Thursday, 27 September 2012

भगत सिंह की शहादत और गाँधी की वेदना


मैं गाँधीवाद का विरोधी हूँ. मगर मैं खुले तौर पर स्वीकारता हूँ कि गाँधी युगपुरुष थे. व्यक्ति और विचारधारा के तौर पर अपनी सीमाओं के बावज़ूद गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका में जो झेला और किया, उसने उनके व्यक्तित्व को वह धार दिया कि १९१६ में भारत वापस आने के बाद उन्होंने तिलक के गरम दल और गोखले के नरम दल दोनों को पी कर पचा लिया और फिर भारतीय इतिहास में गाँधी युग का आरम्भ हुआ. शेष धाराओं ने अपनी भूमिका का निर्वाह किया तो, मगर भारतीय पूंजीपति वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधि कांग्रेस पार्टी ने ही स्वतन्त्रता संग्राम का नेतृत्व किया. स्वतन्त्र भारत के पूँजीवादी विकास को गांधीवाद की ज़रूरत नहीं थी. उसने नेहरू के सपनों के रूप में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों का विकास किया. देश की सत्ता के द्वारा पूँजीवादी जनतन्त्र की स्थापना और विकास किया गया और पंचशील और पंचवर्षीय योजनाओं का दौर आरम्भ हुआ. साठ के दशक को नेहरू का दशक कहा गया. नेहरू और टीटो ने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को ज़मीन दे कर साम्राज्यवाद के सामने एक अवरोध खड़ा करने की कोशिश की. इतिहास का मूल्यांकन तथ्यों की रोशनी में करने से हम चूक से बच सकते हैं. वहाँ हमारी सदिच्छाओं की कोई जगह नहीं होती.     - गिरिजेश  


भगत सिंह की शहादत और गाँधी की वेदना 

इस देश में इतिहास की घटनाओं का निष्कर्ष मनमाने ढंग से निकलने की परंपरा रही है...ऐतिहासिक घटनाओं को सनसनीखेज या व्यक्तित्वों के टकराव की मनोरंजक पृष्ठभूमि देकर अपने व्यवसायिक हित साधने की चेष्टा लेखक और फिल्म निर्माता आज तक करते रहे हैं...एक व्यक्तित्व को उभारने का उद्देश्य अक्सर दुसरे व्यक्तित्व को दबाकर ही पूरा करने की दुष्प्रवृत्ति ने प्रायः सभी ऐतिहासिक महापुरुषों का व्यक्तित्व विवादस्पद बना दिया है...इसी प्रकार का एक प्रकरण भगत सिंह और उसके साथी राजगुरु तथा सुखदेव को २३ मार्च १९३१ को दी गई फाँसी भी है, जिसमे महात्मा गाँधी की भूमिका के सम्बन्ध में जनसाधारण के बीच सदैव भ्रम की स्थिति ही उत्पन्न की गई...भगत सिंह के प्रति असीम श्रद्धा के कारण हमारी भी इस फाँसी प्रकरण के बारे में गलतफहमियां तब तक बनी रही, जब तक हमने गाँधी वांग्मय में विस्तृत रूप से यह नहीं पढ़ा कि गांधीजी इस विषय पर मौन रहने के विपरीत पुर्णतः सक्रिय और उद्वेलित रहे ... न केवल उनके द्वारा भगत सिंह को बचाने की अंतिम क्षणों तक चेष्टा की गई, अपितु भगत सिंह और उनके साथियों के बलिदान की जिस प्रकार गांधीजी ने व्याख्या तथा प्रशंसा की, उसकी कोई दूसरी मिसाल आज तक नहीं देखने को मिलती...पर यह भी सत्य है की ६२ वर्षीय बुजुर्ग गांधीजी इस देश में किये गए अनुभवों और प्रयोगों के आधार पर यह भली भांति जानते थे भले ही युवा भगत सिंह के बलिदान पर यह देश कितने भी आंसूं क्यूँ न बहा दे. खून की एक बूँद भी बहाना इसके बस की बात नहीं...इतिहास साक्षी है कि भगत सिंह की फाँसी के बाद प्रदर्शन भी हुए तो गुस्सा अंग्रेजों के बजाये गांधीजी पर केन्द्रित था...खून भी अगर बहा तो वह अपनों का ही था, जब कानपूर में भड़के सांप्रदायिक दंगों की आग को बुझाने के लिये महान पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी को अपनी आहुति देनी पड़ी...

