं:
जोंक-पुरान
सन्तोखी: भैया! बेचारा दुखराम आज बड़ी देर तक हल चलाता रहा। कातिक की भीड़ है न, आता ही होगा।
भैया: वह देखो, पेट पर हाथ फेरते दुक्खू भाई आ रहे हैं, कहो दुक्खू भाई! आज बहुत डकार लेते चले आ रहे हो।
दुखराम: क्या पूछते हो भैया, आज मलकिन ने पूरी व खीर बनाई थी, हम गरीबों को छठे-छमाहे कभी कुछ अच्छा खाना मिल जाता है, तो अपने को धन्न-धन्न समझने लगते हैं।
भैया: जो जोंकें न रहें तो छठे-छमाहे क्यों, रोज अच्छा-अच्छा भोजन मिल सकता है और तेल की पूरी और गुड़ की बखार नहीं खालिस घी की बनी पूड़ी और दूध-चीनी की बनी खीर।
दुखराम: हाँ भैया, यह हो सकता है, इतनी-इतनी जोंकें जो हमारे गेहूँ, घी-चीनी को छोड़ देंगी, तो क्यों नहीं हम मौज से खायें-पियेंगे?
भैया: तो कल हमने जोंकों का जनम बतलाया था। अब उसकी बाललीला, जवानी और मरने की घड़ी की बात सुनो।
सन्तोखी: मरने की घड़ी भी? क्या भैया, जोंकों के मरने की घड़ी आ गयी?
भैया: मैंने बतलाया नहीं कि दुनिया के चार भाग में से एक भाग रूस में अब जोंकें नहीं हैं। रूस में जोंकों के मरने की घड़ी आज से सत्ताईस बरस पहले बीत चुकी, चीन में अभी-अभी, लेकिन बाकी तीन भाग में जोंकें अब भी हैं और बड़े जोर से। यही समझ लो कि सिरिफ एक सूबा में पाँच-छः महीने के भीतर साठ-साठ लाख आदमियों की जान लेना बतला नहीं रहा है, कि वह कितनी भयंकर हैं!
सन्तोखी: हाँ भैया! हम तो भगवान से रोज मनाते हैं कि कब यह जोंकें जाएँगी!
दुखराम: फिर सन्तोखी भाई, तुमने भगवान का नाम लिया!
सन्तोखी: दुक्खू भाई, नाराज मत हो। न हमने भगवान से अवतार लेने के लिए कहा और न पाव-पियादे दौड़ने के लिए। भैया की बात हमें ठीक मालूम होती है; भगवान इतनी गाढ़ी नींद में सोये हैं कि लाख दो लाख बरस में भी उनके जागने की उमेद नहीं है।
दुखराम: वह सदा के लिए सो गए हैं, सन्तोखी भाई! मैं तो यही मानता हूँ।
भैया: तो दुक्खू भाई, जोंकों की बाल-लीला और पहिले की कथा मैं बहुत सनछेप में कहूँगा, पीछे कथा को तुम्हें जियादा सुनना चाहिए!
दुखराम: हाँ भैया, पीछे ही की जोंकों से तो हमें पाला पड़ा है।
भैया: मैंने बतलाया था कि पहिले इसतिरी मुखिया होती थी, सारा परिवार उसका होता था, सबको ठीक से रखना, सबकी देख-भाल करना उसी का काम था। पचीस, पचास या सौ का जो भी परिवार होता, उसकी मुखिया या महामातर इसतिरी होती थी। कभी दो-दो परिवार में खून-खराबी भी होती थी।
दुखराम: खून-खराबी क्यों होती थी भैया, वहाँ तो जोंकें नहीं थीं।
भैया: जंगल के लिए झगड़ा हो जाता था। जिसका परिवार बढ़ जाता, उसे अधिक सिकार, अधिक फल बटोरने की जरूरत पड़ती थी।
सन्तोखी: तो वे उन्हीं पत्थर, सींग और लकड़ी के हथियारों से लड़ते होंगे?
भैया: वही तो उनके पास हथियार थे, उन्हीं से वे बैल, हरिन और भालू का सिकार करते थे, लेकिन जानते हो न जिसके पास आदमी ज्यादा, वही लड़ाई में जीतता था, हथियार तो सबके पास एक से थे। इसी वास्ते बलवान परिवार से बचने के लिए कितने ही छोटे-छोटे परिवार एक हो जाते हैं, इसको कहा जाने लगा जन।
सन्तोखी: हम लोग तो एक जन दो जन कहते हैं, एक आदमी, दो आदमी के वास्ते।
दुखराम: और जन-मजूर भी कहते हैं, कमकर के वास्ते।
भैया: लेकिन पहले-पहल जन एक आदमी या मजूर के लिए नहीं बोला जाता था। उस बखत कई परिवारों को मिलाकर जो एक बड़ा परिवार बनता, उसी को जन कहते हैं।
दुखराम: माने कई महामाताओं के परिवारों को इकट्ठा कर दिया जाता था।
भैया: हाँ, इसी को जन कहते थे। जन वाले जुग में भी जोंके पैदा नहीं हुई थीं। जोंके तब पैदा हुईं, जब पसुओं को पाल के मरद धनवाला बन गया, वह महापितर बन गया और दूसरों की कमाई उसे मुफत में मिलने लगी। धीरे-धीरे आदमी ने खेती करना सीखा, फिर चमड़े का सीना, फिर सूत का कातना और आखिर में कपड़ा भी बुनने लगा। अब उसके पास ऐसी चीजें आने लगीं कि जिन्हें वह बरस-दो बरस रख सकता था। सिले चमड़े को देकर खाने-पीने की चीजें बदल सकता था, कंबल से भी अपने मन की चीज़ बदल सकता था। उनके भीतर या महापितर के बड़े गिरोह के भीतर कभी-कभी झगड़ा-वगड़ा हुआ, तो उसका फैसला तो आपस ही में हो जाता था, लेकिन बाहर के लोगों से जब-तब लड़ाई होती थी। खेती सुरू करने के बाद तो आदमी घर में रहने लगा।
सन्तोखी: पहिले क्या घर में नहीं रहता था?
