सन्देहों की बरछी ताने सावधान-से खड़े हुए हैं
निज के तीक्ष्ण भाव-असि से ही बलि की है विश्वास मृदुल की
मन की देहली रक्त-सनी है, व्रण में काँटे गड़े हुए हैं।
मानव का खूँखार जानवर हो उट्ठा है आज भयंकर
आत्मगुहा के अन्धकार में वह बेचैन खड़ा हिंसातुर
आज हुआ हत्या का प्यासा, बलि का प्यासा, बढ़ी पिपासा
संशय की बामी का क़ैदी क्रुद्ध सर्प है मन का विषधर।
कैसे शान्त करोगे उसको ? अब न समय है, फ़िजूल भय है
प्राणों का, जिस पर तृण-सा झेलना पड़ेगा महा-प्रलय है।
मटमैली जो दिशा सामने, बहा उधर से विकल प्रभंजन
यह देखेगा कि तुम्हारी या कि उसी की प्रखर विजय है।
कैसे समझाओगे उनको, जबकि उन्हें विश्वास नहीं है
कैसे अपनाओगे जिनमें मानवता का त्रास नहीं है
उनकी आँखों में बर्बरता, क्रोध और सन्देह चमकता
इतने ऊँचे वृक्ष हुए {पर} छाया का आभास नहीं है।
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