'गाँधी-इरविन-भगत सिंह'
कुछ लेखकों ने भगत सिंह की फाँसी के बारे में महात्मा गाँधी की भूमिका को सन्देह के घेरे में डाल कर इतिहास के साथ अपराध किया है. यह सन्दर्भ-संकलन भगत सिंह के मामले में गाँधी जी और तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन की भूमिकाएं स्पष्ट करने के लिये प्रस्तुत है. तथ्य स्वयं आपको निर्णय तक पहुँचा देंगे.
इरविन ने कहा था -
१० मार्च, १९३१ को गाँधी के साथ वार्ता के बाद एक साक्षात्कार में इरविन ने कहा- “जब वह जाने लगे, तो उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या वह भगत सिंह के मामले का जिक्र कर सकते हैं और यह कहा कि उन्होंने समाचार-पात्रों में उनके लिये २४ मार्च के लिये फांसी की सूचना देखी है.वह एक दुर्भाग्यपूर्ण दिन था क्योंकि कराची में कांग्रेस के नये अध्यक्ष के आगमन का भी वही दिन था और तब बहुत अधिक जन उत्तेजना होनी थी. मैंने उनको बताया कि मैंने मामले पर अधिकतम सतर्कतापूर्वक विचार किया है. परन्तु ऐसे कोई आधार नहीं पा सका, जिन पर सजा बदलने के लिये मैं अपनी चेतना को न्याय संगत ठहरा सकता. जहाँ तक तारीख का मामला है, मैंने कांग्रेस के अधिवेशन के बाद तक टालने की सम्भावना के बारे में विचार किया था, परन्तु विभिन्न आधारों पर इसे जान-बूझ कर अस्वीकार कर दिया : (१) फांसी का स्थगन केवल राजनीतिक आधार पर तब जब आदेश दिया जा चुका था, मुझे अनुचित प्रतीत हुआ; (२) स्थगन अमानवीय होता क्योंकि वह मित्रों और रिश्तेदारों को सुझाव देता कि मैं सजा बदलने के बारे में विचार कर रहा हूँ; और (३) कि कांग्रेस उचित रूप से शिकायत करती कि सरकार ने उनके साथ छल किया है.”
गाँधी के पत्र का इरविन का उत्तर -
“मैंने हर उस बात पर जो आपने कहा है, बहुत सतर्कतापूर्वक फिर से विचार किया है और अंतिम चीज़, जो मैं करना पसन्द करूँगा, वह होगा – आपके काम को इस मोड़ पर और मुश्किल बनाना. परन्तु मैं भयभीत हूँ कि उसी कारण से जिसे मैंने वार्ताओं में आपको समझाने की पूरी तरह से प्रयास किया था, मैं यह महसूस करने का अपने लिये कोई रास्ता नहीं देख सकता कि आपके निवेदन पर कदम उठाना उचित होगा.
इरविन की कलम से (fullness of days में से) -
जब हमने अपना तथाकथित गाँधी-इरविन समझौता कर लिया, तो उसके बाद वह (गाँधी) मेरे पास अगली सुबह आये और बोले कि वह एक और मामले पर बात करना चाहते हैं. वह तुरन्त ही कराची कांग्रेस की सभा के लिये जाने वाले थे, जिसके बारे में उनको आशा थी कि वह हमारे समझौते को समर्थन दे देगी और वह भगत सिंह नाम के एक नौजवान के जीवन के लिये अपील करना चाहते थे, जिसे हाल ही में विभिन्न आतंकवादी अपराधों के लिये फांसी की सजा सुनायी गयी थी. वह स्वयं भी मृत्युदण्ड के विरोधी थे. परन्तु अब बहस का मामला था – “यदि इस युवक को फांसी दी गयी – मिस्टर गाँधी ने कहा – तो उम्मीद है कि वह राष्ट्रीय शहीद बन जायेगा और आम माहौल गम्भीरतापूर्वक पूर्वाग्रहग्रस्त हो जायेगा.” मैंने उनको बताया कि इस मामले में उनकी भावनाओं की पूरी तरह प्रशंसा करते हुए भी, मैं भी प्राणदण्ड की अच्छाइयों अथवा बुराइयों से जुडा नहीं था, क्योंकि मेरा एकमात्र कर्तव्य क़ानून का पालन करना था. जहाँ तक मैं उसे समझता था, उस आधार पर भगत सिंह की तुलना में प्राणदण्ड का अधिक दावेदार मैं किसी को नहीं मान सकता था. और भी, उसके लिये मिस्टर गाँधी का निवेदन उस विशिष्ट दुर्भाग्यशाली क्षण में किया गया था, जब पिछली ही शाम मैंने पुनर्विचार के लिये अपील पायी थी और जिस पर विचार करने से इनकार करने की बाध्यता मैंने महसूस की थी और जो शनिवार को फांसी पर चढ़ा दिया जाने वाला था. (जहाँ तक मुझे ठीक ही याद है कि हमारी वार्ता का दिन वृहस्पतिवार था.)
