1. हर कक्षा में तीन तरह के छात्र होते हैं. तेज़, औसत और कमज़ोर. कोई छात्र कमज़ोर नहीं होता है. अगर कोई छात्र तेज़ है तो उसका एक ही कारण होता है. उस छात्र ने और उसके शिक्षक ने अतीत में गम्भीरता के साथ काम किया है. और अगर कोई छात्र कमज़ोर है, तो उसका भी एक ही कारण होता है.- उस छात्र ने या उसके शिक्षक ने या छात्र और शिक्षक दोनों ने कभी भी गम्भीरता के साथ काम नहीं किया है. इन दोनों 'कारणों और परिणामों' (causes and effects) का सीधा सम्बन्ध शिक्षण की पद्धति और छात्र और शिक्षक के व्यक्तित्व और पृष्ठभूमि से जुड़ा है.
2. ज़िम्मेदार शिक्षक अपने छात्र की विफलता के पीछे अपनी ख़ुद की विफलता को देख और महसूस कर सकता है और अपनी पद्धति को बेहतर बनाने के लिये सतत प्रयास और प्रयोग करता रहता है. मगर लापरवाह शिक्षक अपने छात्र के मत्थे उसकी विफलता को मढ़ कर ख़ुद को मुक्त कर लेता है. उसे अपनी विफलता की अनुभूति या अपनी गलती का अपराध-बोध तक होता ही नहीं. इस तरह वैज्ञानिक पद्धति का पहला बिन्दु है — शिक्षक और छात्र दोनों को ही शिक्षण-प्रशिक्षण के दौरान ज़िम्मेदारी और गम्भीरता के साथ काम करना पड़ेगा. कक्षा में गप-शप का हल्का माहौल सीखने-सिखाने के काम को आगे बढ़ने ही नहीं देता.
3. तेज़ छात्रों की रफ़्तार आम तौर से औसत और कमज़ोर छात्रों के विकास में अवरोध उत्पन करती है. एक कमज़ोर शिक्षक अपने छात्रों से जैसे ही पूछता है — "समझ गये!" वैसे ही मुट्ठी भर तेज़ छात्र एक साथ समवेत स्वर में हुआँ-हुआँ कर देते हैं. और फिर औसत और कमज़ोर छात्र अलगावग्रस्त हो जाते हैं और वह मूर्ख शिक्षक अपने शिक्षण की सफलता के नशे में झूम उठता है और आँख बन्द करके आगे बढ़ जाता है. वैज्ञानिक शिक्षण-पद्धति का अनुसरण करने वाले शिक्षक को "समझ गये!" का प्रश्न कभी नहीं पूछना है.
4. सामूहिक रूप से "समझ गये!" पूछने की जगह उसे अलग-अलग क्षमता वाले छात्रों से छिटफुट अलग-अलग प्रश्न करके उनके बोध का अनुमान और आकलन करना होता है. और उनको अपनी बात समझाने में विफल रहने पर धैर्य के साथ दुबारा, तिबारा या कई-कई बार अलग-अलग और भी आसान तरीके से समझाने का प्रयास करने के लिये तैयार रहना होता है. झल्लाने, चिल्लाने, हताश होने या आतुरता से बचना शिक्षक को समझदार बनाने के लिये सबसे ज़रूरी है.
5. समझदार शिक्षक अपने तेज़ छात्रों की टोली को अपने रास्ते का अवरोध बन जाने देने की जगह अपने सहयोग में लगाता है. वह उनको अलग-अलग कमज़ोर छात्रों को समझाने के लिये तैनात कर देता है और उनकी मदद से कम समय में सभी छात्रों को सिखा ले जाता है.
6. वैज्ञानिक पद्धति से काम करने वाले शिक्षक को कॉपी जाँचते समय कभी भी सही का चिह्न नहीं लगाना होता. जो सही है, उसे सही कहा, तो क्या कहा ! इस तरह सही को सही कहने की जगह जो गलत है, उसको गलत के चिह्न से पूरा गलत काटना होता है. और उस गलती का सुधार या अपनी टिप्पणी उसी जगह लिख देना होता है. ताकि छात्र अपनी कॉपी देखे और समझने की कोशिश करे कि उसने क्या और कैसे गलती की है और इसके साथ ही उसी समय उसे सही उत्तर की भी जानकारी मिल जाये.
