आज़ाद के बलिदान-दिवस पर प्रस्तुत है उनका एक शब्द-चित्र !
जब सारा देश गुलाम था,
तब चंद्रशेखर 'आज़ाद' थे!
विश्व-क्रान्तिकारी आन्दोलन में केवल एक नाम है,
जिसकी तुलना आज़ाद से की जाती है और वह है -
चे ग्वेरा!
आज के दिन आज़ाद और चे दोनों की प्रेरक स्मृति को प्रणाम!
क्रान्ति की धार के धनी चन्द्रशेखर ‘आज़ाद’
‘‘दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे;
आज़ाद ही रहे है आज़ाद ही रहेंगे।’’
यह कथन था हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातान्त्रिक सेना के कमाण्डर-इन-चीफ़ चन्द्रशेखर ‘आज़ाद’ का,जिन्होंने अपनी कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं आने दिया। तब जब हमारी प्यारी भारत माता अंग्रेज़ों की गु़लामी की जंजीरों में जकड़ी कराह रही थी, उसके बहादुर बेटे-बेटियों का मन पढ़ाई-लिखाई में कैसे लगता? सब के सब आज़ादी के महासमर में आत्माहुति देने की उमंग से रोमांचित होते रहते थे। बलिदानी भावना का जोशीला ज्वार जन-जन के दिल-ओ-दिमाग में उमड़ता-घुमड़ता-हुंकारता-ललकारता रहता था। जुलूस-जलसे, नारे-गीत, बैठकें-अभियान,लाठियाँ-गोलियाँ, सज़ाएँ-फाँसियाँ, ख़बरें-अफ़वाहें जारी थीं। आदेश और अवहेलना, दमन और प्रतिवाद, ज़ुल्म और प्रतिरोध, अपमान और प्रतिशोध, उत्पीड़न और संकल्प; मालिक और ग़ुलाम, अंग्रेज़ और भारतीय अनवरत युद्धरत थे। टक्कर दर टक्कर घात-प्रतिघात जारी था।
ऐसे में हुआ आज़ाद का जन्म 23 जुलाई, 1906 को बगीचे के ग़रीब चौकीदार सीताराम तिवारी की झोपड़ी में जगरानी देवी की कोख से और जगह थी मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले की अलीराजपुर रियासत का दूर-दराज़ का पिछड़ा-सा गाँव भाँवरा। बचपन के दिन, खेल-कूद, दौड़-धूप, पढ़ाने की असफल कोशिश,आदिवासियों की दोस्ती, तीरंदाजी की निपुणता, तहसील की नौकरी, बम्बई का सफ़र, जहाज रंगने की मज़दूरी, महानगर की चमक-दमक के नीचे झोपड़पट्टी की नारकीय ज़िन्दगी के दमघोंटू माहौल में केवल पेट पालने की यन्त्रणा से वितृष्णा और संस्कृत अध्ययन के आकर्षण में बनारस प्रवास। 1921, असहयोग आन्दोलन का धरना और गिरफ़्तारी, अदालत का कटघरा, मजिस्ट्रेट के सवाल और चौदह वर्षीय किशोर के जवाब - ‘‘नाम?’’ ‘‘आज़ाद।’’ ‘‘पिता का नाम?’’ ‘‘स्वतन्त्र।’’ ‘‘घर?’’ ‘‘जेलखाना।’’ इतनी ढिठाई! तिलमिलायी अदालत की सज़ा - पन्द्रह बेंत। टिकठी से बाँध कर नंगी पीठ पर सड़ाक-सड़ाक गिरती बेंत का कड़कता जवाब था - ‘‘भारत माता की जय!’’, ‘‘महात्मा गाँधी की जय!’’। जेल को अपना घर बताने वाले आज़ाद इसके बाद कभी भी अंग्रेज़ों की गिरफ़्त में नहीं फँसे।