मिस्टर गाँधी शनिवार की शाम या तीसरे पहर समाचार फ़ैल जाने के बाद कांग्रेस की मीटिंग के लिये कराची पहुँचते और तारीख का टकरा जाना उनके दृष्टिकोण से और भी मुश्किल भरा होता. मिस्टर गाँधी ने कह कि वह बहुत अधिक भयभीत हैं कि मैं यदि इसके बारे में कुछ भी नहीं कर सकता हूँ तो नतीज़ा हमारे समझौते को बर्बाद करना होगा. मैंने कह कि मुझको उनसे अधिक पश्चाताप होना चाहिए. परन्तु उन्हें यह स्पष्ट होना चाहिए कि केवल तीन ही सम्भव रास्ते थे. पहला था – कुछ न करना और फांसी हो जाने देना, दूसरा था – सजा बदल देना और भगत सिंह की फांसी को रोक देना, तीसरा था – कांग्रेस के अधिवेशन अच्छी तरह समाप्त हो जाने तक मामले को किसी तरह लटकाये रखना. मैंने उनको बताया कि मैं सोचता था कि वह सहमत हो जायेंगे कि किसी भी दृष्टिकोण से मेरे लिये प्राणदण्ड न देना असम्भव था. और कि निर्णय को केवल टालना और लोगों को यह सोचने के लिये प्रेरित करना कि क्षमा की कोई गुंजाइश थी – दो टूक अथवा ईमानदार नहीं होता. इसलिये अपनी सभी अथिनाइयों के बावज़ूद एकमात्र पहला रास्ता ही सम्भव था. मिस्टर गाँधी ने एक क्षण सोचा और तब बोले – “क्या आप महामहिम इस नवयुवक के जीवन के लिये मेरी अपील में कोई विरोध पाते हैं?” मैंने कह कि मैं कोई विरोध नहीं देखता. यदि उन्होंने मेरे दृष्टिकोण से यह भी जोड़ा होता कि वह नहीं देख पाये कि कौन से दूसरे रास्ते मैं अपना सका होता. उन्होंने एक क्षण सोचा. तब अंततः मान गये और उसी आधार पर कराची चले गये. वहाँ वैसा ही हुआ, जैसी उम्मीद थी. खबर फ़ैल चुकी थी. भीड़ भावनात्मक आवेग में थी. मुझे बाद में बताया गया कि उनका बहुत भद्दे ढंग से स्वागत किया गया. किन्तु उन्हें जब मौका मिला, तो वह उसी भावना के अनुरूप बोले, जो हमारे बीच तय हुई थी.”
फांसी के तीन दिनों के बाद इरविन का भाषण –
(चेम्सफोर्ड क्लब, नयी दिल्ली में डिनर पर)
“पहली आवश्यक प्रगति इस मामले में और वस्तुतः किसी भी मामले में यह है कि हर आदमी को शांतिपूर्ण माहौल बनाने में मदद करनी चाहिए और कि इस मामले में मुझे बताया गया है कि मैंने और भारत सरकार ने भगत सिंह और उनके साथियों को हाल ही में दी गयी फाँसी की सज़ा को रद्द करने में असफल होकर मिस्टर गाँधी के काम को और अधिक मुश्किल बना दिया है. मैं अच्छी तरह मान सकता हूँ कि इस मुकाम पर हमारी करतूत ने मिस्टर गाँधी और उनसे जुड़े हुए लोगों के लिये काफी मुश्किल खड़ी कर दी है. और मैं इस अवसर के लिये आम भारतीय जनमत का आभारी हूँ कि कुछ शब्दों में उनके सम्मुख अपने खुद के विचार स्पष्टतापूर्वक रख सकूँ. जिस निर्णय पर सरकार पहुँची, उसकी पूरी ज़िम्मेदारी मैं अपने ऊपर लेता हूँ. मैं जानता हूँ कि वायसराय के ऊपर इससे बड़ी कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती कि वह अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल सजाओं को कम करने, खत्म करने या सज़ा दे देने में करे या न करे. जैसा कि मैंने पिछले दिन मिस्टर गाँधी से कहा, जो मेरे सामने सशक्त तरीके से सज़ा स्थगित करने और कम करने की अपील कर रहे थे कि पहले तो इसका क्या महत्व है, जब अहिंसा का प्रचारक अपनी खुद की विचारधारा की इतना अधिक मूलभूत विरोधी विचारधारा के मानने वालों के लक्ष्य के प्रति इतने ज़ोरदार ढंग से अपील कर रहा था.....
....भगत सिंह के भाग्य के बारे में जनता की भारी संख्या द्वारा ली गयी दिलचस्पी की मुझे अच्छी तरह जानकारी है. किन्तु मैं कोई तर्क नहीं खोज सका, जिससे उस मृत्युदण्ड को कम करना न्यायोचित हो सकता. यदि क़ानून को समान होना था, तो सभी मृत्युदण्डों को रद्द कर दिया जाना चाहिए. मैं ऐसे किसी मामले की कानूनी तौर पर कल्पना नहीं कर सकता, जिसमें इससे अधिक प्रत्यक्ष ढंग से सज़ा की उम्मीद हो. मैंने समाचार-पत्रों में यह सुझाव भी देखा है कि सज़ा रद्द करना नामुमकिन मान लेने पर भी यह भी किसी तरह से बर्दाश्त करने लायक नहीं है कि कराची कांग्रेस की पूर्वसंध्या पर ही फाँसी दी जाये. मैं इन चीजों के बारे में अच्छी तरह जानता हूँ और मैं पूरे तौर पर साफ़-साफ़ कहूँगा कि वह प्रधान कारण, जिसने मुझे सज़ा टालने का सुझाव नहीं मानने दिया, यह नहीं था कि मेरी सरकार संभवतः उसे स्वीकार न कर पाती.
.....इससे (फाँसी टाल देने से) तत्काल कराची में तो माहौल आसान हो जाता, मगर बाद में कांग्रेस यह आरोप लगा सकती थी कि वायसराय और सरकार ने उसके साथ अन्याय किया. इन्हीं कारणों से मैंने महसूस किया कि मुझे सुझाया गया काम करना मेरे लिये असम्भव था.”
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