मैंने भी क्या होली खेला!
जीवन
की रचना करने में
चाहे
जितना मैंने झेला,
खबरों की सुर्खी को चमकाने में
चाहे
जो भी हुआ झमेला,
तनिक
न झिझका, तनिक न हिचका,
अपनी
गगरी में जितना भी भरा हुआ था
लाल-लाल
जीवन का पानी
सबको
मैंने
इस
दुनिया पर खूब उड़ेला,
मन भर
होली मैंने खेला.
मैंने
भी क्या होली खेला!
दुनिया
से मुझको जीवन भर,
जो भी, जितना भी, जैसे भी मिला कलुष है,
सबको
मैंने
अपने
ही दोनों गुब्बारों में भर डाला.
ख़ूब
जोर से धुवाँ भरा,
फिर
कस कर बाँधा.
और
उन्हीं काली करतूतों की
स्याही
से भरे हुए
अपने
फूले-फूले गुब्बारे
रंग-बिरंगी
दुनिया के दोहरे चेहरे की
फर्ज़ी-झूठी
चमक-दमक पर
पूरी ताकत से दे मारा.
मैंने
भी क्या होली खेला!
कदम-कदम
पर इस दुनिया ने
मुझको
अपना रंग दिखाया,
ख़ूब
बिलबिलाया मन मेरा,
फिर
भी नहीं कभी उसको मैंने भरमाया,
चाहे
जैसे भी, जितना भी, जब भी मैंने मौका
पाया,
रंग
दिखाने वाली इस अन्धी दुनिया को
अपना भी तो रंग दिखाया,
देखो, इसको ख़ूब छकाया.
मैंने
भी क्या होली खेला!
नकली
ताम-झाम फैलाये,
कपटी
मुस्कानों में लिपटी
दुनिया
के चोगे को जब-जब मौका मैंने पाया,
तब-तब पकड़ा, कस कर जकड़ा.
उसके
सब ढोंगों को चिथड़ा कर के फाड़ा,
सच को
हर दम ख़ूब उघाड़ा.
मैंने
भी क्या होली खेला!
दुनिया
के दोहरेपन को भी
जब भी, जिससे भी, जितना भी सीख सका था,
उसको
मैंने
तब-तब, वैसे ही, उतना ही ख़ूब सिखाया!
मैंने
भी क्या होली खेला!
मन के
भीतर धँसे हुए
असली
दुश्मन को
बाँबी
में से खोज निकाला,
“मुझको भी बच्चा समझा है!”
उसे
बताया, बीन बजाया,
नाच
उसे मैंने तिगनी का ख़ूब नचाया...
27.3.13
waah khub
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