Thursday, 18 October 2012

'जातिवाद' - गिरिजेश


जातिवाद मुर्दाबाद ! इन्कलाब ज़िन्दाबाद !!
"विश्व ब्राह्मण सभा" नामक ग्रुप के सदस्य मेरे प्यारे भाइयों और बहनों,
मुझे खेद है कि सम्भवतः आपने मेरा 'तिवारी' पूँछ वाला नाम देख कर मुझे अपने 'जातिवादी' ग्रुप में शामिल कर लिया. मगर मैं आप सब से पूरी विनम्रता के साथ निवेदन करना चाहता हूँ कि मैं जातिवाद का घोर विरोध करता हूँ. मैं ज़िन्दगी भर अपने सैकड़ों-हज़ारों बच्चों के साथ एक ही नारा लगाता रहा हूँ और वह है - ''जातिवाद मुर्दाबाद !''

मेरी मान्यता है कि समूची धरती पर केवल दो ही जातियों के इंसान बसते हैं. एक का जीवन 'पशुवत' है, तो दूसरा केवल 'धनपशु' है. अपने सम्पत्तिशाली होने और सम्पत्तिहीन होने के आधार पर दोनों ही अमानवीयकरण की मानसिकता के शिकार होने के लिये अभिशप्त हैं. अंग्रेज़ी में उनको "हैव्स और हैवनॉट्स" कहते हैं. वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने एक को "पूँजीपति" कहा है और दूसरे को "सर्वहारा" का नाम दिया है. भारतीय परम्परा में एक का नाम है 'लक्ष्मी नारायण' और दूसरे का है 'दरिद्र नारायण'. 'लक्ष्मी नारायण' केवल एक प्रतिशत हैं, जबकि 'दरिद्र नारायण' निन्यानबे प्रतिशत. मगर अल्पसंख्यक 'लक्ष्मी नारायण' बहुसंख्यक 'दरिद्र नारायण' पर ज़ोर-ज़ुल्म के सहारे ज़बरदस्ती अपनी तानाशाही पूरी धरती पर चला रहे हैं.

इस के चलते आज समाज में जो व्यवस्था और सत्ता चल रही है, उसका नाम ''पूँजीवादी व्यवस्था" है. सम्पत्ति के लोभ और 'शुभ-लाभ' पर टिकी इस शोषक व्यवस्था की सत्ता का चरित्र पूरी तरह से जनविरोधी है. इसमे आदमी का 'कद' उसके ज्ञान से नहीं नापा जाता है. बल्कि उसकी दौलत से उसकी हैसियत नापी जा रही है. चाहे उसका जन्म किसी भी 'जाति' में क्यों न हुआ हो. मासूम जनगण का क्रूरतापूर्वक दमन करने वाली इस पतित सत्ता के सहारे ही मुट्ठी भर लोगों ने 'धरती के स्वर्ग' पर ज़बरन अपना कब्ज़ा कर रखा है और सारी मानवता को धरती के असली 'नरक' में झुलसते रहने के लिये बाध्य कर रखा है.

और अल्पसंख्यक की बहुसंख्यक पर यह तानाशाही अब बहुत दिनों तक नहीं चलती रह सकती है. जल्दी ही इसका अन्त होने वाला है. "ऑकुपाई आन्दोलन" की पहली लहर इसका प्रमाण है. बहुत ही जल्दी इसकी लहर-दर-लहर पूरी धरती पर सभी देशों में दुबारा उठेगी और बार-बार उठेगी. और उस भीषण जन-ज्वार में यह इन्सान का खून पीने वाली मशीनरी डुबा दी जायेगी. और तब किसी जातिवादी संगठन की कोई ज़रूरत भी नहीं बचेगी. केवल एक जाति के मनुष्य ही ब्रह्माण्ड के इस एक मात्र जीवित ग्रह पर रहेंगे और उनकी जाति का नाम होगा - "मानव जाति" !

यह दोहरी समाज-व्यवस्था अनुचित और अमानवीय है. इसे नष्ट करने और हर इन्सान के लिये मानवोचित गरिमापूर्ण जीवन जीने लायक समाज बनाने के लिये जातिवादी संगठनों की नहीं बल्कि क्रान्तिकारी संगठनों की ज़रूरत है. अगर आपमें से कोई भी कहीं भी कभी भी कोई क्रान्तिकारी संगठन बनाये या उसमें शामिल हो, तो मैं सहर्ष उसका साथ देने के लिये संकल्पबद्ध हूँ.

कबीर मेरे आदर्श हैं और उनका आप्त वचन है -
"जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान;
काम करो तरवारि से, धरी रहन दो म्यान|"

और
"जो तू बाम्हन-बाम्हनि जाया, आन राह ते काहें न आया ?"
अब विज्ञान के प्रकाश की चकाचौंध में ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त का वह कथ्य अपना आभा-मण्डल खो चुका है, जो सहस्त्राब्दियों तक दम्भपूर्वक घोषणा करता रहा है -
"ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ।।"

अब तो समूची मनुष्य जाति केवल अपने 'ब्लड-ग्रुप' के सहारे पहिचानी जा रही है.
इन्कलाब ज़िन्दाबाद !
जातिवाद मुर्दाबाद !!