भैया: पहिले सिकार और फल के पीछे एक बन से दूसरे बन में घूमता रहता था। अब ढोर-डंगर पोसने लगा, तो जहाँ चराई का सुभीता होता, वहाँ चला जाता। लेकिन खेती सुरू कर देने पर वह कैसे जाता?
दुखराम: तो खेती आदमी के लिए खूँटा हो गई, अब वह बँध गया।
भैया: हाँ बँध गया, अब उसने अपने लिए घर बनाया। दूसरे गिरोह से बचने के लिए सब लोगों ने अपना घर पास में बनाया, जिसमें दुसमन से लड़ने के लिए जल्दी एक दूसरे की मदद कर सकें। पास-पास के घरों को गाँव कहा गया, क्योंकि ग्राम का मतलब है झुन्ड।
दुखराम: घरों का झुन्ड, यही मतलब है न गाँव का?
भैया: हाँ, महापितरों के जुग में लड़ाई और बढ़ी, क्योंकि दुसमन को हराने से सब पसु, सारा धन उसे मिल जाता था। महापितर मुखिया था। उसको लूट का माल ज्यादा मिलता था और दूसरों को थोड़ा-थोड़ा।
सन्तोखी: तो धनी-ग़रीबी का फरक और बेसी हुआ। हारे लोगों के बचे हुए आदमियों को क्या करते थे?
भैया: पहिले तो, जो मरद मिलता, सबको मारते; जो औरत हाथ आतीं, उन्हें अपने में बाँट लेते।
दुखराम: तो मरद कोई नहीं बचने पाता था?
भैया: हाँ, मरद का परान नहीं छोड़ते थे। लेकिन पीछे खेती के काम के लिए, चमड़े-जूते के काम के लिए, कपड़ा-मिट्टी का बर्त्तन बनाने के वास्ते आदमियों की अधिक जरूरत पड़ने लगी!
दुखराम: बेसी माल तैयार हुआ तो बदलकर खूब बेसी माल हाथ लगेगा, यही सोचकर न भैया?
भैया: हाँ, इसीलिए पहिले लड़ाई में हारे सतरू को कैदी नहीं बनाते थे, कौन उसे घर बैठाकर खिलाता! लेकिन जब देखा कि आदमी हाथ से मेहनत करके अपने खाने से दुगुना-तिगुना पैदा कर सकता है, तो हारे मरदों को कैदी बनाने लगे। इन्हीं को दास या गुलाम कहा जाता।
दुखराम: तो यह गुलाम दूसरे लोगों में बाँट दिए जाते होंगे?
भैया: हाँ, अच्छे-अच्छे दास और दासी महापितर को मिलते, बाकी को और लोग बाँट-चोट लेते।
सन्तोखी: तो यह दास-दासी भी ढोर की तरह ही हुए?
भैया: वह भी मालिक के धन थे, वह मालिक के लिए काम करते थे। यह जुग हुआ गुलामी का।
दुखराम: जनु तब से गुलाम बनाने का रिवाज हुआ।
भैया: गुलाम को मालिक खाना-कपड़ा देता था। नहीं देता तो वह मर जाता, फिर उसका नुकसान होता। जानते हो न दुक्खू भाई! गुस्सा होने पर बैल को मारते हैं, लेकिन इतना नहीं मारते कि वह मर जाय।
दुखराम: हाँ भैया! कौन अपना नुकसान करेगा?
भैया: गुलामों के आने से अब कम्बल, जूता-चमड़ा और कई तरह की चीजें बहुत इफरात बनने लगीं। लोग उन्हें आपस में बदलने लगे। बदलने के सुभीते के लिए हाट लगने लगी। सब लोग अपना-अपना माल ले आते थे और जिसको जो लेना होता, उसे अपनी चीज से बदल लेते थे। लेकिन कभी-कभी हाट में, आदमी को अपने काम की चीज जल्दी नहीं मिलती या अपनी चीज के खाहिसमन्द नहीं मिलते, तो आदमी को बहुत हैरान होना पड़ता। सब काम-धन्धा छोड़कर दो-दो, तीन-तीन दिन हाट अगोरना पड़ता। फिर लोगों ने गाँव पीछे एक-दो आदमी के जिम्मे अपनी चीज लगा के छुट्टी ली। जो आदमी हाट अगोरता, उसने दूसरों के लिए भी अपना काम-धन्धा छोड़ा, इसलिए सब लोग अपने माल में से उस आदमी को कुछ दे देते थे।
दुखराम: जैसे भँड़भूजा को भूनने के लिए हम लोग थोड़ा-थोड़ा अनाज दे देते हैं।
भैया: हाँ, तो पहिले तो हाट अगोरने वाला अपने गाँव के दो-चार घरों की जिम्मेदारी लेकर बैठता था और सो भी कभी-कभी। फिर वह गाँव भर की जिम्मेवारी लेने लगा और बराबर हाट में बैठा रहता। उसका रूप अब कुछ-कुछ बनिया जैसा था। लेकिन अभी दो आदमियों की चीजों की अदला-बदली में वह खाली एक ओर का बिचवई था, फिर वह दोनों ओर से बिचवई बन गया। जब उसके पास बेसी नफा जमा हो गया, तो वह हर तरह की चीज को अपने पास रखने लगा। इन चीजों को महँगा किया और दूसरी चीजों को सस्ते में खरीदा, अब वह पूरा बनिया हो गया।
सन्तोखी: लेकिन रोजगार तो था चीज से चीज से बदलना ही न?