गठा हुआ दोहरा कसरती बदन, औसत से कम लम्बाई, साँवला रंग, सलीके से सँवारे बाल, नुकीली मूँछें,बड़ी-बड़ी चमकदार चुभती आँखें, चेचक के दाग, देश-सेवा का सपना, क्रान्ति में अटूट निष्ठा, अविचलित आत्मविश्वास, अनुकरणीय आचरण, कार्यकर्ता का उत्साह, उद्दाम साहस, सरल विनम्रता, सतर्क दिमाग,विलक्षण प्रत्युत्पन्नमति, अतुलनीय ईमानदारी, सफल संगठनकर्ता, कुशल नेतृत्व, सटीक निशाना, स्नेहसिक्त कोमल हृदय, कठोर अनुशासन, गद्दारी से नफ़रत, साथियों की ज़रूरतों के प्रति जागरूक, अपने प्रति निष्ठुर,नारी-मात्र का सम्मान, वेष बदलने में निपुण, सीखने की ललक, सिखाने का उत्साह, परिस्थितियों का सही मूल्यांकन, देश-काल की साफ समझ, दो-टूक स्पष्टवादिता, ठहाके, विनोदप्रियता, व्यायाम का शौक, जुझारू तेवर, ख़तरे में दूसरों को पीछे कर ख़ुद आगे आने की दिलेरी, चुपचाप फ़र्ज़ पूरा करने का धैर्य, चुनौती देने की आतुरता और मर-मिटने की ज़िद - ऐसा था आज़ादी के दीवाने आज़ाद का शरीर-सौष्ठव तथा व्यक्तित्व।
पिछली शताब्दी के तीसरे दशक का भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास ऐसी अनेक घटनाओं के विवरण से अटा पड़ा है, जिनमें आज़ाद के इन गुणों की पुष्टि हुई है। आइए देखें आज़ाद की शानदार जीवन-यात्रा की ऐसी ही चन्द अविस्मरणीय झलकियाँ, ताकि हम भी सीख सकें कि कैसे जीना चाहिए और कैसे मरना।
आज़ाद ने क्रान्तिकारी पार्टी की सदस्यता 1922 में ग्रहण की। तब पार्टी के नेता थे राम प्रसाद ‘बिस्मिल’और पार्टी का नाम था - हिन्दुस्तान रिपब्लिक ऐसोसिएशन। शेरदिल आज़ाद कहते थे, ‘‘मुझे बचपन में शेर का मांस खिलाया गया है।’’ बिस्मिल उनको प्यार से ‘क्विक सिलवर’ (पारा) पुकारते थे। गाँव-गिराँव के छोटे-मोटे ऐक्शन के बाद क्रान्तिकर्म के ककहरे का पहला कीमती सबक सीखने को मिला 9 अगस्त,1925 के काकोरी ट्रेन डकैती के अभियान में। लखनऊ के निकट काकोरी में दस क्रान्तिकारियों ने सरकारी खज़ाना लूटा। बौखलायी सरकार ने आज़ाद और कुन्दन लाल के अलावा सबको गिरफ़्तार कर लिया। आज़ाद उम्र में सबसे छोटे थे। उनका दावा था - ‘‘कोई भी जीते-जी मेरे शरीर को हाथ नहीं लगा सकेगा।’’ काकोरी से बनारस पहुँचे आज़ाद घर जाने का बहाना बना कर अज्ञातवास में चले गये और इसी के साथ आरम्भ हुआ उनके आमरण भूमिगत जीवन का लम्बा और मुश्किल अध्याय।
झाँसी पहुँच कर आज़ाद मास्टर रुद्र नारायण सिंह के घर उनके छोटे भाई बन कर रहने लगे। वे उनकी पत्नी के झगड़ालू देवर और उनकी बेटी के प्यारे चाचा भी बन चुके थे। मास्टर रुद्र नारायण सिंह ने ही आज़ाद की दो तस्वीरें खींची थीं। आज़ाद अपनी ही तलाश में बार-बार छापा मारने वाले ख़ुफ़िया पुलिस के अधिकारियों के साथ गप ठोंकते, घण्टों पंजा लड़ाते, ‘शातिर आज़ाद’ की कारगुज़ारियाँ सुन-सुन कर अचरज व्यक्त करते और बाद में खिलखिला कर हँसते हुए बताते, ‘‘साले मुझे एक हौआ, एक जादूगर समझते हैं।’’
