Wednesday, 20 March 2013

कबीर



प्रिय मित्र, मेरी समझ से कबीर ने जब धर्मान्धता को ललकारा था, तो उन्होंने बिलकुल सही कहा था -
"कांकर पाथर जोरि कै, मसजिद लई बनाय;
ता चढि मुल्ला बांग दें, बहरा हुआ खुदाय." 
और
"पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहाड़;
घर की चाकी कोऊ न पूजै, पीस खाय संसार."
धर्म की सभ्यता के आरम्भिक दौर में मानवता के विकास में सकारात्मक भूमिका थी. मगर विज्ञान के युग के आरम्भ होने से अब तक धर्म और विज्ञान के बीच समन्वय के अगणित प्रयासों के बावज़ूद धर्म लगातार विज्ञान पर हमलावर रहा है. 

और हमेशा से ही उसके पास सबसे कमज़ोर दुश्मन रही है नारी. हर धर्म ने नारी को ही बाँधने की कुटिल साज़िश किया है और अभी भी धर्म के ठेकेदार अगर किसी से सबसे अधिक खार खाये बैठे हैं, तो वह है नारी-मुक्ति आन्दोलन. 

वैज्ञानिकों को सूली और ज़हर देने से लेकर जिन्दा आग में भूनने तक गया है धर्म. मासूमों की हत्या और धर्मान्तरण के प्रयासों के अगणित आरोप गलत नहीं रहे हैं. धर्म-युद्ध के नाम पर शासकों ने गरीबों के बेटों को अपने साम्राज्य विस्तार की भूख की खुराक के तौर पर तोप के चारे के रूप में युद्ध की आग में बार-बार झोंका है. 

और जातिवाद तो वह कोढ़ है, जिसे सुविधाभोगियों ने वंचितों को अपने कब्ज़े में बनाये रखने के लिये सदियों से फैलाया और बढ़ाया है. आज भी चाहें ब्राह्मणवाद हो या दलितवाद - दोनों ही सत्ता के खिलाड़ियों के द्वारा जन-एकजुटता को तोड़ने और अपना वोट-बैंक बनाये रखने और बढाते जाने के औजार भर हैं. जन की भावनाओं को भड़काकर पेशेवर गुंडों के सहारे दंगे की आग मे जिन्दगी की शान्ति को भूनने वाले सभी धर्मों और जातियों के स्वयम्भू अलमबरदार ही तो हैं. 

इनके गन्दे इरादों को आम आदमी अभी भी पूरी तरह समझ नहीं पा रहा है. मगर धीरे-धीरे इनका पर्दाफाश होता चला जा रहा है. वह दिन अब बहुत दूर नहीं है कि जब मानवता विज्ञान की रोशनी में जिन्दगी को खुशहाल बनाने के लिये धर्म और अंधविश्वासों के बन्धनों को काट कर आगे बढ़ जायेगी. 

कबीर के हाथों से लेकर वही मशाल भगत सिंह ने उठायी और अब वही मशाल आज के इंकलाबियों के हाथों में पूरी आन-बान-शान से आगे बढ़ायी जा रही है. इस रास्ते में केवल संघर्ष हैं - तीखे और मरणान्तक संघर्ष, किसी तरह के समझौते नहीं. समझौते की बातें करके हम दोनों नावों पर सवार होने के चक्कर में कहीं भी नहीं पहुचेंगे.

बकौल कबीर -
"बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे ताड़-खजूर;
पंथी को छाया नहीं, फल लागत आती दूर."
अकेले-अकेले बड़ा होने के लिये ललचाने वाली व्यवस्था इस भ्रम को धुँवा की तरह फैलाती रही है. मगर अकेले न तो शान्ति मिल सकती है और न ही मुक्ति. जाल में अपने बच्चों के साथ खुद को भी फँसा कर सबको साथ लेकर उड़ने वाला बूढ़ा कबूतर बेवकूफ़ नहीं था.

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