7. सही के नाम पर हर पन्ने पर केवल दो-तीन तिर्यक लकीरें लाल स्याही से खींचना नितान्त अनुचित है. इसकी तुलना में अगर शिक्षक के पास समय नहीं है, तो उसे अपने हस्ताक्षर के ऊपर SEEN लिखना होगा. और अगर उसके पास सही तरीके से कॉपी जाँचने के लिये पर्याप्त समय है, तो उसे CHECKED लिख कर तब अपना हस्ताक्षर करना बेहतर है. कॉपी जाँचने के काम में भी तेज़ छात्रों की कॉपी पहले जाँच कर उनको अन्य छात्रों की कॉपी जाँचने में सहायक के रूप में काम में लगा देना बेहतर है. इससे कम समय में अधिक काम मुमकिन है.
8. अगर कॉपी क्लास-रूम में ही जाँची जानी है, तो जिस छात्र की कॉपी जाँची जा रही है, उसे अपनी कॉपी में सतर्कतापूर्वक देखने के लिये अपने बगल में खड़ा कर देना और बोल-बोल कर उसकी गलती और उसका सुधार समझाते जाना मददगार होता है.
9. वैज्ञानिक पद्धति से काम करने वाले शिक्षक को कभी भी बैठ कर नहीं पढ़ाना है. जिस कक्षा का शिक्षक बैठ जाता है, उस कक्षा के छात्र सो जाते हैं. शिक्षक के लिये तीन काम बताये गये हैं — CHALK, WALK AND TALK. बेहतर शिक्षक बनने के लिये बोल कर, टहलते हुए और ब्लैकबोर्ड-वर्क करते हुए समझाना ज़रूरी है.
10. कक्षा में उपस्थित सभी छात्रों के सुनने लायक ऊँचे स्वर में शुद्ध उच्चारण के साथ बोलना अथवा पढ़ना अच्छे शिक्षण की जान होती है. प्रत्येक वाक्य में अन्तिम अक्षर तक प्रत्येक शब्द का स्पष्ट और सही उच्चारण करने पर ही सभी छात्र सही बोलना या धारा-प्रवाह पढ़ना सीख सकते हैं. अधिकतर शिक्षक शिक्षा के इस प्रथम चरण पर ही धराशायी हो जाते हैं और अपनी विफलता का बीजारोपण कर बैठते हैं. वहीं दूसरी ओर कुछ असंवेदनशील शिक्षक अपने-आप में ही खोये रहते हैं. वे यह भूल जाते हैं कि बगल के कमरे में कोई और कक्षा चल रही है और उनकी आवाज़ बगल वाले छात्रों और उनके शिक्षक को डिस्टर्ब कर रही है.
11. शिक्षण की सबसे बुरी पद्धति है अपनी कुर्सी में बैठ कर किताब से देख कर आलेख की तरह बोल-बोल कर रफ़ कॉपी पर नोट्स लिखाना. वैज्ञानिक पद्धति से सिखाने का काम तभी सम्भव है, जब शिक्षक अपने छात्र की कॉपी में लिखवाने की जगह उसके दिमाग पर सीधे लिखने में निपुण हो जाये. वह उसे उस मुद्दे को अच्छी तरह से समझा ले जा सके और उससे पूछ कर आश्वस्त हो ले कि उसकी बात उसके छात्रों को समझ में आ चुकी और वे सभी उस औजार का इस्तेमाल सफलता के साथ कर ले जाने में समर्थ हो गये.
12. वैज्ञानिक पद्धति से काम करने वाले शिक्षक की कक्षा में लिखवाने और लिखने की तुलना में समझाने और समझने का काम, याद किये गये उत्तर को सुनने और सुनाने का काम अधिक होता रहता है. इसमें दो-दो छात्रों की टोली बना कर हर टोली में सामने वाले छात्र से उसकी कॉपी लेकर दूसरे छात्र को पूछ कर पुष्ट करना होता है कि वह उत्तर उसके साथी को याद है या नहीं. और शिक्षक के पास रजिस्टर में सबके नाम के सामने उस दिन पूछे गये प्रश्न के लिये yes/no को चिह्नित करना होता है. तभी शिक्षक को अपने सिखा ले जाने पर पूरा आत्मविश्वास बन पाता है.
