आज़ाद के बलिदान-दिवस पर प्रस्तुत है उनका एक शब्द-चित्र !
जब सारा देश गुलाम था,
तब चंद्रशेखर 'आज़ाद' थे!
विश्व-क्रान्तिकारी आन्दोलन में केवल एक नाम है,
जिसकी तुलना आज़ाद से की जाती है और वह है -
चे ग्वेरा!
आज के दिन आज़ाद और चे दोनों की प्रेरक स्मृति को प्रणाम!
क्रान्ति की धार के धनी चन्द्रशेखर ‘आज़ाद’
‘‘दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे;
आज़ाद ही रहे है आज़ाद ही रहेंगे।’’
यह कथन था हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातान्त्रिक सेना के कमाण्डर-इन-चीफ़ चन्द्रशेखर ‘आज़ाद’ का,जिन्होंने अपनी कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं आने दिया। तब जब हमारी प्यारी भारत माता अंग्रेज़ों की गु़लामी की जंजीरों में जकड़ी कराह रही थी, उसके बहादुर बेटे-बेटियों का मन पढ़ाई-लिखाई में कैसे लगता? सब के सब आज़ादी के महासमर में आत्माहुति देने की उमंग से रोमांचित होते रहते थे। बलिदानी भावना का जोशीला ज्वार जन-जन के दिल-ओ-दिमाग में उमड़ता-घुमड़ता-हुंकारता-ललकारता रहता था। जुलूस-जलसे, नारे-गीत, बैठकें-अभियान,लाठियाँ-गोलियाँ, सज़ाएँ-फाँसियाँ, ख़बरें-अफ़वाहें जारी थीं। आदेश और अवहेलना, दमन और प्रतिवाद, ज़ुल्म और प्रतिरोध, अपमान और प्रतिशोध, उत्पीड़न और संकल्प; मालिक और ग़ुलाम, अंग्रेज़ और भारतीय अनवरत युद्धरत थे। टक्कर दर टक्कर घात-प्रतिघात जारी था।
ऐसे में हुआ आज़ाद का जन्म 23 जुलाई, 1906 को बगीचे के ग़रीब चौकीदार सीताराम तिवारी की झोपड़ी में जगरानी देवी की कोख से और जगह थी मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले की अलीराजपुर रियासत का दूर-दराज़ का पिछड़ा-सा गाँव भाँवरा। बचपन के दिन, खेल-कूद, दौड़-धूप, पढ़ाने की असफल कोशिश,आदिवासियों की दोस्ती, तीरंदाजी की निपुणता, तहसील की नौकरी, बम्बई का सफ़र, जहाज रंगने की मज़दूरी, महानगर की चमक-दमक के नीचे झोपड़पट्टी की नारकीय ज़िन्दगी के दमघोंटू माहौल में केवल पेट पालने की यन्त्रणा से वितृष्णा और संस्कृत अध्ययन के आकर्षण में बनारस प्रवास। 1921, असहयोग आन्दोलन का धरना और गिरफ़्तारी, अदालत का कटघरा, मजिस्ट्रेट के सवाल और चौदह वर्षीय किशोर के जवाब - ‘‘नाम?’’ ‘‘आज़ाद।’’ ‘‘पिता का नाम?’’ ‘‘स्वतन्त्र।’’ ‘‘घर?’’ ‘‘जेलखाना।’’ इतनी ढिठाई! तिलमिलायी अदालत की सज़ा - पन्द्रह बेंत। टिकठी से बाँध कर नंगी पीठ पर सड़ाक-सड़ाक गिरती बेंत का कड़कता जवाब था - ‘‘भारत माता की जय!’’, ‘‘महात्मा गाँधी की जय!’’। जेल को अपना घर बताने वाले आज़ाद इसके बाद कभी भी अंग्रेज़ों की गिरफ़्त में नहीं फँसे।