झाँसी निरापद न रहने पर एक कम्बल और रामायण का गुटका ले ओरछे और झाँसी के बीच ढिमरपुर गाँव के पास सातार नदी तट पर एक कुटिया में आसन जमाया। नाम चुना हरि शंकर ब्रह्मचारी। साधु वेषधारी आज़ाद से रास्ते में सिपाहियों ने पूछा, ‘‘क्यों तू आज़ाद है?’’ तुरन्त उत्तर दिया, ‘‘हम तो आज़ाद ही हैं। हमें क्या बन्धन है?’’ काकोरी के शहीदों राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, अशफ़ाकउल्लाह खान, रोशन सिंह और राजेन्द्र लाहिड़ी की फाँसी के बाद आज़ाद ही दल में सबसे वरिष्ठ थे। संगठन का पुनर्गठन अब उनका ही दायित्व था। अब साथियों ने उनको ‘बड़े भैया’ तथा ‘पण्डित जी’ के सम्बोधन से नवाजा। नया ठिकाना बना झाँसी के ड्राइवर रामानन्द का घर और फ़रार आज़ाद ने पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट के सामने परीक्षा देकर ड्राइविंग लाइसेन्स हासिल कर लिया। एक गाड़ी के इंजन का हैण्डिल मारते समय उनके हाथ की हड्डी टूट गयी। डाक्टर ने बेहोश करने के लिए क्लोरोफ़ार्म देते समय कहा, ‘‘अब राम-राम कहते रहिए।’’ जवाब हाज़िर था - ‘‘जी हाँ, अब हाथ टूट गया है और दर्द हो रहा है तो राम-राम कहूँ। मुझे ख़ुदा से भी घिघियाना नहीं आता।’’
आगरा में क्रान्तिकारियों के बीच हँसी-मज़ाक जारी है। मुद्दा है कौन कैसे पकड़ा जायेगा, क्या सज़ा मिलेगी। कहा गया, ‘‘पण्डित जी बुन्देलखण्ड की पहाड़ियों में शिकार खेलते नकली मित्र की गद्दारी से घायल होकर बेहोशी की हालत में पकड़े जायेंगे। सीधे जंगल से पुलिस अस्पताल। सज़ा फाँसी।’’ आज़ाद ने झिड़की दी। भगत सिंह ने विनोद किया, ‘‘आपके लिए दो रस्सों की ज़रूरत पड़ेगी, एक आपके गले के लिए और दूसरा आपके इस भारी-भरकम पेट के लिए।’’ आज़ाद हँसे, ‘‘देख फाँसी जाने का शौक मुझे नहीं है। वह तुझे मुबारक हो, रस्सा-फस्सा तुम्हारे गले के लिए है। जब तक यह “बम तुल बुख़ारा” (आज़ाद ने अपने माउज़र पिस्तौल का यह विचित्र नाम रखा था) मेरे पास है, किसने माँ का दूध पिया है जो मुझे जीवित पकड़ ले जाये!’’
एक बार भगत सिंह ने पूछा, ‘‘आपका घर कहाँ है और घर पर कौन-कौन लोग हैं, ताकि आपके बाद हमसे बन सके तो, उनकी सहायता कर सकें और देशवासियों को एक शहीद का ठीक परिचय दे सकें।’’ इस पर आज़ाद की आँखें लाल हो गयीं। व्यंग्यपूर्ण क्रोध में बोले, ‘‘क्यों? क्या मतलब? तुम्हें मेरे घर से काम है या मुझसे? पार्टी में मैं काम करता हूँ या मेरे घर के लोग? देखो रणजीत, इस बार पूछा तो पूछा,अब फिर कभी न पूछना। न घर वालों को तुम्हारी सहायता की ज़रूरत है और न मुझे अपना जीवन-चरित्र ही लिखाना है...’’ कानपुर में एक हमदर्द के घर गृहिणी परात में लड्डू भरे सीढ़ी के पास खड़ी थीं। आज़ाद वहीं मैली धोती में थे। नीचे से पुलिस का दरोगा ऊपर आता दिखा। दरोगा को देखते ही गृहस्वामिनी ने आज़ाद से कहा, ‘‘उठा रे परात!’’ आज़ाद ने परात सिर पर रख ली। फिर दरोगा से बोलीं, ‘‘आज रक्षा-बन्धन का दिन है। पहली राखी आपको ही बाँधूँगी।’’ दरोगा ने दाँत निकाल दिये। राखी बँधी। आज़ाद को डाँट पड़ी,‘‘अरे ओ उल्लू , परात नीची कर!’’ दरोगा की रूमाल में चार लड्डू बाँधे गये,दरोगा अन्दर और आज़ाद अपनी बनी हुई मालकिन के साथ चल दिये।