भैया: लेकिन जब ताँबा मिल गया, लोगों ने देखा कि उसकी धार पत्थर और हड्डी से ज्यादा तेज है, उसकी मार आदमी और पेड़ को काटकर गिरा सकती है, तो सभी लोग ताँबे के हथियार रखना चाहने लगे। लेकिन ताँबा पैदा होता था थोड़ा, चाहने वाले ज्यादा थे। एक-दूसरे ने चढ़ा-उतरी कर के ताँबे का दाम और बढ़ा दिया। दस मन गेहूँ के लिए दस सेर ताँबा काफी समझा जाने लगा। अब बहुत से लोग दस मन गेहूँ ढोकर ले जाने की जगह दस सेर ताँबा ले जाने लगे। एक छटाँक ताँबा भी पास रहने से अढाई सेर गेहूँ ढोने का काम नहीं था।
सन्तोखी: तो ताँबा पैसे-रुपये का काम देने लगा।
भैया: हाँ, पहले-पहल पैसे-रुपये ने इसी सरूप में औतार लिया। महापितर गुलामों के कमाये धन से और मोटी जोंक बन गया और इधर बनिया दूसरी जोंक तैयार हो गया।
दुखराम: उस बखत जो जोंकें न पैदा हुई होतीं भैया?
भैया: तो बहुत बुरा हुआ होता दुक्खू भाई! गाड़ी ही रुक जाती। आदमी पत्थर और सींग के हथियार ही चलाता रहता और हारे दुसमन को बीन-बीनकर मारता रहता।
सन्तोखी: तो जोंकों ने कुछ फायदा भी किया था?
भैया: जो फायदा न पहुँचाया होता, तो जोंकें पैदा ही नहीं होतीं। लेकिन देख रहे हो न, जोंकों की दो जाति अब तैयार हो गई।
दुखराम: गिरोह का सरदार और बनिया, यही दोनों न भैया?
भैया: ठीक! गुलामों के जुग से हम और आगे बढ़े। महापितर या सरदार तो अभी साथ चटाई पर बैठने वाले चौधरी थे, लेकिन उसके पास धन ज्यादा था, लौंडी-गुलाम ज्यादा थे। वह खिला-पिला के बिरादरी के लोगों में से भी कितने ही को फोड़ लेने में सफल हुआ। वही आगे चलकर राजा बन गया।
सन्तोखी: तो अब राजसी ठाट और हजार रनिवासों का युग आ गया।
भैया: अब बड़ी मोटी और भयंकर जोंक तैयार हो गई। वह सभी छोटी-बड़ी जोंकों को अपने छतरछाया में रखने लगी। लेकिन लोग तो समझते थे कि वह कल तक हमारी बिरादरी का चौधरी था, एक साथ चटाई पर बैठता था। राजा ने समझा कि हमारी नींव अभी मजबूत नहीं है। जाति का चौधरी होने से तैंतीसों कोटि देवता के सामने बलि देना, पूजा करना, महापितर ही का काम था। वह ओझा भी था, पुरोहित भी था और जाति का चौधरी भी।
दुखराम: ओझा भी था! जोंक ओझा भी हो जाय, तो खैरियत नहीं।
भैया: ठीक कहा दुक्खू भाई! महापितर अपने काम की जो कोई बात करवाना चाहता, तो आँख लाल-लाल कर के सिर हिला देवता के नाम से कह देता। और उस समय आजकल से बेसी देवता थे।
दुखराम: लोग भी बहुत सीधे-सादे रहे होंगे भैया?
भैया: बहुत सीधे-सादे, लेकिन जब लड़ पड़ते तो उनका दिल भी बहुत कठोर होता। लेकिन महापितर या जाति का बड़ा चौधरी एक खून की बिरादरी का ही अगुआ होता था। राजा की तागत ज्यादा थी, हथियार भी चोखे थे। वह अपने धन का लोभ दिखा बिरादरी में बेसी फूट डलवा सकता था। उसको एक बिरादरी पर संतोख नहीं हुआ, वह कई बिरादरियों को हराकर उनका राजा बन गया।
दुखराम: तो जमात बढ़ती ही रही?
भैया: हाँ, माई से महामाई की जमात बड़ी थी, महामाई से पितर की जमात बड़ी थी, पितर से सैकड़ों गुलाम रखने वाले महापितर की जमात बड़ी हुई। महापितर से भी बड़ी जमात राजा की बनी। लेकिन महापितर तक कुछ भाई-चारा था। अब राजा ने बिरादरियों से अपने को ऊपर कहना सुरू किया। लेकिन लोग कैसे मान लेते, इसलिए उसने ओझा-सोखा से मदद ली। किसी बड़े होसियार ओझा को अपना पुरोहित बनाया। उसने देवता के नाम से राजा को देवता बनाना सुरू किया। इसके लिए राजा पुरोहित को भेंट चढ़ाने लगे।
दुखराम: तो भैया! पुरोहित एक और बड़ी जोंक पैदा हो गया।
भैया: देखा न दुक्खू भाई! कैसी हमारी-तुम्हारी आँख पर एक के बाद एक नए-नए पट्टर बाँधे जाने लगे।
सन्तोखी: जोंकों ने चारों ओर अपना जाल फैला दिया।
भैया: और कमेरे उस जाल में फँसने लगे। उनका बल घटने लगा। कमेरे देस भर में बिखरे हुए थे, उनका कोई मजबूत दल नहीं था। राजा ने लोभ देकर कमेरों के बहुत से लड़कों को सिपाही बना लिया।
दुखराम: इसी की कहते हैं काँटे से काँटा निकालना। कमेरे जिसमें कान-पूँछ न हिलाएँ, इसलिए उन्हीं के लड़कों के हाथ में तलवार दे दी।
भैया: दुनिया में राजा लोग खूब मजबूत होने लगे। अपना राज बढ़ाने के लिए और बेसी लोगों का खून चूसने के लिए एक-दूसरे से लड़ने लगे। फिर बड़े-बड़े राज कायम हुए। दूर-दूर के देसों पर हाथ फैलाये। पुरोहितों का बल और धन भी बढ़ा, व्यौपारियों का व्यौपार भी खूब चमका। इसी बीच में लोहा निकल आया और खूब तेज-तेज तलवारें बनने लगीं। पत्थर के रूप में पड़ा सोना-चाँदी भी अलग करके निखालिस रूप में तैयार होने लगा। असरफी, रुपया और ताँबे का पैसा बनने लगा। ब्यौपार में और तरक्की हुई। लखपति सेठ जगह-जगह दिखलाई देने लगे। सेठ, पुरोहित और राजा का खूब गठबंधन था।
दुखराम: चोर-चोर मौसियाउत भाई, सभी जोंकें मिलकर कमेरों का खून चूसने लगीं।
भैया: व्यौपारी कारीगरों-किसानों के पैदा किए हुए धन को दुगुने-तिगुने दाम पर दूर-दूर देसों में ले जाकर बेंचने लगे। गङ्गा में बड़ी-बड़ी नाव, समुन्दर में बड़े-बड़े जहाज चलने लगे। बढ़िया कपड़ा, गहना और सौक की हजार तरह की चीजों की माँग बढ़ी। कमेरों, मजूरों, किसानों को इतनी ही मजूरी मिलती, जिसमें उनका बंस खतम न हो जाय, लाख-दो लाख भूखे मर जायँ, तो उसकी कोई परवाह नहीं, लेकिन देस के देस में कोई दिया-बत्ती जलाने वाला न रह जाय, इस बात को जोंकें पसन्द नहीं करतीं। जब जोंकें परजा पर दया करने को कहती हैं, तब उनका मतलब यही है कि चिराग न बुझ जाय।
सन्तोखी: उनका अपना मतलब पूरा होना चाहिये, दुनिया जाये चूल्हे-भाड़ में!