खेद-प्रकाश के साथ - आपका गिरिजेश 'इंकलाबी'

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प्रिय मित्र, 'जातिवाद बनाम मार्क्सवाद' की बहस नयी नहीं है. कल इस विषय पर इतना और सोचने का अवसर मिला. इसके लिये मैं नीलाक्षी की वाल पर चले लम्बे 'लिहो-लिहो' का आभारी हूँ. कृपया इस विषय पर अपनी सम्मति दें.

"मित्रों, आप सब से एक बार अपनी संकीर्ण जातिवादी अवस्थिति पर पुनर्विचार का निवेदन करना चाहूँगा. मेरी समझ है कि सत्ता द्वारा किया गया अगड़ा, पिछड़ा और अनुसूचित का विभाजन वर्ग नहीं है. यह जातियों का ही विभाजन है. जाति और वर्ग दोनों ही अलग हैं. वर्ग उत्पादन-सम्बन्धों के आधार पर परिभाषित होता है. वह अवरचना (इन्फ्रा-स्ट्रक्चर) की अवधारणा (कन्सेप्ट) है. जब कि जाति अधिरचना से जुड़ी अवधारणा है. दोनों को एक दूसरे के साथ गड्डमड्ड करने से ही यह भ्रामक वैचारिक अवस्थिति पैदा हुई है. 

मेरी समझ है कि अम्बेदकर की जातीय अपमान के विरुद्ध स्वाभिमान की लड़ाई अब केवल जातीय घृणा के प्रतिक्रियावादी चिन्तन तक सिमट गयी है. उसका यही हस्र होना ही था. उत्पादक और शोषक वर्गों के बीच का शोषण के विरुद्ध वर्ग-संघर्ष अगर क्रान्तिकारी दिशा में वर्गीय एकता पर लड़ा जायेगा, तो क्रान्तिकारी आन्दोलन का विकास होगा. अन्यथा इसे उत्पादन-सम्बन्धों की परिधि से बाहर जाकर केवल जातिगत आधार पर लड़ने का प्रयास उत्पादन-सम्बन्धों में बदलाव के बजाय परस्पर जातीय नफ़रत ही पैदा कर सकता था. और उसने ऐसा सफलतापूर्वक कर दिया है. 
"जातिवर्ग" जैसा कुछ नही होता. यह एक और भ्रामक शब्द है, जो संकीर्णता को सैद्धांतिक जामा पहनाने का प्रयास तो कर रहा है. मगर केवल एक मुगालता भर है. सांस्कृतिक पहिचान की लड़ाई तक ही सिमटे लोग जब खुद को क्रान्तिकारी कहने का प्रयास कर रहे हैं, तो आत्मप्रवंचना में उन्होंने इस शब्द का आविष्कार कर डाला है. 

दलित जातियों के द्वारा चलाया जा रहा सांस्कृतिक पहिचान का संघर्ष व्यवस्था की परिधि के भीतर केवल व्यवस्था को और मजबूत करता रहा है. वह इस शोषण पर टिकी जनविरोधी व्यवस्था के नये-नये पैरोकार तैयार कर रहा है. व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई को आगे बढाने के लिये तो वर्गीय एकजुटता की ज़मीन तैयार करनी होगी. जन को परस्पर लड़ाने के हथियार तो जनविरोधी सत्ता के हैं. आरक्षण भी उनमें से केवल एक ऐसा ही हथियार है. वह 'बाँटो और राज करो' के सिद्धान्त का नया फार्मूला मात्र है. 

जैसे ही हम अम्बेदकर की समझ को मार्क्स की समझ के साथ जोड़ने की कोशिश करते हैं, वैसे ही यह धूर्त व्यवस्था शासित वर्गों के बीच परम्परा से चली आ रही जातीय नफ़रत को और व्यापक पैमाने पर फ़ैलाने के लिये खुद को श्रेष्ठ साबित करने को बज़िद कर देने वाली दृष्टि में बाँध कर 'नवब्राह्मणवाद' के साथ एक ऐसा संयुक्त मोर्चा बनाती है, जिसके परिणाम स्वरूप मायावती और मुलायम का जातिवाद सत्ता तक तो पहुँच जाता है, मगर परिवर्तनकामी चेतना को अपने रास्ते से विचलित कर देता है. 

फ़ासिज़्म केवल आर.एस.एस. के हिन्दूवाद तक ही सीमित नहीं है, वह इसी 'श्रेष्ठताबोध' की घोषणा करने वाली प्रवृत्ति का नाम है. इस 'मैं' से विराट 'हम' तक की यात्रा केवल लिहो-लिहो कर के नहीं पूरी होनी है. इसे विचारों और विश्लेषण की ज़मीन पर खड़ा करना होगा. 