आज़ाद के अचूक निशाने का कमाल तब देखा गया, जब साण्डर्स-वध के बाद भाग रहे भगत सिंह और राजगुरु के पीछे दौड़ रहे सिपाही चनन सिंह को उनके माउज़र की एक गोली ने जाँघ में और दूसरी ने पेट में छेद कर के धराशायी कर दिया। लिखने-पढ़ने की आज़ाद की सीमा थी। अंग्रेज़ी नहीं जानते थे, पर साथियों से पढ़वा कर तब केवल अंग्रेजी में उपलब्ध ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा-पत्र’ सुना था। साथियों को ख़तरे में भेजने के सवाल पर भावुक हो उन्होंने कहा, ‘‘अब मैं अलग-अलग साथियों को ऐक्शन में नहीं झोंकूँगा। सेनापति के नाते क्या मेरा यही काम है कि मैं लगातार नये-नये साथी जमा करूँ, उनसे अपनापन बढ़ाऊँ और फिर योजना बना कर अपने ही हाथों उन्हें मौत के हवाले कर दूँ और खु़द आराम से बैठ कर आग में झोंकने के लिए नये सिरे से नया ईंधन बटोरना शुरू कर दूँ?’’ उनका मानना था - ‘‘मैं नेता समझा जाता हूँ। इसलिए किसी और सदस्य की जान ख़तरे में डालने से पहले मुझे स्वयं ख़तरे में पड़ना चाहिए।’’ आज़ाद के लिए अंग्रेज़ों से समझौते का विचार असह्य था। उनका कहना था, ‘‘अंग्रेज़ जब तक इस देश में शासक के रूप में रहें, हमारी उनसे गोली चलती ही रहनी चाहिए। समझौते का कोई अर्थ नहीं है। अंग्रेज़ों से हमारा केवल एक ही समझौता हो सकता है कि वे अपना बोरिया-बिस्तर बाँध कर यहाँ से चल दें।’’
इलाहाबाद में जवाहर लाल नेहरू से आज़ाद की मुलाकात हुई थी और जब उन्होंने फ़ासिस्ट कहा, तो आज़ाद बहुत क्षुब्ध हुए। नेहरू ने उनके पास पन्द्रह सौ रुपये भेजे थे, ताकि उनके साथी रूस जा सकें। मृत्यु के बाद इन्हीं रुपयों में से पाँच सौ आज़ाद की ज़ेब में पड़े मिले। 27 फरवरी, 1931 की सुबह लगभग साढ़े आठ बजे आज़ाद ने दो साथियों यशपाल और सुरेन्द्र पाण्डेय से कहा, ‘‘मुझे ऐल्फ्रेड पार्क में किसी से मिलना है। साथ ही चलते हैं। तुम लोग आगे निकल जाना।’’ तीनों साइकिल से चले। पार्क में सुखदेवराज (सुखदेव और राजगुरु नहीं) साइकिल से जाते दिखे। यशपाल समझ गये कि भैया (आज़ाद) को राज से ही मिलना था। राज के अनुसार वह आज़ाद के साथ पार्क में एक इमली के पेड़ के पास बैठ कर बातें कर रहे थे। तभी आज़ाद ने पार्क के बाहर सड़क की ओर संकेत किया - ‘‘जान पड़ता है वीरभद्र तिवारी जा रहा है। उसने हम लोगों को देखा तो नहीं।’’ इसी आधार पर वीरभद्र तिवारी पर ग़द्दारी का आरोप लगाया गया। यशपाल के अनुसार सी.आई.डी. के डी.एस.पी. विश्वेश्वर सिंह ने पार्क से गुज़रते हुए आज़ाद को देखा और अपने साथ चल रहे कोर्ट इन्स्पेक्टर डालचन्द से कहा, ‘‘वह आदमी आज़ाद जैसा लगता है। उस पर नज़र रखो, हम अभी लौटते हैं।’’ और समीप ही सी.आई.डी. सुपरिण्टेण्डेण्ट नॉट बावर के बँगले पर आज़ाद के हुलिये से मिलते-जुलते आदमी की ख़बर दी। नॉट बावर ने पिस्तौल जेब में डाली,दो अर्दली साथ लिये और विश्वेश्वर सिंह के साथ ख़ुद अपनी कार चलाता सड़क पर पेड़ के समीप खड़ी कर दी।