भैया: व्यौपार से बनियों को खूब फायदा होने लगा, जिसमें राजा को भी भाग मिलता। हर राजा अपने बनियों की सहायता करने के लिए तैयार रहता था। काठ के बड़े-बड़े जहाज कपड़े के बड़े-बड़े पाल उड़ाते समुन्दर को छान डालते थे। नफा की कुछ न पूछो। ढाका का मलमल बिलायत में जाकर दुगुने-तिगुने नफा में बिकता था। योरूप के बनियों ने देखा कि इस व्यौपार से हमें भी नफा उठाना चाहिए। पहिले इटली वाले व्यौपार करने लगे, फिर पुर्तगाल वाले बनिये चढ़ दौड़े। उसके बाद हालैन्ड भी, फ्रांस भी, इंग्लैंड भी कैसे पीछे रहते। सब जगह के बनियों ने अपनी-अपनी गुट्ट बनाई। उनके राजाओं ने मदद दी। वह काले लोगों के देस की ओर दौड़ पड़े। लेकिन जो समुन्दर में जहाज दौड़ाने और मोल-तोल करने की ही चतुराई से काम चल जाता, तो हिन्दुस्तान के बनिये भी पीछे नहीं रहते।
सन्तोखी: तो गोरों के पास और कौन सी बात थी भैया, जिससे वह दुनिया के राजा बन गए?
भैया: उनके पास बारूद का हथियार था, अच्छी-अच्छी तोपें, बन्दूकें, तमन्चे।
दुखराम: क्या हमारे देस के लोग बारूद नहीं जानते थे?
भैया: हमारे देस वाले तो नहीं जानते थे, लेकिन हमारे पड़ोसी चीन वाले जानते थे।
सन्तोखी: तो चीन वालों ने क्यों नहीं बारूद से काम लिया?
भैया: वह समझते थे कि यह आतिसबाजी के खेल के ही काम की है। चंगेज खाँ नाम का एक मंगोल का सरदार था, उसने अपने घुड़सवारों की मदद से चीन को जीत लिया। बारूद की बन्दूक पहले-पहल उसी ने बनवाई। उसकी फौज दुनिया को जीतती हुई यूरप में घुस गई। मंगोलों से ही यूरप वालों ने बारूद का भेद पाया, उन्हीं से यूरप वालों ने किताब छापने का ढंग सीखा।
सन्तोखी: तो किताब छापने की विद्या यूरप वालों को पहले नहीं मालूम थी?
भैया: चीन छोड़कर किसी को नहीं, हिन्दुस्तान को भी नहीं मालूम थी। हमारे यहाँ भी उल्टा अच्छर खोदकर लोग अपनी-अपनी मुहर बनाते थे, लेकिन उन्हें यह सूझ नहीं आई कि पूरी किताब को लकड़ी पर उल्टा खोदकर छापा जा सकता है।
सन्तोखी: तो चीनी लोग लकड़ी पर उल्टा अच्छर खोदकर किताब छापते थे।
भैया: हाँ, फिर यूरप वालों ने सोचा कि लकड़ी पर एक किताब को उल्टा खोदने से अच्छा यह होगा कि एक-एक अच्छर उल्टा बनाकर रख लिया जाय और उतने ही अच्छरों के जोड़ने से तो बड़- से-बड़ी पोथी बन जाती है, इस तरह एक बार के बनाये उल्टे अच्छर बहुत-सी किताबों के छापने का काम देंगे। लकड़ी का अच्छर टिकाऊ नहीं होता, इसी वास्ते उन्होंने सीसे का अच्छर बनाया।
सन्तोखी: तो यूरप वालों ने दूर तक सोचा?
भैया: बारूद के हथियारों के बारे में भी यूरप वालों ने बहुत दूर तक सोचा और अच्छे-अच्छे हथियार बनाए। आज-कल के इतने अच्छे-अच्छे हथियार तो नहीं, लेकिन उस समय जो हथियार दुनिया में बनते थे, उनसे यह बहुत अच्छे थे।
दुखराम: तो भैया, पत्थर-लकड़ी के हथियार से ताँबे की तलवारों का जमाना आ गया , फिर लोहे की तलवारें, तीर और भाले, फिर बारूद की तोपें ढलने लगीं।
भैया: लेकिन दुक्खू भाई! ताँबे, लोहे और बारूद के हथियारों पर जोंकों ने ही पूरा कबजा किया।
दुखराम: तभी तो हजार आदमी की नकेल एक आदमी के हाथ में है।
भैया: बिलायत के व्यौपारी भी हिन्दुस्तान के व्यौपारी के साथ व्यौपार करने लगे। खूब दुगुना-चौगुना नफा कमाने लगे। हमारे यहाँ के राजा, नवाब आपस में लड़ रहे थे। उन्होंने बिलायत वालों के हथियारों को बहुत मजबूत देखा। वह गोरों को लड़ने के लिए किराये पर रखने लगे। गोरे व्यौपार भी करते थे और किराये पर लड़ते भी थे।
सन्तोखी: हमारे देस वाले अपने ही क्यों नहीं उन हथियारों को बनाने लगे?