निम्नलिखित उल्लेखों से यह स्पष्ट हो जाता है कि गांधीजी, भगत सिंह और उनके साथियों कि क़ुरबानी को कितनी सार्थक मानते थे और किस कदर गहरे जाकर इन बलिदानों ने उनके ह्रदय को प्रभावित किया था...उनके शौर्य के कारनामे की जितनी सराहना गांधीजी के संस्मरणों में विद्यमान है, उतनी नेहरूजी सहित किसी अन्य नेता के संस्मरणों में देखने को नहीं मिलती...गांधीजी की पीड़ा कितनी विकत रही होगी, इसका थोडा-बहुत अंदाज़ गाँधी वांग्मय में उपलब्ध निम्न उद्धरणों से हो जाता है...गांधीजी ने भगत सिंह के प्रति जो उदगार प्रकट किये हैं, उन्हें जानकर गांधीजी के प्रति तो श्रद्धा बढती ही है, पर इसके साथ ही भगत सिंह के बलिदान का महत्व और महिमा तो कई गुना बढ़ जाती है...इस अनोखे बलिदान को अहिंसा के अप्रतिम पुजारी ने औपचारिक नहीं, अपितु हार्दिक श्रद्धा सुमन समर्पित किये थे...

इस प्रसंग पर प्रस्तुत हैं, गाँधी वांग्मय के कुछ अंश...

1. मेरा अहिंसा धर्मं चोर-डाकुओं और यहाँ तक कि हत्यारों को भी सजा देने के पक्ष में नहीं है...भगत सिंह जैसे बहादुर आदमी को फाँसी पर लटकाने कि गवाही नहीं देता है...परन्तु मैं आपको बता दूं कि आप भी जब तक समझौते की शर्तों का पालन नहीं करते, उन्हें बचा नहीं सकते...यदि आपको हिंसा पर ही विश्वास है तो मैं निश्चयपूर्वक बता सकता हूँ कि आप केवल भगत सिंह ही नहीं छुड़ा संकेंगे, बल्कि आपको भगत सिंह जैसे और हजारों लोगों को भी बलिदान करना पड़ेगा...मैं वैसा करने को तैयार नहीं था और इसीलिए मैंने शांति और अह्मिसा का मार्ग ज्यादा बेहतर समझा...

.......आप हिंसा का प्रयोग अपने शासकों के विरुद्ध ही नहीं करेंगे, आप अपने भाई बहनों के विरुद्ध भी उसका प्रयोग करेंगे और आपकी जैसी विचारधारा वाले लोग उसका प्रयोग आपके विरुद्ध करेंगे...( ७ मार्च १०३१, प स २८८-८९, खंड ४५)

2. २१ मार्च १९३१ को को प्रेस सम्मलेन में पूछा गया प्रश्न - क्या आप राष्ट्रीय कांग्रेस को लोर्ड इरविन से हुए समझौते की शर्तें मनवाने की आशा करते हैं? गांधीजी ने उत्तर दिया - हाँ , पर यदि भगत सिंह को फाँसी दी जाती है, जैसा कि अब निश्चित लगता है तो इसका नौजवान कांग्रेसियों पर बहुत ही उल्टा प्रभाव पड़ेगा और वे कांग्रेस को विभाजित करने का प्रयत्न कर सकते हैं...(पेज ३३८/३३९-४५)