सड़क से पेड़ की दूरी पच्चीस-तीस कदम की थी। पेड़ की ओर बढ़ते नॉट बावर ने पिस्तौल निकाल ली। कुछ ही कदम चला कि आज़ाद ने उसे देख लिया। दोनों ओर से लगभग साथ ही गोली चली। दूसरी-तीसरी गोली में आज़ाद की जाँघ और नॉट बावर की बाँह ज़ख़्मी हो गयी। आज़ाद ने राज से कहा, ‘‘मैं तो लड़ूँगा, तुम बचने की कोशिश करो।’’ राज भाग तो गये। परन्तु इतिहास ने उनकी निन्दा की। दोनों ने आड़ ले ली। विश्वेश्वर सिंह के पास हथियार नहीं था। उसने एक राहगीर की लाइसेन्सी दुनाली बन्दूक ली और एक झाड़ी के पीछे बैठ कर आज़ाद पर गोली चलाने लगा। आज़ाद दोनों का जवाब दे रहे थे। आज़ाद की एक गोली से नॉट बावर की कार का चक्का पंक्चर हुआ और दूसरी गोली से इंजन चूर हो गया। तभी दुश्मन की दूसरी गोली आयी और आज़ाद के फेफड़े में धँस गयी। इसी बीच विश्वेश्वर सिंह ने निशाना लेने के लिए ज्यों ही झाड़ी से ऊपर सिर निकाला, आज़ाद के माउज़र ने उसका जबड़ा तोड़ कर उसे टपका दिया। सी.आई.डी. के आई.जी. हालिन्स ने शरीर में तीन-चार गोलियाँ लग चुकने के बाद भी ऐसा अचूक निशाना लेने के लिए आज़ाद की प्रशंसा की। दाहिनी भुजा ज़ख्मी हो चुकी थी। लगभग आधे घण्टे से एकाकी युद्ध करते रहने पर भी आज़ाद को याद था कि कितनी गोलियाँ खर्च हो चुकी हैं। अपना प्रण पूरा करने के लिए लहू-लुहान आज़ाद ने आखिरी बची गोली घायल हाथ से ‘बमतुल बुख़ारे’ को दायीं कनपटी से सटा कर खर्च की, शहादत का प्याला पिया और ममतामयी भारत माँ की गोद में उनके आँचल तले चिर-निद्रा में सो गये।
अंग्रेज़ भारतीय क्रान्तिकारियों को आतंकवादी कहते थे। आज भी अंग्रेज़ों के कुछ अतिक्रान्तिवादी मानस-पुत्र अपनी दिमागी ग़ुलामी के चलते वही भाषा बोलने को अभिशप्त हैं। आज़ाद हिन्दुस्तान रिपब्लिक ऐसोसिएशन की आर्मी में सामान्य सदस्य के रूप में भरती हुए। इसके बाद भगत सिंह के प्रभाव से संगठन का नाम और चरित्र बदला, विचारधारा और कार्यक्रम बदला। एच.आर.ए. हिन्दुस्तान रिपब्लिक सोशलिस्ट ऐसोसिएशन बन गया। पर आज़ाद उसके सर्व प्रिय-सर्व स्वीकृत सेनापति ‘बलराज’ बने रहे। बचपन से जिस ग़रीबी को आज़ाद ने देखा और जिया था, उसने उनको अपना विश्व-दृष्टिकोण बदलने में हर कदम पर सहायता दी। केवल आज़ादी नहीं अपितु वर्गीय शोषण से मुक्त समाजवादी प्रजातन्त्र का सपना ब्रिटिश उपनिवेशवादी साम्राज्यवाद से जूझते आज़ाद और उनकी सेना का सपना था, शहीद-ए-आज़म भगत सिंह का सपना था। आज़ाद-भगत सिंह के काल से आज तक क्रान्ति का देश-काल-सन्दर्भ सब बहुत बदल चुका है। परन्तु देशी-विदेशी पूँजी की लूट, नौकरशाही का भ्रष्टाचार, नेताओं की नौटंकी,मुक्तिकामी जन-गण का दमन करने के लिए काले कानूनों से लैस काले अंग्रेज़ों की राजसत्ता की ऑक्टोपसी जकड़ आज भी जारी है। ऐसे में शोषण और दमन की मशीनरी के हर कलपुर्ज़े को चकनाचूर करने वाली हर क्रान्तिकारी कार्यवाही की आवश्यकता आज भी यथावत बनी हुई है और आज़ाद की गाथा जन-जन के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
shandar likha hai aapne.