भैया: हमारे यहाँ तो सनातन धरम चलता है न? जो चीज जितनी ही पुरानी है, उतनी ही ठीक है। जब नाक तक पानी आ जाता है, तब सनातन धरम का नसा टूटता है, लेकिन “अब पछताये होत का जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत”। गोरों ने कुछ लड़ाइयों में अपने हथियारों की सफलता को देखा, हिन्दुस्तान वालों को एक-दूसरे के साथ खूब लड़ते देखा; फिर बिलायती बनियों की कम्पनी ने व्यौपार के साथ-साथ देस जीतने का काम भी अपने हाथ में ले लिया।
सन्तोखी: तो इस तरह हिन्दुस्तान में कम्पनी बहादुर का राज कायम हो गया?
भैया: हाँ, बिलायती बनियों के गुट को कम्पनी बहादुर कहते हैं।
दुखराम: मैं तो समझता था कि कम्पनी बहादुर कोई राजा है।
भैया: कम्पनी कहते हैं, गुट्ट को दुक्खू भाई! 1757 ई0 से अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान में अपने राज की नींव मजबूत कर ली।
दुखराम: राजा भी जोंक, बनिया भी जोंक और जब वही आदमी राजा और बनिया दोनों हो, तो देह में कहाँ से खून बच पाएगा।
भैया: आज सौ बरस हुए, मरकस बाबा ने लिखा था कि हिन्दुस्तान के छः करोड़ आदमी जो कुछ साल भर में कमाते हैं, वह सब बिलायती कम्पनी बिलायत ढो ले जाती है।
सन्तोखी: छः करोड़ आदमी की सारी कमाई!
भैया: उस समय हिन्दुस्तान में बीस करोड़ से कम ही आदमी रहते थे; इसलिए हर तीन आदमी में एक आदमी बिलायत वालों के लिए कमाता था। और इस रकम में वह धन सामिल नहीं था, जो कम्पनी के नौकर घूस-रिसवत, चोरी-ठगी से जमा करते थे।
दुखराम: यह मरकस बाबा कौन हैं भैया?
भैया: मरकस बाबा के बारे में दुक्खू भाई! फिर हम किसी दिन बताएँगे। मरकस बाबा ही ने जोंक-पुरान का परदा खोला। उनके ही परताप से कमेरों की आँख का पट खुला। उन्होंने ही बतलाया कि दुनिया को नरक बनाने में कारन यही जोंकें हैं। उन्होंने ही रास्ता दिखलाया कि कैसे जोंकों से पिन्ड छूटेगा और दुनिया नरक से सरग बनेगी।
सन्तोखी: तब तो मरकस बाबा कोई औतार हैं भैया?
दुखराम: किसके औतार हैं सन्तोखी भाई? उन्हीं के तो नहीं जो छीर सागर में सदा के लिए सो गए हैं।
भैया: सन्तोखी भाई का मतलब है कि मरकस बाबा बहुत भारी पर-उपकारी जीव रहे हैं और उनकी सूझ ऐसी रही, जैसी कि और आदमियों में देखने में नहीं आती।
सन्तोखी: हाँ भैया! यही मतलब है, क्या करें जो लबज लोग बोलते हैं, जान पड़ता है, उसी में बहुत खामी है।
दुखराम: खामी ही नहीं, बहुत धोखा है सन्तोखी भाई! और यह सब धोखा जोंकों का फैलाया हुआ है। अपने जान जोंकों ने हमें साँस लेने का भी कोई रास्ता नहीं छोड़ा था। लेकिन उनको क्या पता था कि कमेरों का पच्छ करने वाले मरकस बाबा दुनिया में पैदा होंगे। भैया! तो जो तुम हम लोगों के आँख का पट्टा खोल रहे हो, यह सब मरकस बाबा ही ने बताया है?
भैया: हाँ, दुक्खू भाई! दुनिया में इतना बड़ा नबज पहचानने वाला कोई बैद नहीं हुआ। उसने दुनिया के रोग का कारन बतलाया, फिर दवाई भी बतलाई। उस दवाई को दुनिया के चौथे भाग के लोगों ने खाया, वह आज निरोग हो गए हैं। मरकस बाबा ने यह भी बतलाया कि अब तक जितनी जोंकें पैदा हुई थीं, अब उन सबकी कान काटने वाली सबसे बड़ी जोंक दुनिया में आ गई। इसको घड़े दो घड़े खून से सन्तोख नहीं हो सकता, इसके लिए समुन्दर का समुन्दर खून चाहिए।
सन्तोखी: वह सबसे बड़ी जोंक कौन है भैया?
भैया: पहले जनम होता है, तब नाम रखा जाता है। सुनो जनम की बात। बिलायती बनिये हिन्दुस्तान में राज और व्यौपार दोनों करने लगे— बल्कि राज भी वह व्यौपार ही के लिए करते थे। हिन्दुस्तान का माल वह खरीद-खरीद कर और बहुत कुछ नजर-सौगात में ढो-ढोकर बिलायत ले जाने लगे। हिन्दुस्तान का कपड़ा सौ बरिस पहिले भी बिलायत बहुत जाता था। हिन्दुस्तान के धन से बिलायत कितना धनी हो गया, यह इसी से समझ सकते हो कि जहाँ 1814 ई0 में बिलायत की सारी सम्पत्ति 30 अरब रुपया (230 करोड़ पौंड) थी, वहाँ 61 साल बाद 1875 ई0 में बढ़कर 11 खरब 5 अरब रुपया (8500 करोड़ पौंड) हो गई। इस धन की जो इतनी बढ़ती हुई, उसमें थोड़ा ही बहुत और जगह से आया, बाकी अधिक भाग हिन्दुस्तान से गया।
दुखराम: माने अरब-खरब रुपया हमी लोगों के देह का खून न सींच कर के गया?