गठा हुआ दोहरा कसरती बदन, औसत से कम लम्बाई, साँवला रंग, सलीके से सँवारे बाल, नुकीली मूँछें,बड़ी-बड़ी चमकदार चुभती आँखें, चेचक के दाग, देश-सेवा का सपना, क्रान्ति में अटूट निष्ठा, अविचलित आत्मविश्वास, अनुकरणीय आचरण, कार्यकर्ता का उत्साह, उद्दाम साहस, सरल विनम्रता, सतर्क दिमाग,विलक्षण प्रत्युत्पन्नमति, अतुलनीय ईमानदारी, सफल संगठनकर्ता, कुशल नेतृत्व, सटीक निशाना, स्नेहसिक्त कोमल हृदय, कठोर अनुशासन, गद्दारी से नफ़रत, साथियों की ज़रूरतों के प्रति जागरूक, अपने प्रति निष्ठुर,नारी-मात्र का सम्मान, वेष बदलने में निपुण, सीखने की ललक, सिखाने का उत्साह, परिस्थितियों का सही मूल्यांकन, देश-काल की साफ समझ, दो-टूक स्पष्टवादिता, ठहाके, विनोदप्रियता, व्यायाम का शौक, जुझारू तेवर, ख़तरे में दूसरों को पीछे कर ख़ुद आगे आने की दिलेरी, चुपचाप फ़र्ज़ पूरा करने का धैर्य, चुनौती देने की आतुरता और मर-मिटने की ज़िद - ऐसा था आज़ादी के दीवाने आज़ाद का शरीर-सौष्ठव तथा व्यक्तित्व।
पिछली शताब्दी के तीसरे दशक का भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास ऐसी अनेक घटनाओं के विवरण से अटा पड़ा है, जिनमें आज़ाद के इन गुणों की पुष्टि हुई है। आइए देखें आज़ाद की शानदार जीवन-यात्रा की ऐसी ही चन्द अविस्मरणीय झलकियाँ, ताकि हम भी सीख सकें कि कैसे जीना चाहिए और कैसे मरना।
आज़ाद ने क्रान्तिकारी पार्टी की सदस्यता 1922 में ग्रहण की। तब पार्टी के नेता थे राम प्रसाद ‘बिस्मिल’और पार्टी का नाम था - हिन्दुस्तान रिपब्लिक ऐसोसिएशन। शेरदिल आज़ाद कहते थे, ‘‘मुझे बचपन में शेर का मांस खिलाया गया है।’’ बिस्मिल उनको प्यार से ‘क्विक सिलवर’ (पारा) पुकारते थे। गाँव-गिराँव के छोटे-मोटे ऐक्शन के बाद क्रान्तिकर्म के ककहरे का पहला कीमती सबक सीखने को मिला 9 अगस्त,1925 के काकोरी ट्रेन डकैती के अभियान में। लखनऊ के निकट काकोरी में दस क्रान्तिकारियों ने सरकारी खज़ाना लूटा। बौखलायी सरकार ने आज़ाद और कुन्दन लाल के अलावा सबको गिरफ़्तार कर लिया। आज़ाद उम्र में सबसे छोटे थे। उनका दावा था - ‘‘कोई भी जीते-जी मेरे शरीर को हाथ नहीं लगा सकेगा।’’ काकोरी से बनारस पहुँचे आज़ाद घर जाने का बहाना बना कर अज्ञातवास में चले गये और इसी के साथ आरम्भ हुआ उनके आमरण भूमिगत जीवन का लम्बा और मुश्किल अध्याय।
झाँसी पहुँच कर आज़ाद मास्टर रुद्र नारायण सिंह के घर उनके छोटे भाई बन कर रहने लगे। वे उनकी पत्नी के झगड़ालू देवर और उनकी बेटी के प्यारे चाचा भी बन चुके थे। मास्टर रुद्र नारायण सिंह ने ही आज़ाद की दो तस्वीरें खींची थीं। आज़ाद अपनी ही तलाश में बार-बार छापा मारने वाले ख़ुफ़िया पुलिस के अधिकारियों के साथ गप ठोंकते, घण्टों पंजा लड़ाते, ‘शातिर आज़ाद’ की कारगुज़ारियाँ सुन-सुन कर अचरज व्यक्त करते और बाद में खिलखिला कर हँसते हुए बताते, ‘‘साले मुझे एक हौआ, एक जादूगर समझते हैं।’’
