प्रिय मित्र, आज आपको अपने ओजस्वी, सेवाधर्मी, संघर्षशील, आशुकवि मित्र कमला सिंह 'तरकस' की वह कविता पढ़वाना चाहता हूँ, जो मुझे अतिशय प्रिय है और कठिन क्षणों में मेरे लिये अतिशय प्रेरक रही है.
जब न कोई पथ प्रखर हो, जब नहीं संकेत स्वर हो,
मौन हों सारी दिशाएँ, मात्र सन्नाटा मुखर हो;
रोशनी का कण नहीं हो, धैर्य का भी क्षण नहीं हो,
तड़प आकुल हो हृदय की, जब सुरक्षित प्रण नहीं हो.
धन न साधन-सम्पदा हो, बस चतुर्दिक आपदा हो,
और संशय हो सुलगता, शक्ति साहस सब विदा हो;
हो न कोई हमसफ़र भी, या कि अनुमानित डगर भी,
एकली काली निशा में प्रबल तूफानी लहर भी.
दैव भी बायें पड़ा हो, शत्रु मुँह बाये खड़ा हो,
काल भी विपरीत हो, दो हाथ करने को अड़ा हो;
मौत मानो सिर चढ़ी हो, जान पर भी आ पड़ी हो,
प्राण हरने के लिये प्रत्यक्ष यमदूती खड़ी हो.
वह परीक्षा की घड़ी है, वह प्रतीक्षा की घड़ी है,
उसी की आमन्त्रणा में जिन्दगी कब से खड़ी है;
यही क्षण पहिचान का है, यही क्षण अनुमान का है,
इसी से इतिहास बनता, यही रण सम्मान का है.
इसी में कर्तव्य रत है, इसी में तो धर्म मत है,
इसी के आलोक में जो अनवरत वह वीर व्रत है.
चकित हो रुकना नहीं तुम, मान भय झुकना नहीं तुम,
छातियों पर वार सहते टेकना घुटना नहीं तुम;
टिक सकेगा कौन ठिगना! तुम कदापि कभी न डिगना,
तुम्हीं आशा की किरण हो, शपथ तुमको, तुम न बिकना.
शपथ तुमको, तुम न बिकना, शपथ तुमको, तुम न बिकना...
– कमला सिंह ‘तरकस’
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