ReplyDeletehttp://uniquepostofindia.blogspot.in/2013/02/blog-post_22.html?showComment=1367208452083#c237484951089928831
ReplyDeleteप्रिय मित्र, आज़ाद की शहादत का दिन और उनसे नेहरू की मुलाकात का दिन एक ही बताने वाले और आज़ाद के अल्फ्रेड पार्क जाने की सूचना पुलिस तक पहुँचाने का नेहरू पर आरोप लगा कर नेहरू को पुलिस का मुखबिर बताने वाले लोगों के षड्यंत्र की सच्चाई की जानकारी आप सब को देने के लिये पेश है यशपाल द्वारा लिखित सिंहावलोकन के पृष्ठ 392 से 402 तक. इसे अवश्य देखने का कष्ट करें.
ReplyDeleteइस आरोप को इन लिंक्स पर देखिये.
http://en.wikipedia.org/wiki/Chandra_Shekhar_Azad
कहता है उसी तारीख को मिले थे (See the second Paragraph)
"Chandra Shekhar Azad met Pandit Nehru on 27 February 1931 early morning and asked help to stop capital punishment of these three Krantikari(Bhagat Singh,Rajguru and Shukhdev). Pandit Nehru did not agree with him on some points and told him to leave immediately.So,Azad had to return back with an empty hand.
On the same day, Azad went to the Alfred Park . He sat under a
tree of Jamun.... "
Chandra Shekhar Azad - Wikipedia, the free encyclopedia
अब यह लिंक देखिये -
https://www.facebook.com/thaluaaclub/posts/274844565955560
Thalua Club - "चंद्रशेखर आज़ाद की मौत से जुडी फ़ाइल आज भी लखनऊ के सीआइडी ऑफिस १- गोखले मार्ग मे रखी है .. उस फ़ाइल को नेहरु ने सार्वजनिक करने से मना कर दिया .. इतना ही नही नेहरु ने यूपी के प्रथम मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पन्त को उस फ़ाइल को नष्ट करने का आदेश दिया था .. लेकिन चूँकि पन्त जी खुद एक महान क्रांतिकारी रहे थे इसलिए उन्होंने नेहरु को झूठी सुचना दी की उस फ़ाइल को नष्ट कर दिया गया है ..
उस फ़ाइल मे इलाहब...ाद के तत्कालीन पुलिस सुपरिटेंडेंट मिस्टर नॉट वावर के बयान दर्ज है जिसने अगुवाई मे ही पुलिस ने अल्फ्रेड पार्क मे बैठे आजाद को घेर लिया था और एक भीषण गोलीबारी के बाद आज़ाद शहीद हुए |...नॉट वावर ने अपने बयान मे कहा है कि " मै खाना खा रहा था तभी नेहरु का एक संदेशवाहक आया उसने कहा कि नेहरु जी ने एक संदेश दिया है कि आपका शिकार अल्फ्रेड पार्क मे है और तीन बजे तक रहेगा .. मै कुछ समझा नही फिर मैं तुरंत आनंद भवन भागा और नेहरु ने बताया कि अभी आज़ाद अपने साथियो के साथ आया था वो रूस भागने के लिए बारह सौ रूपये मांग रहा था मैंने उसे अल्फ्रेड पार्क मे बैठने को कहा है "
ReplyDeleteफिर मै बिना देरी किये पुलिस बल लेकर अल्फ्रेड पार्क को चारो ओर घेर लिया और आजाद को आत्मसमर्पण करने को कहा लेकिन उसने अपना माउजर निकालकर हमारे एक इंस्पेक्टर को मार दिया फिर मैंने भी गोली चलाने का हुकम दिया .. पांच गोली से आजाद ने हमारे पांच लोगो को मारा फिर छठी गोली अपने कनपटी पर मार दी |"
27 फरवरी 1931, सुबह आजाद नेहरु से आनंद भवन में उनसे भगत सिंह की फांसी की सजा को उम्र केद में बदलवाने के लिए मिलने गये, क्यों की वायसराय लार्ड इरविन से नेहरु के अच्छे ''सम्बन्ध'' थे, पर नेहरु ने आजाद की बात नही मानी,दोनों में आपस में तीखी बहस हुयी, और नेहरु ने तुरंत आजाद को आनंद भवन से निकल जाने को कहा । आनंद भवन से निकल कर आजाद सीधे अपनी साइकिल से अल्फ्रेड पार्क गये । इसी पार्क में नाट बाबर के साथ मुठभेड़ में वो शहीद हुए थे ।अब आप अंदाजा लगा लीजिये की उनकी मुखबरी किसने की ? आजाद के लाहोर में होने की जानकारी सिर्फ नेहरु को थी । अंग्रेजो को उनके बारे में जानकारी किसने दी ? जिसे अंग्रेज शासन इतने सालो तक पकड़ नही सका,तलाश नही सका था, उसे अंग्रेजो ने 40 मिनट में तलाश कर, अल्फ्रेड पार्क में घेर लिया । वो भी पूरी पुलिस फ़ोर्स और तेयारी के साथ ?
