प्रिय मित्र, आभासी जगत के सम्बन्धों की क्षणभंगुरता और प्रत्यक्ष सम्बन्धों की प्रगाढ़ता के बारे में अपने मित्रों के कथन से सहमत मैं नहीं हो पा रहा हूँ. मैंने असली जिन्दगी के दोस्तों को भी दूर जाते देख कर पीड़ा झेली है और इस तथाकथित आभासी दुनिया से भी एक से एक शानदार दोस्त पाये हैं.
दोस्ती की बुनियाद प्रत्यक्ष या परोक्ष होने पर नहीं, सहमति या असहमति पर भी नहीं, अपितु परस्पर विश्वास, सम्मान और स्नेह पर टिकती है. दोस्ती का रिश्ता निःस्वार्थ होता है. हम अक्सर अपने रिश्तों और अपने स्वार्थों के बीच गड्डमड्ड कर बैठते हैं. अगर ऐसा न हो, तो हम से बार-बार चूक हो सकती है, गलती हो सकती है, अपराध भी हो सकता है, मगर हमारे सम्बन्ध चलते रह सकते हैं.
अपने लोगों के साथ हमारे सम्बन्धों के टूटने की वजह होती है अवश्य. मेरी समझ से हमारा अपना या हमारे उस मित्र का स्वार्थ, वैचारिक मतभेद और अक्सर तो मात्र अहं का टकराव ही रिश्तों के टूटने के पीछे कारण बन कर अंततः पूर्वाग्रह बन जाता है. और फिर रिश्तों को टूटने से बचाना नामुमकिन प्रतीत होने लगता है.
मगर मैं तो अपने एक-एक दोस्त को उसके इस पूर्वाग्रह के चलते अपने से दूर जाने से बचाने की लगातार कोशिश करता रहता हूँ. क्योंकि मेरे लिये तो मेरा हर दोस्त बहुत ही कीमती रहा है. इसके लिये मुझे धैर्यपूर्वक उचित समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है और सही अवसर आते ही उस रिश्ते को नये सिरे से ऊर्जा देने के लिये पहल लेनी पड़ती है. और परिणाम होता है कि अक्सर मैं अपने ऐसे रिश्तों को दुबारा और भी अधिक सम्वेदना और प्रगाढ़ता के साथ जीत लेता हूँ. हाँ, बदले में अपने ढेरों शुभचिन्तकों को लगातार अपने ऊपर यह आरोप लगाते सुनता रहता हूँ कि मैं अपने रिश्तों के निर्वाह के प्रयास में 'ऐब्नार्मली हम्बल' हूँ.
क्या मैं गलत करता रहा हूँ?
ऐसे में मुझे याद आ रही हैं ये पंक्तियाँ -
"जीवन के संघर्ष निरन्तर मात्र रहे साथी मेरे;
और न जाने कितने साथी बीच राह में छूट गये."
ढेर सारे प्यार और आप सब के स्नेह के लिये आप सब के प्रति आभार-प्रकाश के साथ
आप का गिरिजेश
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