झाँसी निरापद न रहने पर एक कम्बल और रामायण का गुटका ले ओरछे और झाँसी के बीच ढिमरपुर गाँव के पास सातार नदी तट पर एक कुटिया में आसन जमाया। नाम चुना हरि शंकर ब्रह्मचारी। साधु वेषधारी आज़ाद से रास्ते में सिपाहियों ने पूछा, ‘‘क्यों तू आज़ाद है?’’ तुरन्त उत्तर दिया, ‘‘हम तो आज़ाद ही हैं। हमें क्या बन्धन है?’’ काकोरी के शहीदों राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, अशफ़ाकउल्लाह खान, रोशन सिंह और राजेन्द्र लाहिड़ी की फाँसी के बाद आज़ाद ही दल में सबसे वरिष्ठ थे। संगठन का पुनर्गठन अब उनका ही दायित्व था। अब साथियों ने उनको ‘बड़े भैया’ तथा ‘पण्डित जी’ के सम्बोधन से नवाजा। नया ठिकाना बना झाँसी के ड्राइवर रामानन्द का घर और फ़रार आज़ाद ने पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट के सामने परीक्षा देकर ड्राइविंग लाइसेन्स हासिल कर लिया। एक गाड़ी के इंजन का हैण्डिल मारते समय उनके हाथ की हड्डी टूट गयी। डाक्टर ने बेहोश करने के लिए क्लोरोफ़ार्म देते समय कहा, ‘‘अब राम-राम कहते रहिए।’’ जवाब हाज़िर था - ‘‘जी हाँ, अब हाथ टूट गया है और दर्द हो रहा है तो राम-राम कहूँ। मुझे ख़ुदा से भी घिघियाना नहीं आता।’’
आगरा में क्रान्तिकारियों के बीच हँसी-मज़ाक जारी है। मुद्दा है कौन कैसे पकड़ा जायेगा, क्या सज़ा मिलेगी। कहा गया, ‘‘पण्डित जी बुन्देलखण्ड की पहाड़ियों में शिकार खेलते नकली मित्र की गद्दारी से घायल होकर बेहोशी की हालत में पकड़े जायेंगे। सीधे जंगल से पुलिस अस्पताल। सज़ा फाँसी।’’ आज़ाद ने झिड़की दी। भगत सिंह ने विनोद किया, ‘‘आपके लिए दो रस्सों की ज़रूरत पड़ेगी, एक आपके गले के लिए और दूसरा आपके इस भारी-भरकम पेट के लिए।’’ आज़ाद हँसे, ‘‘देख फाँसी जाने का शौक मुझे नहीं है। वह तुझे मुबारक हो, रस्सा-फस्सा तुम्हारे गले के लिए है। जब तक यह “बम तुल बुख़ारा” (आज़ाद ने अपने माउज़र पिस्तौल का यह विचित्र नाम रखा था) मेरे पास है, किसने माँ का दूध पिया है जो मुझे जीवित पकड़ ले जाये!’’
एक बार भगत सिंह ने पूछा, ‘‘आपका घर कहाँ है और घर पर कौन-कौन लोग हैं, ताकि आपके बाद हमसे बन सके तो, उनकी सहायता कर सकें और देशवासियों को एक शहीद का ठीक परिचय दे सकें।’’ इस पर आज़ाद की आँखें लाल हो गयीं। व्यंग्यपूर्ण क्रोध में बोले, ‘‘क्यों? क्या मतलब? तुम्हें मेरे घर से काम है या मुझसे? पार्टी में मैं काम करता हूँ या मेरे घर के लोग? देखो रणजीत, इस बार पूछा तो पूछा,अब फिर कभी न पूछना। न घर वालों को तुम्हारी सहायता की ज़रूरत है और न मुझे अपना जीवन-चरित्र ही लिखाना है...’’ कानपुर में एक हमदर्द के घर गृहिणी परात में लड्डू भरे सीढ़ी के पास खड़ी थीं। आज़ाद वहीं मैली धोती में थे। नीचे से पुलिस का दरोगा ऊपर आता दिखा। दरोगा को देखते ही गृहस्वामिनी ने आज़ाद से कहा, ‘‘उठा रे परात!’’ आज़ाद ने परात सिर पर रख ली। फिर दरोगा से बोलीं, ‘‘आज रक्षा-बन्धन का दिन है। पहली राखी आपको ही बाँधूँगी।’’ दरोगा ने दाँत निकाल दिये। राखी बँधी। आज़ाद को डाँट पड़ी,‘‘अरे ओ उल्लू , परात नीची कर!’’ दरोगा की रूमाल में चार लड्डू बाँधे गये,दरोगा अन्दर और आज़ाद अपनी बनी हुई मालकिन के साथ चल दिये।