मार्क्सवाद इसी लिये विज्ञान है कि वह तर्क के लिये आधार देता है. तर्क करता है, तर्क सुनता भी है. सहमति के प्रयास करता है. इसके विपरीत केवल आक्षेप और आरोप केवल दूरी पैदा करता है. सामाजिक संरचना में आमूल बदलाव के लिये इस दूरी को पाटने का प्रयास करना होगा. मेरी समझ है कि क्रान्ति के विज्ञान को थोड़ा और गहराई से समझने का प्रयास किया जायेगा, तभी वर्तमान यथार्थ की जटिलता को सही तरीके से सूत्रबद्ध किया जा सकेगा."
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प्रिय मित्र, मेरा मत है कि जे.एन.यू. की विशेष सुविधाओं में जीते हुए और तरह-तरह के देशी-विदेशी स्रोतों से आने वाले फण्ड के दम पर तथाकथित नवदलितवादी विचारक समाज में विद्वेष का एक ऐसा विष-बीज बो रहे हैं. जिसके भरोसे देशी-विदेशी धनपशु अपना लूट-राज निर्विघ्न चलाते रहेंगे और व्यवस्था-परिवर्तन के लिये जनजागरण में जीवन खपाने वाले क्रांतिकारियों को आने वाले दिनों में इनके चलते जन-मन में घर कर चुकी और भी दुरूह विकृतियों और विसंगतियों से रू-ब-रू होना ही पड़ेगा.

ये स्वनामधन्य 'विचारक' वर्तमान भारतीय समाज-व्यवस्था के हर तरह से उजागर पूँजी और श्रम के बीच के प्रधान अन्तर्विरोध को छिपा कर जातियों के बीच के गौड़ अन्तर्विरोध को और तीखा करने के प्रयास मे लगे हैं. ये सूरज को बादलों से ढकने के चक्कर में भूल गये हैं कि सच को झुठलाया ही नहीं जा सकता. क्या आज गाँव-गिराँव और गली-कस्बे में जीने वाला सामान्य इन्सान बिलकुल ही नहीं जानता कि छोटे-बड़े दूकानदार से लेकर कण्ट्रोल के ठेकेदार तक उसी की जेब काट रहे हैं? प्रधान जी से लेकर डाक्टर साहब और वकील साहब तक, दलाल जी से लेकर सिपाही और दरोगा जी, और चमचा जी से ले कर नेता जी तक, चपरासी जी से लेकर अधिकारी महोदय तक उसी के घूस से मौज कर रहे हैं? सब के सब सुविधाभोगी लुटेरे उसका ही खून पीने के चक्कर में रात-दिन एक किये रहते हैं?

महानगर की चकाचौंध में पहुँच कर ये 'पोथी-पाँड़े' अपने अधकचरे किताबी ज्ञान के दो-चार उद्धरणों को मूल सन्दर्भों से काट कर और किसी तरह रट-रटा कर अर्ध-सत्य या पूरी तरह से कपोल-कल्पित कहानियाँ गढ़ कर सारे समाज को बेवकूफ बनाने के चक्कर में परेशान हैं. ग्रामीण जनता की न्यूनतम एकजुटता को भी तोड़ने पर आमादा होकर शासक वर्गों के ये वेतन-भोगी चाकर हमारे वर्ग-बन्धुओं को परस्पर नफ़रत के ज़हर से और भी भर देने का कुत्सित और निन्दनीय कुकर्म करने में लगे हैं. मगर महानगर केवल मुट्ठी भर महानगर हैं, जे.एन.यू. केवल जे.एन.यू. है. समूचा देश और आम आदमी की जिन्दगी का रोज-रोज का सच इस सब से बहुत बड़ा है.

वहाँ पहुँच कर ये बेचारे गाँव की जिन्दगी की ज़मीनी सच्चाई को भूल चुके हैं और दलित-पिछड़ा एकता का नारा देते हुए समझ ही नहीं सकते कि अहिरौटी और चमरौटी के बीच परम्परा से उत्पीड़ितों और बाबुआन के लठैतों का छत्तीस का भीषण विरोध रहा है. और वह विरोध और उससे पैदा हुई पुश्तैनी कटुता इनकी जातिवाद की एकता वाली मीठी गोली से इतनी आसानी से समाप्त होने नहीं जा रहा और इनकी थीसिस के अनुरूप इन दोनों पुरवों के निवासी ग्रामीणों के बीच एकता पैदा नहीं करने दे सकता. केवल और केवल मार्क्सवाद के पास ही वह वैचारिक भावभूमि और बोध के स्तर के विकास का विज्ञान है, जो समूची शोषित-पीड़ित मानवता के सभी वर्गों को एकजुट कर देता रहा है.