भैया: इसे भी क्या पूछना है? कम्पनी बहादुर ने धरम कमाने के लिए थोड़े ही हिन्दुस्तान को अपने हाथ में लिया। बंगाल में कम्पनी का राज कायम होने के बाद 1764-65 ई0 में जहाँ 1 करोड़ 6 लाख 34 हजार रुपया (8 लाख 18 हजार पौंड) मालगुजारी आई थी, वहाँ दूसरे ही साल वह दोगुना कर दी गई (14 लाख 70 हजार पौंड) और कम्पनी के 93 वर्षों के बाद राज्य में मालगुजारी बीस गुना बढ़ गई। और जानते हो इसका फल? अकाल हर दूसरे-तीसरे साल दौड़ने लगे। कम्पनी बहादुर के राज कायम होने के छठवें ही साल (1770) में बंगाल में एक करोड़ आदमी भूखों मर गए।
दुखराम: भैया! तुम चाहे कुछ भी दबाओ और सन्तोखी भाई कितना ही नाराज हों, मैं तो समझता हूँ कि भगवान कहीं भी नहीं हैं, छीर सागर में भी नहीं हैं। कभी पैदा भी हुए हों, तो उनको मरे-मिटे हजारों बरस हो चुके।
सन्तोखी: इतना तो मैं भी कहूँगा दुक्खू भाई, कि एक-एक साल में एक-एक करोड़ या साठ-साठ लाख आदमियों को जोंकें चूसकर मार डालें, फिर भी भगवान औतार न लें, तो उनके सब औतारों की कथा झूठी है।
भैया: हिन्दुस्तान से जो धन दुहा जाता था, उसमें कपड़े का भी बहुत भाग रहता था। बिलायत के कुछ व्यौपारियों ने सोचा कि यदि हम हिन्दुस्तान से भी सस्ता और अच्छा कपड़ा दे सकें, तो उल्टी गंगा बहा देंगे।
सन्तोखी: माने कपड़े के नइहर में कपड़ा बनाकर भेजेंगे।
भैया: इतना ही नहीं, नइहर की ही रूई लेकर, क्योंकि बिलायत में कपास पैदा नहीं होती है। विचार करने वालों ने बुद्धि लड़ानी सुरू की। अठारवीं सदी के अन्त तक भाप के इंजन का पता लग गया और कपड़े बुनने के करघे भाप से चलाए जाने लगे। मसीन की चीज हाथ की बनी चीज से सस्ती होती है।
दुखराम: यह क्यों होता है भैया? हम देखते हैं कि मिल की बनी चीज देखने में बुरी नहीं होती, मजबूत भी होती है, फिर सस्ती क्यों होती है?
भैया: आदमी का जाँगर (परिस्रम या मेहनत) जितना लगता है, चीज का दाम भी उतना ही होता है। गाढ़ा कपड़ा सस्ता होता है और बनारसी किमखाब बहुत महँगा, क्योंकि गाढ़े में आदमी का उतना जाँगर नहीं लगता जितना कि किमखाब में। अब हाथ के करघे पर पुराने ढंग से कपड़ा बुनने में एक आदमी पाँच गज से ज्यादा कपड़ा नहीं बुन सकता है और वह भी हाथ सवा हाथ अरज का। और कपड़े की मिल में एक आदमी दो से चार करघे सँभाल सकता है।
दुखराम: हाँ भैया, उसमें हाथ से ढरकी थोड़ा ही चलानी पड़ती है। सब तो अपने ही आप होता है, कहीं सूत टूट जाता है तो उसे जोड़ देना होता है।
भैया: बुनाई कितनी तेजी से होती है! एक दिन में एक आदमी करघों के मुताबिक सौ, डेढ़ सौ, दो सौ गज तक कपड़ा बिन सकता है। 100 गज लेने पर भी हाथ के करघे से जितना काम 10 आदमी करेंगे, मसीन पर उतने काम के लिए सिरिफ एक आदमी चाहिए। अब तुम्हीं बतलाओ, 10 आदमी के जाँगर से बना कपड़ा सस्ता होगा या एक आदमी के जाँगर से बना उतना ही कपड़ा?