13. स्वभावतः जो छात्र अभी याद नहीं कर सके हों, उनको सकारात्मक तरीके से प्रोत्साहन देना उनका मज़ाक उड़ाने, अपमानित करने या उनको शारीरिक या मनोवैज्ञानिक दण्ड देने से कहीं बेहतर है. जहाँ शिक्षक का सकारात्मक प्रोत्साहन असफल छात्र से भी चमत्कार करवा सकता है, वहीं किसी भी तरह का नकारात्मक भाव या भय उसे निश्चित तौर पर केवल कुण्ठित और हताश करता है. और वह आगे बढ़ने की जगह पीछे हटता चला जाता है.
14. वैज्ञानिक पद्धति शिक्षण-प्रशिक्षण में मात्रा की तुलना में गुणवत्ता पर अधिक भरोसा करना सिखाती है. अपने छात्र के बोध के धरातल को समझ कर उस स्तर पर उतर कर उसे थोड़ा-थोड़ा करके सिखाना अधिक उपयोगी है. उतना ही खाना खिलाना बेहतर है, जितना पच जाये. ज्ञान की उल्टी करना हास्यास्पद है. तेज़ी से आगे बढ़ने से कोई लाभ नहीं मिलता. हाँ, इसके विपरीत शिक्षण-प्रशिक्षण के दौरान शिक्षक की हड़बड़ी और जल्दीबाज़ी से छात्रों को नुकसान अवश्य होता चला जाता है. जब छात्र के बोध की गुणवत्ता में विकास शुरू हो जाता है, तो मात्रा में वृद्धि स्वयमेव ही होने लगती है. इसलिये किसी भी छात्र-समूह को सिखाना शुरू करते समय आसान से कठिन की ओर, सरल से जटिल की ओर, स्थूल से सूक्ष्म की ओर और दृश्य से अदृश्य की ओर धीरे-धीरे करके बढ़ना होता है. शेष फिर कभी... — गिरिजेश. (5.8.15.)
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__शिक्षण-प्रशिक्षण__
ReplyDeleteप्रिय मित्र, शिक्षण-प्रशिक्षण समाज की सबसे महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियों में से एक है. मेरे जीवन का गत दो दशकों से अधिक का समय शिक्षा-जगत में हस्तक्षेप करने में लगा और तरह-तरह के प्रयोग करने के अवसर मिलते गये. उनमें सफल सिद्ध होने वाले प्रयोगों में से एक महत्वपूर्ण प्रयोग शिक्षण-प्रशिक्षण का भी रहा.
जैसे समाज के किसी भी दूसरे उपयोगी काम को करने के लिये हमें विशेष प्रशिक्षण से गुज़रना होता है, वैसे ही शिक्षण-कर्म में निपुण होने के लिये भी हमसे विशेष योग्यता और क्षमता की अपेक्षा की जाती है.
इस व्याख्यान को ध्यान से सुनिए और लागू करने का प्रयास कीजिए.
वैज्ञानिक तरीके से अपनी तैयारी करने पर आप अधिक आत्मविश्वास के साथ शिक्षण करेंगे और बेहतर परिणाम भी प्राप्त कर सकेंगे.
इस व्याख्यान के साथ ही इस विषय पर इस लिंक पर उपलब्ध यह लेख भी पढ़ने का अनुरोध कर रहा हूँ.
http://young-azamgarh.blogspot.in/2015/08/blog-post.html
आशा है कि प्रस्तुत व्याख्यान शिक्षकीय-कर्म में लगे हुए या लगने जा रहे युवा मित्रों की विशेष सहायता कर सकेगा.
मेरा यह व्याख्यान इस श्रृंखला का तीसवाँ व्याख्यान है.
यह प्रयास युवा-शक्ति की सेवा में विनम्रतापूर्वक समर्पित है.
कृपया इस प्रयास की सार्थकता के बारे में अपनी टिप्पणी द्वारा मेरी सहायता करें.
ढेर सारे प्यार के साथ — आपका गिरिजेश
इसका लिंक है — http://youtu.be/LX4_KLmHces
http://young-azamgarh.blogspot.in/2015/08/30.html