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 जातिवाद मुर्दाबाद! - यह नारा क्यों?
मानव-समाज की विकास-यात्रा के दौरान अलग-अलग विचार समाज के विकास के अलग-अलग चरणों में विकसित हुए हैं. जाति भी भारतीय इतिहास में एक समय में अस्तित्व में आयी. उसके पहले वर्णव्यवस्था थी. जिसका आधार पेशागत विशेषज्ञता थी. तब एक ही पिता के पुत्र व्यवसाय का चयन करने के चलते अलग-अलग वर्ण के हुआ करते थे. वर्णव्यवस्था के रूढ़ होने पर जन्मआधारित जाति व्यवस्था का उदय हुआ. जिसका जो व्यवसाय था, उसका बेटा भी उसी व्यवसाय में लगा. जातिगत अभिमान का भी जन्म हुआ. अपने को दूसरों से बेहतर मानते ही दूसरों को नीच मान लेने की मानसिकता ने समाज की परस्पर एकजुटता को तोड़ दिया और सामर्थ्यवान जातियों के लोगों ने दूसरों को नीच कह कर उन पर अत्याचार करना शुरू कर दिया. चूँकि ब्राह्मण खुद को द्विज और सर्वश्रेष्ठ समझते थे. अपना जन्म ब्रह्मा के मुख से मानते थे, इसलिए उनके बीच से सबसे अधिक अत्याचार करने वाले सामने आये. उनको ही समाज के नियम बनाने का अधिकार था इसलिए उन्होंने अपनी सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए सारे नियम-कायदे बनाये. ये सभी दूसरी जातियों के हितों के विरुद्ध थे. टकराव तब तक तीखा नहीं हो पाया जब तक दलित जातियाँ अक्षम थीं. ताकत जुटते ही उनका तेवर बढ़ता चला गया. वैज्ञानिक चेतना इस जातिगत चिन्तन से पैदा होने वाली विकृत मानसिकता का विरोध करती है. यह विकृति सभी जातियों में है. दलितों के बीच भी है. इसके चलते समाज में विघटन है. इसका उन्मूलन कर देने पर ही असली आज़ादी हासिल हो सकेगी और श्रम का सम्मान करने वाला समाज बनाया जा सकेगा. आदमी की पहिचान उसके जन्म से नहीं, उसके कर्म से होनी चाहिये. इसीलिये यह नारा लगाना उचित है - जातिवाद मुर्दाबाद!
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ब्राह्मणों के नाम पर कलंक
मुझे अपने ब्राह्मणों के नाम पर कलंक होने पर गर्व है. मैं समझता हूँ कि श्रम का सम्मान करना चाहिए और भ्रम का विरोध. अध्ययन में श्रम करने से ही सफलता मिलती है. पूजा करने से पास होना नामुमकिन है. और पूजा को पाठ के साथ तो नहीं ही जोड़ना चाहिये. प्रकृति ने जो भी उपहार हमें दिया है, श्रमिकों के श्रम ने ही उन सब को उपभोग के लायक बनाने का काम किया है. श्रम का फल अगर श्रमिक को अभी भी नहीं मिल पा रहा है, तो इसके पीछे उसके पिछले जन्म के बुरे कर्म नहीं बल्कि मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण पर टिकी वर्तमान जनविरोधी व्यवस्था है. भाग्यवाद ने पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों को भ्रम का शिकार बना कर शासक वर्गों की सत्ता को बनाये रखा है. मगर अब विज्ञान का युग है. पुनर्जन्म के खोखले सिद्धांत का भंडाफोड हो चुका है. अब पूजा-पाठ के ढोंग के सहारे लोगों को और धोखा देना असंभव है. मेरा निवेदन है कि आप भी अपनी समझ विकसित करें और श्रम और श्रमिक का सम्मान करें और भाग्य और भगवान के झूठ पर टिके फंदे से बाहर आ कर जीवन के सत्य का यथातथ्य साक्षात्कार करें. जातिवाद भी इसी तरह का एक दुष्चक्र है, जिसके सहारे ब्राह्मणों ने अपनी सुविधाओं को बनाये रखने के चक्कर में सारे समाज का समुचित विकास नहीं होने दिया और जनसामान्य को रूढ़ियों में जकड़ कर कुण्ठित करते रहे. अब कोई भी काम किसी भी जाति का आदमी कर रहा है. जातिवाद की जकडन भी दरक चुकी है. अब केवल चुनाव में ही जातिगत समीकरण दिखाई देते है. जीवन के शेष क्षेत्रों से जातिवाद का नामोनिशान मिटता जा रहा है.