सन्तोखी: एक आदमी के जाँगर वाला भैया। क्योंकि उसमें मजूरी कम देनी पड़ेगी।
भैया: कल वाले कारखानों ने हाथ की कारीगरी को तबाह कर दिया, इसीलिए कि कल लगाने से थोड़े ही आदमी ज्यादा काम कर सकते हैं। कुछ दिनों पहले जानते हो न, चीनी और गुड़ करीब-करीब एक ही भाव बिकते थे! वह इसीलिए कि मिलों में चीनी बनाने में बहुत कम आदमी लगते हैं। देखा नहीं है, एक ओर से बोझा की बोझा ऊख खींची जा रही है और पच्चीसों कलों में होते दूसरे छोर पर दानादार सफेद चीनी बोरे में बन्द होती जा रही है।
दुखराम: कल-मसीन से भैया, चीज बहुत सस्ती तैयार होती है, यह तो हम रोज देखते हैं।
भैया: सस्ती ही नहीं होती दुक्खू भाई! वह इतनी इफरात होती है कि अगर मिल वालों को सस्ती पड़ जाने से घाटा होने का डर न होता, तो थोड़े ही जोर लगाने से आदमी पीछे एक मन चीनी हर साल हिन्दुस्तान में बाँटी जा सकती है। कल-मसीन ने आदमी के खाने, पहिनने, रहने की चीजों को इतना इफरात कर दिया है, कि जो जोंकें बाधा न डालें, तो दुनिया में एक भी आदमी भूखा-नंगा नहीं रह सकता। लेकिन इस बात को अभी हम आगे कहेंगे दुक्खू भाई! अभी तो यही हम बतला रहे थे कि सबसे बड़ी जोंक कैसे पैदा हुई। जब कल-मसीनों को दिमाग वालों ने सोचकर बनाया, तो व्यौपारी तुरंत दौड़ पड़े। उन्होंने सोचा कि अब धुनिया, जुलाहा, लुहार के पीछे दौड़ने की हमें कोई जरूरत नहीं। हम रूई खरीद कर कारखाने में लाएँगे और कल उसका सूत कात कर कपड़ा बना देगी। इसी समय रेल और जहाज वाले इंजन भी बन गये, इसलिए माल एक जगह से दूसरी जगह भेजना भी सस्ता हो गया। व्यौपारियों के पास करोड़ों की पूँजी थी, उन्होंने दिमाग वालों की सोची चीज को तुरन्त ले लिया और सब तरह के लाखों कारखाने खोल दिये। अब नफा का क्या ठिकाना! किसान से रूई खरीद रहे हैं, उससे भी कारखाने वाले को नफा। रेल से भेजते हैं, रेल भी कारखाने वालों की है, उसका भी नफा। जहाज से सामान बिलायत भेजते हैं, उसका किराया लगता है; जहाज भी कारखाने वालों का, फिर कपड़े की मिल भी कारखाने वालों की है, उसका भी नफा है उन्हीं को। उसके बाद कपड़ा हिन्दुस्तान को लौटता है, वहाँ भी हर जहाज और रेल में हर जगह पूँजीपति का नफा धरा हुआ है। पुराने व्यौपारी इतना नफा नहीं कमा सकते थे, क्योंकि वह सिरिफ तैयार माल को एक जगह से दूसरी जगह भेजते थे और आज के यह पूँजीपति कच्ची रूई में हाथ लगाने से लेकर पग-पग पर नफा कमाते हैं।
सन्तोखी: यह ठीक कहा भैया! हम लोग रुपया पीछे पैसा दो पैसा बहुत समझते हैं और यह तो बारह आने के कपास में बीस रुपये की धोती बेचते हैं, फिर इनके नफे का क्या पूछना!
भैया: बिलायत वाले पूँजीपति…।
दुखराम: पूँजीपति क्या है, सो अच्छी तरह नहीं समझा भैया?
भैया: पूँजी तो समझते हो दुक्खू भाई?
दुखराम: रुपया-पैसा, जमा-पूँजी यही न भैया?
भैया: हाँ, यही रुपया-पैसा लेकिन जो रुपया-पैसा कल-कारखाने में लगा है, जिसके कारन पूँजी वाला बारह आने की कपास को बीस रुपये में बेचता है, उसे पूँजी कहते हैं। और जो अपनी पूँजी से इन कल-कारखानों को खड़ा करते हैं, उन्हीं को कहते हैं पूँजीपति। पूँजीपतियों के नफे के सामने व्यौपारियों का नफा कुछ नहीं है।
सन्तोखी: ठीक कहा भैया। जो मारवाड़ी सेठ लोग खाली व्यौपार करते थे, अब सब अपनी चीनी-मिल, जूट-मिल, सीमेन्ट-मिल, कागज-मिल खोलते जा रहे हैं। अब उनका ध्यान कोई दूसरी ओर जाता ही नहीं।
भैया: बिड़ला, डालमिया, सिंघानियाँ, एक ही पीढ़ी पहले खाली व्यौपारी थे, दूसरे कारखाने का माल खरीद कर बेचते थे, थोड़ा सा उन्हें भी नफा हो जाता था। लेकिन अब देख रहे हो न? बिड़ला की कितनी ही चीनी की मिलें, कपड़ा और जूट की मिलें, हिन्द बाइसिकिल कारखाना और अब मोटर का भी कारखाना है। पूँजीपति के नफे के सामने व्यौपारी का नफा कुछ भी नहीं है दुक्खू भाई!
दुखराम: मैंने तो एक बात गाँठ बाँध ली है। जो बारह आने के कपास को लेकर उसे 20) की धोती बना सकता है, उसके नफे के बारे में क्या कहना है।
भैया: बिलायत वाले पूँजीपति दुनिया भर का धन लूट कर अपने घर में गाँज रहे थे, इसे देख कर दूसरे मुल्क वाले कैसे चुप रहते? फ्रांस ने भी कारखाने खोले, अमेरिका ने भी कारखाने खोले, रूस ने भी कारखाने खोले।
सन्तोखी: जापान ने भी कारखाने खोले?
भैया: हाँ, जापान ने भी खोले लेकिन अभी हमको जो समझाना है, उसमें जापान का उतना काम नहीं है। बिलायत ने कारखाना खोला था। पहिले तो दुनिया में और किसी मुल्क में कारखाने खुले ही न थे, इसीलिए ‘चारों मुलक जगीरी में’ उसी के था। लेकिन जब फ्रांस ने कारखाना खोला तो दुनिया में जिन-जिन मुल्कों को फ्रांसीसियों ने अपना गुलाम बनाया था, वहाँ फ्रांस के कारखाने का ही माल बिक सकता था। अमेरिका के पास अपना ही बहुत बड़ा मुल्क है, इसलिए कितने ही साल तक माल बेंचने के लिए उसे गाहक ढूँढ़ने की जरूरत नहीं थी। जर्मनी के लिए आफत थी। वह सबसे पीछे कारखाना खोलने लगा, लेकिन अपनी विद्या-बुद्धि से वह बहुत तेजी से बढ़ा। माल टाल का टाल जमा हो गया, बेंचने के लिए दुनिया में जहाँ भी जाते, जवाब मिलता — हटो, हटो, यह तो हमारा राज है। अफ्रीका में जाते यही बात, हिन्दुस्तान में आते यही बात। अब तुम्हीं बतलाओ, जो चुप लगा जाए तो उसका क्या मतलब होगा?
सन्तोखी: कारखाने बन्द हो जाएँगे, पूँजीपतियों का दिवाला निकल जाएगा और क्या होगा!
भैया: और यह समझो कि अब दुनिया में राजाओं का राज नहीं है।
दुखराम: क्यों भैया, राजाओं का राज नहीं है तो किसका राज है?