आज़ाद के अचूक निशाने का कमाल तब देखा गया, जब साण्डर्स-वध के बाद भाग रहे भगत सिंह और राजगुरु के पीछे दौड़ रहे सिपाही चनन सिंह को उनके माउज़र की एक गोली ने जाँघ में और दूसरी ने पेट में छेद कर के धराशायी कर दिया। लिखने-पढ़ने की आज़ाद की सीमा थी। अंग्रेज़ी नहीं जानते थे, पर साथियों से पढ़वा कर तब केवल अंग्रेजी में उपलब्ध ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा-पत्र’ सुना था। साथियों को ख़तरे में भेजने के सवाल पर भावुक हो उन्होंने कहा, ‘‘अब मैं अलग-अलग साथियों को ऐक्शन में नहीं झोंकूँगा। सेनापति के नाते क्या मेरा यही काम है कि मैं लगातार नये-नये साथी जमा करूँ, उनसे अपनापन बढ़ाऊँ और फिर योजना बना कर अपने ही हाथों उन्हें मौत के हवाले कर दूँ और खु़द आराम से बैठ कर आग में झोंकने के लिए नये सिरे से नया ईंधन बटोरना शुरू कर दूँ?’’ उनका मानना था - ‘‘मैं नेता समझा जाता हूँ। इसलिए किसी और सदस्य की जान ख़तरे में डालने से पहले मुझे स्वयं ख़तरे में पड़ना चाहिए।’’ आज़ाद के लिए अंग्रेज़ों से समझौते का विचार असह्य था। उनका कहना था, ‘‘अंग्रेज़ जब तक इस देश में शासक के रूप में रहें, हमारी उनसे गोली चलती ही रहनी चाहिए। समझौते का कोई अर्थ नहीं है। अंग्रेज़ों से हमारा केवल एक ही समझौता हो सकता है कि वे अपना बोरिया-बिस्तर बाँध कर यहाँ से चल दें।’’
इलाहाबाद में जवाहर लाल नेहरू से आज़ाद की मुलाकात हुई थी और जब उन्होंने फ़ासिस्ट कहा, तो आज़ाद बहुत क्षुब्ध हुए। नेहरू ने उनके पास पन्द्रह सौ रुपये भेजे थे, ताकि उनके साथी रूस जा सकें। मृत्यु के बाद इन्हीं रुपयों में से पाँच सौ आज़ाद की ज़ेब में पड़े मिले। 27 फरवरी, 1931 की सुबह लगभग साढ़े आठ बजे आज़ाद ने दो साथियों यशपाल और सुरेन्द्र पाण्डेय से कहा, ‘‘मुझे ऐल्फ्रेड पार्क में किसी से मिलना है। साथ ही चलते हैं। तुम लोग आगे निकल जाना।’’ तीनों साइकिल से चले। पार्क में सुखदेवराज (सुखदेव और राजगुरु नहीं) साइकिल से जाते दिखे। यशपाल समझ गये कि भैया (आज़ाद) को राज से ही मिलना था। राज के अनुसार वह आज़ाद के साथ पार्क में एक इमली के पेड़ के पास बैठ कर बातें कर रहे थे। तभी आज़ाद ने पार्क के बाहर सड़क की ओर संकेत किया - ‘‘जान पड़ता है वीरभद्र तिवारी जा रहा है। उसने हम लोगों को देखा तो नहीं।’’ इसी आधार पर वीरभद्र तिवारी पर ग़द्दारी का आरोप लगाया गया। यशपाल के अनुसार सी.आई.डी. के डी.एस.पी. विश्वेश्वर सिंह ने पार्क से गुज़रते हुए आज़ाद को देखा और अपने साथ चल रहे कोर्ट इन्स्पेक्टर डालचन्द से कहा, ‘‘वह आदमी आज़ाद जैसा लगता है। उस पर नज़र रखो, हम अभी लौटते हैं।’’ और समीप ही सी.आई.डी. सुपरिण्टेण्डेण्ट नॉट बावर के बँगले पर आज़ाद के हुलिये से मिलते-जुलते आदमी की ख़बर दी। नॉट बावर ने पिस्तौल जेब में डाली,दो अर्दली साथ लिये और विश्वेश्वर सिंह के साथ ख़ुद अपनी कार चलाता सड़क पर पेड़ के समीप खड़ी कर दी।