मित्र, मुझसे ब्राह्मण कहते हैं कि आप ब्राह्मणों के नाम पर कलंक हैं. तो मेरे पास इसके अलावा क्या विकल्प है कि आप मुझे ब्राह्मण कहिये या कलंक. मैं तो जैसा हूँ, वैसा ही हूँ. और मुझे अपने वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर गर्व है. और हाँ, नाम के पीछे तिवारी की पूँछ मैंने हटा दिया था अपनी जवानी के दिनों में ही. एक गाँव में एक बुड्ढे ने पूछा – “अपना के?” उसका ‘अपना के’ का मतलब था कि आप किस जाति के हैं. मेरे सारे तर्क देने के बाद भी उसका प्रश्न वैसे ही बना रहा. उसे संतुष्ट नहीं कर सका. लौट कर जब उस गाँव की बैठक की बात अपने गुरु जी से बताया तो उन्होंने कहा – “डॉक्टर, फैशन करने के बजाय लोगों की भावनाओं को समझो. अनावश्यक तौर पर बात को खींचने के बजाय ज़मीनी ज़रूरत है कि सीधे-सीधे बता दो कि ‘अपना के’. और तब से यह पूँछ दुबारा गुरु जी के आदेश से चिपकानी पड़ी. एक मजेदार बात और है इस सिलसिले में. अपने बच्चों के साथ मैं ज़िंदगी भर नारा लगाता रहा - जातिवाद मुर्दाबाद! और मेरे बच्चों ने ही मेरा नाम ‘तिवारी सर’ रख दिया और वह भी अभी तक प्रचलन में है. अब आप ही बताइये कि मैं क्या करूँ!
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जुगुप्साओं का गढ़ बनता जेएनयू - Lokmitra Gautam 
"अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब जेएनयू में वामपंथी संगठनों से जुड़े छात्रों के एक गुट ने यह कहकर तनाव पैदा कर दिया था कि कैंपस में गाय और सुअर के गोश्त की दावत दी जाएगी। अदालत को इस मामले में हस्तक्षेप करके यह पार्टी टालनी पड़ी थी। अब नए सिरे से जेएनयू में पिछड़े तबके के छात्र जो जाहिर है किसी न किसी ऐसे ही संगठन से जुड़े होंगे, यह कहकर हवा में तनाव बांध रहे हैं कि 29 अक्टूबर को महिषासुर की जयंती मनायी जाएगी। इनके मुताबिक महिषासुर पिछड़ों और दलितों का नायक था जिन्हें अगड़ों से सम्बंध रखने वाली मा दुर्गा ने हत्या कर दी थी।जेएनयू की देश और दुनिया में प्रगतिशील वाम विचारधारा के गढ़ के रूप में पहचान रही है। जब हम लोग मुम्बई में थे तो अकसर वहां के छात्रों में जेएनयू को लेकर कसक देखी जाती थी। मगर इस वाम गढ़ को क्या हो गया है जो प्रगतिशीलता के नाम पर अब सतही सनसनी पैदा करने वाली गतिविधियों तक खुद को केंद्रित कर लिया है। जो लोग यह सोच रहे हैं कि इस तरह की हरकतों से वह अपने क्रांतिकारी तेवर दिखा रहे हैं, वो भ्रम में हैं। वह गैर जरूरी भटकाव पैदा कर रहे हैं और प्रगतिशील को सामंतवाद की भोतरी मोर्चेबंदी में उलझा रहे हैं। आप क्या सोचते हैं, बताएं?"

जब भी रोज-रोज के जीवन के आर्थिक पक्ष को दरकिनार कर के अतीत के उत्पीडन और शोषण का केवल सांस्कृतिक धरातल पर विरोध होगा, तो उसे मिथकों के जाल में ही उलझना पड़ेगा. और इस तरह से वैचारिक तौर पर जन चेतना को उलझाते रहने का परिणाम स्वभावतः 'सामन्तवाद विरोधी जन चेतना' को ही प्रधान तौर पर चिन्तन के अन्तर्विरोध के रूप में ही विकसित करना ही होगा. अब जब इस व्यवस्था का प्रधान अन्तर्विरोध वित्तीय नव उपनिवेशवादी संस्कृति के विरोध का होना चाहिये, तो यह अगड़े-पिछड़ों के परस्पर विरोध के बढ़ने के चलते समग्र जन चेतना को साम्राज्यवादी सांस्कृतिक विकृतियों के मूल निशाने की ओर मोड़ने ही नहीं देगा और परिणाम होगा कि सुविधाभोगी वर्ग आसानी से नव औपनिवेशिक संस्कृति की तलछट को फैलाता और आराम से भोगता रहेगा. और इस तरह से इस व्यवस्था को सांस्कृतिक स्तर पर और मजबूत करने में सहायक होता रहेगा. 
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विदेशी पूंजी और साहित्यिक खेल शंभुनाथ 

जनसत्ता 13 फरवरी, 2013: महाभारत युद्ध के बाद पांडव पक्ष के सभी योद्धा अपनी-अपनी वीरता के बारे में हांके जा रहे थे। कौन फैसला करे? चलो, पहाड़ के शिखर पर बर्बरीक के पास। बर्बरीक ने कहा, मैं तो एक ही व्यक्ति को युद्ध करते देख रहा था- कृष्ण को। उनके हाथ में हथियार कभी नहीं दिखा। अभिव्यक्ति की आजादी आज सिर्फ उनके पास है, जिनके पीछे विदेशी पंूजी खड़ी है। कोई बढ़े तो, कोई मिटे तो सब विदेशी पंूजी की लीला है। विदेशी पंूजी ही आज हर आजादी की गंगोत्री है। इसके साहित्यिक खेल कम सनसनीखेज नहीं होते। 