3. २३ मार्च १९३१ को उन्होंने लोकमत के आलोक में सजा कम करने का अनुरोध वायसराय से किया था...उन्होंने इसे तब तक मुल्तवी करने को भी लिखा, जब तक क्रन्तिकारी पुनः हिंसा नहीं करते क्यूंकि क्रांतिकारी दल ने उन्हें ऐसा आश्वासन दिया था.
".......चूँकि आप शांति स्थापना के लिए मेरे प्रभाव को जैसा भी वह है उपयोगी समझते प्रतीत होते हैं, इसलिए अकारण मेरी स्थिति को भविष्य के लिए और कठिन न बनाइये....यूँ ही वह कुछ सरल नहीं है."
उसी दिन वायसराय ने उनको अनुरोध को ठुकरा दिया था. ( पेज ३५३, खंड ४५) 

4. २३ मार्च १९३१ को फाँसी के बाद नई दिल्ली में जारी गांधीजी के वक्तव्य के कुछ अंश -
......इन नवयुवक देशभक्तों कि याद में प्रशंसा के जो शब्द कहे जा सकते हैं, मैं उनके साथ हूँ....मेरा निश्चित मत है कि सर्कार के द्वारा कि गई इस गंभीर भूल के परिणाम स्वरुप स्वतंत्रता प्राप्त करने कि हमारी शक्ति में वृद्धि हुई है और इसके लिए भगत सिंह और उसके साथियों ने मृत्यु को भेंटा है....( पेज ३५५, खंड ४५)

5. २६ मार्च को करांची में पत्र प्रतिनिधियों के साथ - प्रदर्शनकारी अगर चाहते तो मुझसे मारपीट कर सकते थे, अपमानित कर सकते थे पर उन्होंने अपने क्रोध पर अंकुश रखा और मेरा अपमान लेवल काले कपडे के फूलों, जो कि, मैं समझता हूँ , तीनों देशभक्तों कि चिता कि रख के प्रतीक थे, देकर किया. इन्हें भी वे मेरे पर बरसा सकते थे, पर यह सब न करके उन्होंने मुझे अपने हाथों से फूल लेने कि छूट दी और मैंने कृतज्ञतापूर्वक इन फूलों को लिया . निस्संदेह उन्होंने गांधीवाद का नाश हो, गाँधी वापस जाओ के नारे लगाये, पर मैं उनके क्रोध प्रदर्शन को सही मानता हूँ....

अन्य देशों के सम्बन्ध में चाहे कुछ भी सच हो, पर इस देश में जहाँ करोड़ों भूखे लोग भरे पड़े हैं, हिंसा का सिद्धांत कोई अर्थ नहीं रखता....आत्मदमन और कायरता से भरे दब्बूपन वाले इस देश में साहस और आत्म-बलिदान का आधिक्य नहीं मिल सकता...भगत सिंह के साहस और आत्म-बलिदान के सम्मुख मस्तक नत हो जाता है....परन्तु, यदि मैं अपने नौजवान भाइयों को नाराज किये बिना कह सकूं तो मुझे तो इस से भी बड़े साहस देखने की इच्छा है.....

6. २६ मार्च को कराची कांग्रेस में भाषण के कुछ अंश -
"......जब से मैंने सेवा का व्रत लिया है, तभी से अपना सिर मानव जाती को अर्पण कर चुका हूँ....मेरी गर्दन उतर लेना दुनिया का एक आसान सा काम है....इसके लिए थोड़ी सी भी तयारी या संगठन की आवश्यकता नहीं ......फूल वापिस लेना चाहेंगे तो मैं ख़ुशी से लौटा दूंगा....यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया तो ये फूल मैं आश्रम में भेज दूंगा और वहां विरासत में मिली हुई वस्तु की तरह सुरक्षित रखे जायेंगे .......अख़बारों से पता चला की भगत सिंह की शहादत से कानपूर के हिन्दू पागल हो गए और भगत सिंह के सम्मान में दुकान न बंद करने वालों को धमकाने लगे....नतीजा आपको मालूम ही है.....समझौता वापिस लेने की धमकी देना तो विश्वासघात कहा जाता ,,,,ऐसा तो हो ही नहीं सकता था.