सड़क से पेड़ की दूरी पच्चीस-तीस कदम की थी। पेड़ की ओर बढ़ते नॉट बावर ने पिस्तौल निकाल ली। कुछ ही कदम चला कि आज़ाद ने उसे देख लिया। दोनों ओर से लगभग साथ ही गोली चली। दूसरी-तीसरी गोली में आज़ाद की जाँघ और नॉट बावर की बाँह ज़ख़्मी हो गयी। आज़ाद ने राज से कहा, ‘‘मैं तो लड़ूँगा, तुम बचने की कोशिश करो।’’ राज भाग तो गये। परन्तु इतिहास ने उनकी निन्दा की। दोनों ने आड़ ले ली। विश्वेश्वर सिंह के पास हथियार नहीं था। उसने एक राहगीर की लाइसेन्सी दुनाली बन्दूक ली और एक झाड़ी के पीछे बैठ कर आज़ाद पर गोली चलाने लगा। आज़ाद दोनों का जवाब दे रहे थे। आज़ाद की एक गोली से नॉट बावर की कार का चक्का पंक्चर हुआ और दूसरी गोली से इंजन चूर हो गया। तभी दुश्मन की दूसरी गोली आयी और आज़ाद के फेफड़े में धँस गयी। इसी बीच विश्वेश्वर सिंह ने निशाना लेने के लिए ज्यों ही झाड़ी से ऊपर सिर निकाला, आज़ाद के माउज़र ने उसका जबड़ा तोड़ कर उसे टपका दिया। सी.आई.डी. के आई.जी. हालिन्स ने शरीर में तीन-चार गोलियाँ लग चुकने के बाद भी ऐसा अचूक निशाना लेने के लिए आज़ाद की प्रशंसा की। दाहिनी भुजा ज़ख्मी हो चुकी थी। लगभग आधे घण्टे से एकाकी युद्ध करते रहने पर भी आज़ाद को याद था कि कितनी गोलियाँ खर्च हो चुकी हैं। अपना प्रण पूरा करने के लिए लहू-लुहान आज़ाद ने आखिरी बची गोली घायल हाथ से ‘बमतुल बुख़ारे’ को दायीं कनपटी से सटा कर खर्च की, शहादत का प्याला पिया और ममतामयी भारत माँ की गोद में उनके आँचल तले चिर-निद्रा में सो गये।
अंग्रेज़ भारतीय क्रान्तिकारियों को आतंकवादी कहते थे। आज भी अंग्रेज़ों के कुछ अतिक्रान्तिवादी मानस-पुत्र अपनी दिमागी ग़ुलामी के चलते वही भाषा बोलने को अभिशप्त हैं। आज़ाद हिन्दुस्तान रिपब्लिक ऐसोसिएशन की आर्मी में सामान्य सदस्य के रूप में भरती हुए। इसके बाद भगत सिंह के प्रभाव से संगठन का नाम और चरित्र बदला, विचारधारा और कार्यक्रम बदला। एच.आर.ए. हिन्दुस्तान रिपब्लिक सोशलिस्ट ऐसोसिएशन बन गया। पर आज़ाद उसके सर्व प्रिय-सर्व स्वीकृत सेनापति ‘बलराज’ बने रहे। बचपन से जिस ग़रीबी को आज़ाद ने देखा और जिया था, उसने उनको अपना विश्व-दृष्टिकोण बदलने में हर कदम पर सहायता दी। केवल आज़ादी नहीं अपितु वर्गीय शोषण से मुक्त समाजवादी प्रजातन्त्र का सपना ब्रिटिश उपनिवेशवादी साम्राज्यवाद से जूझते आज़ाद और उनकी सेना का सपना था, शहीद-ए-आज़म भगत सिंह का सपना था। आज़ाद-भगत सिंह के काल से आज तक क्रान्ति का देश-काल-सन्दर्भ सब बहुत बदल चुका है। परन्तु देशी-विदेशी पूँजी की लूट, नौकरशाही का भ्रष्टाचार, नेताओं की नौटंकी,मुक्तिकामी जन-गण का दमन करने के लिए काले कानूनों से लैस काले अंग्रेज़ों की राजसत्ता की ऑक्टोपसी जकड़ आज भी जारी है। ऐसे में शोषण और दमन की मशीनरी के हर कलपुर्ज़े को चकनाचूर करने वाली हर क्रान्तिकारी कार्यवाही की आवश्यकता आज भी यथावत बनी हुई है और आज़ाद की गाथा जन-जन के लिए प्रेरणा का स्रोत है।