आज जब सलमान रुश्दी, अरुंधति राय, कमल हासन, आशीष नंदी आदि की अभिव्यक्ति की आजादी छिनने की बात उठती है तो समझ में नहीं आता कि अगर इन्हें ही अभिव्यक्ति की आजादी नहीं मिली हुई है, तो किन्हें मिली हुई है। आज ऐसे ही बुद्धिजीवी बोल रहे हैं, पढ़े-सुने जा रहे हैं, बिक रहे हैं और सभी पढ़े-लिखे लोगों की जुबान पर हैं और चिंतनीय है कि उतना ही दबता जा रहा है गैर-सनसनीखेज बाकी साहित्य। ये सभी खूब खाए-पीए और अघाए लेखक हैं, कलाकार हैं, जो अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का व्यावसायिक इस्तेमाल करना जानते हैं।

ये विवाद-क्षेत्र में सिर्फ इससे व्यावसायिक र्इंधन लेने के लिए जाते हैं, विवाद को बड़े परिप्रेक्ष्य में देखने के लिए नहीं। इन सभी के चेहरों पर अभिजात भद्रता और चिकनाई है, गुस्से की जरा-सी बदसूरती नहीं है। ऐसे ही लेखकों और बुद्धिजीवियों का बाजार है, इन्हीं के लिए भीड़ इकट्ठी होती है। ऐसे ही कार्टूनिस्ट रीयलिटी शो में जा रहे हैं। ऐसे ही लेखक और समाजविज्ञानी विदेश घूम रहे हैं। इनमें नागार्जुन और रेणु की तरह कौन जेल में है? 

गुलामी के दिनों में अंग्रेज कहते थे- भारत के लोग असभ्य हैं, बंदरों और पेड़ों की पूजा करते हैं, भारत एक राष्ट्र नहीं है, यहां लोकतंत्र नहीं चल सकता और जातिप्रथा अंग्रेजी राज के लिए बड़े फायदे की चीज है। एडवर्ड सईद ने विस्तार से बताया है कि यूरोपीय लेखक मुसलमानों के बारे में क्या-क्या कहते थे। सलमान रुश्दी, अरुंधति राय, आशीष नंदी जैसे बुद्धिजीवी पौर्वात्यवादियों के ही वंशज हैं। कोई बताए, ये उनसे भिन्न क्या कह रहे हैं? 

कुछ बुद्धिजीवी ऐसे हैं जो सलमान रुश्दी और कमल हासन पर मुखर होते हैं, मगर हुसेन पर मौन साध जाते हैं। कुछ हैं जो साम्राज्यवाद का विरोध करेंगे, पर अमेरिका का नाम नहीं लेंगे, मानो साम्राज्यवाद एक ऐसा शेर हो, जिसका मुंह गाय का है। पुराने फासीवाद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के वर्तमान हनन में फर्क यह है कि पहले लेखक जेल में डाल दिए जाते थे, अब उन पर डॉलरों की बरसात होती है। ये हर महीने न्यूयार्क, लंदन, कहीं न कहीं जाते रहते हैं। कोई प्रकाशक से अपनी रेटिंग बढ़ जाने पर अधिक रॉयल्टी की मांग करता है। किसी की रात प्रसिद्धि के जश्न में अचानक रंगीन हो जाती है।

कई लेखक बेताब हैं, कहीं से फतवा जारी हो, कहीं रोक लगे ताकि बाजार उठे। 
ताजा उदाहरण लें। आशीष नंदी की गिरफ्तारी की मांग से बढ़ कर जनतंत्र-विरोधी बात क्या होगी। पर उनका कहना कि वाममोर्चा शासन में भ्रष्टाचार इसलिए नहीं हुआ कि वहां दलित और जनजातीय लोग कभी सत्ता में नहीं आ पाए, कुछ का यह मानना है कि दलित और जनजातीय लोग बुनियादी रूप से भष्ट होते हैं। उन्हें भष्टाचार की होड़ में आगे बढ़ जाना चाहिए। अंग्रेज कई जनजातीय लोगों को अपराधी मानते थे। कुछ वही मानसिकता अब सत्ता-विमर्श के नए ढांचे में आई है। ऐसा नहीं कि इस तरह का बयान साधारण हास-परिहास है। माफी मांग लेने पर भी सैद्धांतिक मानसिकता उजागर होती है। यह किसी भी भारतीय परिघटना को धर्म, जाति, स्थानीयता से जोड़ कर देखने की सबाल्टर्नवादी थियरी का एक स्वाभाविक हिस्सा है। वामपंथी शासन में भ्रष्टाचार नहीं हुआ या कम हुआ, इसका संबंध राजनीतिक विचारधारा और ईमानदार लोगों से है या जाति-बिरादरी से? 