7. २९ मार्च १९३१ 'नवजीवन' में गांधीजी ने भगतसिंह को उद्धृत किया- 'मैं तो लड़ते हुए गिरफ्तार हुआ हूँ...मुझे फाँसी नहीं दी जा सकती....मुझे तोप से उदा दो, गोली से मारो.'.....इसके बाद गांधीजी ने आगे लिखा- इन् वीरों ने मौत के भय को जीता था...इनकी वीरता के लिए इन्हें हजारों नमन हों....(पेज ३८२/३८३, खंड ४५ ) 

8. २९ मार्च को भगत सिंह विषयक कांग्रेस के शोक प्रस्ताव का मसविदा गांधीजी ने तैयार किया, जिसे नेहरूजी ने प्रस्तुत किया ....इसमें लिखा था - तीनों को फाँसी पर लटकाना अत्यंत निम्न प्रतिशोध का कृत्या है,,,,,स्व० भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु के बलिदान एवं बहादुरी की प्रशंसा को यह कांग्रेस अभिलेख्बद्ध करती है...

9. शहीद सुखदेव का एक पत्र गांधीजी को फाँसी के बाद मिला, जिसे उन्होंने २३ अप्रैल १९३१ को "यंग इंडिया" में प्रकशित करते हुए लिखा की -राजनैतिक हत्याएं चाहें कितनी भी निन्द्य क्यूँ न हों, तो भी जिस देशप्रेम और साहस के कारण ऐसे भयानक कम किये जाते हैं, उनके लिए मन में प्रशंसा का भाव आये बिना रह नहीं सकता .....इतिहास साक्षी है की भारतीय परंपरा राजनैतिक हिंसा के लिए प्रतिकूल है.

भगत सिंह ने हिंसा नहीं की ....जहाँ अँगरेज़ निरंतर हजारों भारतीयों को मौत के मुंह में उतर रहे हों, वहां अस्सेम्ब्ली में बम फेंक कर गिरफ्तार हो जाने की घटना से यह सव्यमविदित है कि उनका उद्देश्य मात्र अंग्रेजों की हिंसा को रेखांकित करना था, जिसमे वे पूर्णरूप से सफल रहे....अंग्रेजों ने उन्हें मौत कि सजा दी.....इस निर्णय से भारतवासियों को अंग्रेजों कि क्रूरता, पाशविकता एवं हिंसा का ऐसा दिग्दर्शन हुआ, जैसा कि जलियांवाला बैग के अवसर पर भी नहीं हुआ था,,,,,भगत सिंह ने तो नितांत अहिंसक ढंग से स्वयं को अंग्रेजों कि सुनियोजित हिंसा का शिकार होने दिया था, ताकि देशवासी जग जाएँ .....संभवतः गांधीजी उनके पक्ष में खुल्लमखुल्ला इसलिए नहीं बोले कि ऐसा होने पर अंग्रेजों को सचेत हो जाने अवसर मिल जाता तथा वे दमनचक्र प्रारंभ कर देते...यह संभव है कि अनेक अवसर ऐसे अवश्य आये, जब गांधीजी हिंसक उपायों का सहारा लेकर तत्काल आजादी परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया .....क्यूंकि प्रथमतः इस जोखिम की सफलता की कोई गारंटी नहीं थी, दुसरे, वे पीड़ित मानवता को अहिंसक उपायों की सफलता का प्रमाण उपलब्ध करना चाहते थे, जो भौतिक सामर्थ्य के आभाव में आत्मबल को कुचलकर शोषण के लिए प्रस्तुत हो जाया करती थी या चाँद लोगों की हिंसा के समक्ष घुटने टेक दिया करती थी... 
(Page 423 & 28/29. khand 46)
( Published in the AAJ dated March 23, 1997)

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