भैया: पूँजीपतियों का राज है, कल-कारखाने वाले करोड़पतियों का राज है। आज से तीन सौ बरस पहले (30 जनवरी 1649 ई0) को बिलायत के व्यौपारियों ने अपने राजा चार्ल्स का सिर कुल्हाड़े से काट डाला था, उसी दिन से प्रभुता व्यौपारियों के हाथ में चली गई, लेकिन कारखानों के खुलने और पूँजीपतियों के पैदा होने में अभी डेढ़ सौ साल और लगने वाले थे। व्यौपारियों में से ही पूँजीपति पैदा हुए और पूँजीपतियों को सिर काटने भर से सन्तोख नहीं हो सकता था, बल्कि वह सिर काटने को नुकसान की बात समझने लगे!
दुखराम: नुकसान की बात क्यों मानने लगे?
भैया: जोंक है न! जोंकों को बहुत परदा की जरूरत होती है नहीं तो “उघरे अन्त न होहि निबाहू” राजा के रहने पर खूब बड़ा दरबार लगेगा, झंडा-पताका निकलेगा, सहर सजाया जायेगा, हीरा-पन्ना जड़े मुकुटों को दिखलाकर लोगों की आँख चौंधियायी जायगी, राजपुरोहित भगवान के नाम से उसके सिर पर मुकुट रखेंगे और अबूझ कमेरों की आँख में धूल झोंककर बतलाया जायगा कि यहाँ कोई जोंक नहीं है, यह सब भगवान की दाया-माया है।
सन्तोखी: तो पूँजीपतियों ने माटी की मूर्ती बना के रखना चाहा!
भैया: हाँ, देखा नहीं आठवें एडवर्ड को किसने निकाला? यह वाल्डविन था, वाल्डविन।
सन्तोखी: वाल्डविन कौन था भैया?
भैया: वाल्डविन इंग्लैंड का महामन्त्री था। लेकिन उससे भी बढ़कर वह था गेस्ट, कीन आदि बड़ी-बड़ी कम्पनियों का करोड़पति पूँजीपति।
दुखराम: तब तो भैया राजा कोई रहे, बिलायत के असली राजा तो यही पूँजीपति हैं।
सन्तोखी: और उस समय हिन्दुस्तान के असली राजा?
भैया: जब बिलायत के राजा को ही उन्होंने गुड़िया बना दिया, तो हिन्दुस्तान के बड़े लाट, छोटे लाट, हैदराबाद, बड़ौदा, मैसूर के बारे में क्या पूछना है? यह सब उन्हीं के वरदान पर हिल-डुल रहे थे।
दुखराम: यह तो कठपुतली का नाच मालूम होता है।
भैया: ठीक कहा दुक्खू भाई! है यह कठपुतली का नाच ही। सब सूत बिलायत के छः सौ परिवार पूँजीपतियों के हाथ में है और ‘सबहिं नचावै राम गोसाईं’। तो मैं बतला रहा था कि जर्मनों ने अपने यहाँ कारखाने ठीक किये। माल को बेंचने के लिए जिस देस में भी गये, वहाँ धक्का मिला। वहाँ के पूँजीपति चुप कैसे रहते? उन्होंने कहा कि जो खुसी से दरवाजा नहीं खोलोगे तो हम दरवाजा तोड़कर भीतर चले आवेंगे। यही कारन था जो 1914 में जर्मनी ने लड़ाई छेड़ दी। उसने सोचा था कि दुनिया के चार हिस्सा में से एक हिस्सा भूमि और आदमी अंगरेज लोगों के हाथ में हैं। जो इनको खतम कर दिया, तो सब जगह हमारा राज होगा, हमारा माल बिकेगा। फ्रान्स ने भी दुनिया का बहुत सारा हिस्सा घेर लिया है, उसके खतम होने पर हमारे माल के लिए और भी बाजार मिलेगी।
दुखराम: तो भैया, गया के पंडे बन गये। जैसे वह जजमान के लिए लड़ जाते हैं, वैसे ही गाहकों के लिए ये लोग लड़ गये।
भैया: हाँ, यह गाहकों के लिए लड़ाई हुई। जितना ही अधिक गाहक मिलेंगे, उतना ही अधिक माल बेचेंगे और यदि गाहक अपने ही गुलाम हुए, तब उनसे खाली कपास पैदा कराना जैसा सस्ता-सस्ता काम करायेंगे और बारह आने का बीस रुपया बनायेंगे, पूँजीपति तभी इच्छा भर खून पीने पायेंगे। बल्कि इच्छा भर मत कहो, यदि समुन्दर भर भी खून मिले, तो भी इन जोंकों की इच्छा पूरी नहीं होगी। और इन जोंकों के खून के प्यास के लिए पहली लड़ाई में इतने लोग मरे और घायल हुए —
मरे घायल
अँगरेजी राज्य 10,89,919 24,00,988
फ्रांस 30,93,388 40,90,000
जर्मनी 20,50,466 42,02,030
अमेरिका 1,15,660 2,05,700
दूसरी महालड़ाई में संसार के ढाई करोड़ नागरिक और 2 करोड़ 70 लाख सैनिक मारे गये, जिनमें सिरिफ जर्मनी में 33 लाख नागरिक और साढ़े बत्तीस लाख सैनिक मरे। रूस में 70 लाख नागरिकों और 1 करोड़ 36 लाख सैनिकों ने परान दिये। पहिली लड़ाई में 66 लाख जोंकों के लिए बलि चढ़े, तो इस लड़ाई में 5 करोड़ 20 लाख।
जोंक-पुरान के इन दो भयानक अध्यायों से अभी उन्हें सन्तोख नहीं है, वह तीसरे महालड़ाई को अनुबम से लड़ना चाहती हैं, जिनकी ताकत हिरोसिमा वाले बम से 20 गुना से भी अधिक है। एक बम से दस लाख नर-नारी तो वहीं खतम हो जायेंगे।
Posted by rajneesh mangla
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