आशीष नंदी अपना मौलिक सबाल्टर्नवाद दिखाने के झोंक में लगभग यह कह गए कि अब भ्रष्टाचार से ही लोकतंत्र आएगा, समाजवाद आएगा। इसलिए ‘कुछ के द्वारा भ्रष्टाचार’ से ‘सबके द्वारा भ्रष्टाचार’ तक बढ़ो। दलित और जनजातीय लोग घूस लेकर दुनिया बरोब्बर करें। दलितों का भ्रष्टाचार ‘इक्वलाइजिंग फोर्सेस’ है। 

क्या पश्चिम में जाति-बिरादरी की वजह से भ्रष्टाचार बढ़ा है? आशीष नंदी का कथन लोकतंत्र और समानता की धारणाओं का ही उपहास नहीं है, यह भ्रष्टाचार को अकादमिक-नैतिक वैधता देना भी है। क्या सभी दलित और जनजातीय लोग मधु कोड़ा और ए राजा हो सकेंगे? आम दलितों के पास तो चटनी की गंध भी नहीं पहुंचेगी। असलियत है कि आम दलित और जनजातीय लोग दूसरे गरीब लोगों की तरह ही ईमानदार और भोले हैं, वे बेईमान नहीं हैं। वे ज्यादा मनुष्य हैं, जिन्हें पढ़े-लिखे अभिजात लोग ही सामुदायिक कट्टरवाद में प्रशिक्षित कर रहे हैं। 

निश्चय ही भ्रष्टाचार जितना दल-निरपेक्ष और धर्म-निरपेक्ष मामला है, उतना ही जाति-निरपेक्ष भी है। इसे लेकर गुस्सा समूचे राष्ट्र में है, भले सभी लोग असहाय हों। भ्रष्टाचार नीचे से कहीं बहुत ज्यादा ऊपर है, चाहे वहां ब्राह्मण हो, दलित या अति आधुनिक हो। इसी तरह नैतिकता सबसे अधिक जमीन के आम लोगों में है। 

दिल्ली और कुछ खास महानगरों में पिछले कुछ दशकों में समाज विज्ञान के ऐसे केंद्र बने हैं, जो नव-उपनिवेशवाद के घोंसले हैं। इनमें ऐसे ही अंडे फूटते हैं और सिद्धांत निकलते हैं। इन केंद्रों में अमेरिका और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जम कर पैसा आता है। यह जरूर देखना चाहिए कि प्रमुख सबाल्टर्नवादी समाज विज्ञानियों ने अपने जीवन के कितने साल अमेरिका में बिताए। अब ये यूरोप नहीं जाते, इनका ठिकाना अमेरिका है। 

दलितों, स्त्रियों, जनजातियों, किसानों के दमन और उनके उत्पीड़न के सवालों को उठाना एक बात है, और इनकी समस्याओं को एकदम अलगाव में देखना दूसरी बात। राष्ट्रीयता के पूंजीवादी और सामंतवादी दोषों की वजह से सबाल्टर्नवादी लेखक समूची ‘राष्ट्रीयता’ को ही ध्वस्त कर ]यह कम विडंबना नहीं है कि अमेरिका की हॉलीवुड जैसी जगहों से ऐसी संस्कृति आती है जो देश में फास्ट फूड-पेय, नाचने-गाने और उपभोग में ‘एकरूपता’ ला रही है। वहां के बौद्धिक-शैक्षिक केंद्रों से ऐसा सिद्धांत आता है जो उपर्युक्त सांस्कृतिक एकरूपता के समांतर ‘सामाजिक भिन्नता’ को बढ़ावा दे रहा है। भारत के बुद्धिजीवी उसका अंधानुकरण करते हैं। पश्चिम फिर बता रहा है कि हम क्या हैं। वह स्वतंत्रता के सब्जबाग दिखाता है और ‘सामुदायिक शत्रुता का दर्शन’ देता है, जिसे समाज वैज्ञानिक बुद्धिजीवी विद्वत्ता कहता है। 

सबाल्टर्नवादी समाज विज्ञानीया रुश्दी समर्थक अंग्रेजी लेखक कभी प्रत्यक्ष विदेशी पंूजी निवेश का विरोध नहीं करेंगे। वे हिंसक अमेरिकी जीवन-ढंग पर नहीं बोलेंगे, दुनिया के एक सौ पचास से अधिक देशों में अमेरिकी फौज की उपस्थिति पर टिप्पणी नहीं करेंगे। साम्राज्यवाद और सांस्कृतिक उन्मूलन पर उनकी कलम नहीं चलेगी। वे ‘मधुशाला’ का पाठ करके काव्य-प्रेम दिखाने वाले अमिताभ बच्चन के नरेंद्र मोदी के ब्रांड एंबेसडर बन जाने पर चुप रहेंगे। वे संक्रामक वंशवाद और मनमोहन सिंह से सम्मोहित रहेंगे।

महाराष्ट्र और असम में हिंदीभाषियों के विरुद्ध घृणा-प्रचार पर बिल्कुल नहीं बोलेंगे, क्योंकि वे ‘भारतीय राष्ट्रीयता’ की धारणा से ही प्रस्थान कर चुके हैं और दरअसल, यथास्थितिवादी वाग्विलासी हैं। ये आम आदमी की पहुंच के बाहर जा चुकी अच्छी शिक्षा और चिकित्सा के बारे में अनजान बने रहेंगे। ये अंबानी के तिरपन मंजिलों के मकान को अश्लील न कह कर दलितों से कहेंगे, तुम भी ऐसे मकान बना लो। 

सबाल्टर्नवादियों की कुछ अपनी चुप्पियां हैं, जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्तेमाल न करना इस स्वतंत्रता को किसी न किसी के हाथ बेच देना है।
जयपुर साहित्य समारोह एक व्यावसायिक विनियोग का अवसर है। हर बार इसमें चुना जाता है कि विवाद की थीम क्या हो। आजकल विवाह-शादी में, सार्वजनिक पूजा या मॉल-मल्टीप्लेक्स के प्रचार के लिए सोचा जाता है कि केंद्रीय थीम क्या हो। ठेकेदार थीम के अनुसार पैसे लेकर सब तैयार कर देते हैं। अब साहित्यिक उत्सव भी ‘विवाद की थीम’ बना कर तैयार होते हैं। सिनेमा, टीवी, खेल की हस्तियों को बुला कर और बड़े-बड़े पुरस्कार देकर प्रचारित किए गए लेखकों को देश-विदेश से बुला कर भीड़ दिखाई जाती है, ताकि साहित्यिक उत्सव का आकर्षण बढ़े। कभी-कभी रुश्दी-नायपॉल, कभी आशीष नंदी, कभी किसी और लेखक से परिस्थिति बना कर साहित्यिक उत्सव में वितंडा खड़ा कराया जाता है। कभी मंत्री कूदते हैं। कोर्ट-कचहरी भी हो जाती है। इससे उत्सव उछलता है, पूंजी भी उछलती है, लेखक भी उछलता है और बाजार भी उठता है। उछलता जो हो, गिरता साहित्य है। 

ज्ञान और विशेषज्ञता हमेशा आदर की चीज हैं। फिर भी, प्राचीन काल में सत्ता के स्वार्थ में शास्त्र के दुरुपयोग हुए हैं, उसी तरह आज भी यथास्थितिवाद के लिए सामाजिक विभाजन के उद््देश्य से ज्ञान और विशेषज्ञता के दुरुपयोग हो रहे हैं। आशीष नंदी का जाति या किसी भी खंडित सामुदायिक कोण से समस्याओं को देखना ऐसा ही एक दुरुपयोग है। 

हर बार ऐसा होता है कि जयपुर साहित्य समारोह के बौद्धिक पहाड़ से बस ऐसा ही कोई मरा चूहा निकलता है। कहीं यह समारोह का खोखलापन तो नहीं है? दुनिया भर के सैकड़ों लेखक, इतना बड़ा जमावड़ा, करोड़ों का खर्च, दुर्लभ वैश्विक दृश्य, उपन्यास ही उपन्यास और इतने तामझाम से बार-बार निकले सिर्फ नकली विवाद, नकली प्रश्न या मिथ्या चेतना। हमेशा एक शब्द और एक लाठी साथ निकलें।

देश में असहिष्णुता कौन बढ़ा रहा है? आप खुद समावेशी राष्ट्रीयता को सह नहीं पा रहे हैं, संविधान के निर्देशक सिद्धांतों को तोड़ रहे हैंं और जनता को नई-नई मिथ्या चेतनाओं और वंचनाओं के बीच निस्सहाय छोड़ रहे हैं और कहते हैं कि जनता असहिष्णु हो गई है, गुस्सैल हो गई है। बुद्धिजीवियों के चेहरे से गुस्सा गायब होगा और चिकनाई आएगी तो जनता का असंतोष निर्बुद्धिपरक रास्तों से फूटेगा। जब लेखक और समाज विज्ञानी अतार्किक होंगे तो क्या जनता कभी तार्किक होगी? साहित्य और समाज विज्ञान के पीछे से अगर अमेरिका अपना खेल खेलेगा और जयपुर साहित्य समारोह अंग्रेजी वर्चस्व वाला समारोह बन जाएगा तो वहां से सांस्कृतिक प्लेग के चूहे निकलेंगे। 

सांस्कृतिक महामारी के चूहे सिर्फ इसलिए बढ़ रहे हैं कि हिंदी लेखकों और प्रकाशकों में आत्मविश्वास की कमी है, एकजुटता की कमी है। वे भी दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में भारतीय भाषाओं के लेखकों का मेला आयोजित कर सकते हैं। जयपुर साहित्य समारोह के राष्ट्रीय जवाब की जरूरत है, जहां विवाद हो तो सही प्रश्न भी उठें।
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1 comment:

  1. डा. जाति एवं वर्ग के भारतीय समाज में गहरे सम्बन्ध है , इनको समझे बिना कोई भी बुनियादी बदलाव भारत में संभव नहीं है , यह गलती भारत का वाम आन्दोलन सुरु से ही कर रहा है . लेकिन बहस अभी जरी है . जाति मूलाधार का हिस्सा है , यही बहस सम्पुरण खेमे के भीतर हो रही !

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