आज़ाद पहले कानपूर गणेश शंकर विद्यार्थी जी के पास गए फिर वहाँ तय हुआ की स्टालिन की मदद ली जाये क्योकि स्टालिन ने खुद ही आजाद को रूस बुलाया था . सभी साथियो को रूस जाने के लिए बारह सौ रूपये की जरूरत थी .जो उनके पास नही था इसलिए आजाद ने प्रस्ताव रखा कि क्यों न नेहरु से पैसे माँगा जाये .लेकिन इस प्रस्ताव का सभी ने विरोध किया और कहा कि नेहरु तो अंग्रेजो का दलाल है लेकिन आजाद ने कहा कुछ भी हो आखिर उसके सीने मे भी तो एक भारतीय दिल है वो मना नही करेगा |
फिर आज़ाद अकेले ही कानपूर से इलाहबाद रवाना हो गए और आनंद भवन गए उनको सामने देखकर नेहरु चौक उठा | आजाद ने उसे बताया कि हम सब स्टालिन के पास रूस जाना चाहते है क्योकि उन्होंने हमे बुलाया है और मदद करने का प्रस्ताव भेजा है .पहले तो नेहरु काफी गुस्सा हुआ फिर तुरंत ही मान गया और कहा कि तुम अल्फ्रेड पार्क बैठो मेरा आदमी तीन बजे तुम्हे वहाँ ही पैसे दे देगा |"
और अब मेरे ब्लॉग http://young-azamgarh.blogspot.in/2012/10/blog-post_13.html में यह देखिये - "इलाहाबाद में जवाहर लाल नेहरू से आज़ाद की मुलाकात हुई थी और जब उन्होंने फ़ासिस्ट कहा, तो आज़ाद बहुत क्षुब्ध हुए। नेहरू ने उनके पास पन्द्रह सौ रुपये भेजे थे, ताकि उनके साथी रूस जा सकें। मृत्यु के बाद इन्हीं रुपयों में से पाँच सौ आज़ाद की ज़ेब में पड़े मिले। 27 फरवरी, 1931 की सुबह लगभग साढ़े आठ बजे आज़ाद ने दो साथियों यशपाल और सुरेन्द्र पाण्डेय से कहा, ‘‘मुझे ऐल्फ्रेड पार्क में किसी से मिलना है। साथ ही चलते हैं। तुम लोग आगे निकल जाना।’’ तीनों साइकिल से चले। पार्क में सुखदेवराज (सुखदेव और राजगुरु नहीं) साइकिल से जाते दिखे। यशपाल समझ गये कि भैया (आज़ाद) को राज से ही मिलना था। राज के अनुसार वह आज़ाद के साथ पार्क में एक इमली के पेड़ के पास बैठ कर बातें कर रहे थे। तभी आज़ाद ने पार्क के बाहर सड़क की ओर संकेत किया - ‘‘जान पड़ता है वीरभद्र तिवारी जा रहा है। उसने हम लोगों को देखा तो नहीं।’’ इसी आधार पर वीरभद्र तिवारी पर ग़द्दारी का आरोप लगाया गया। यशपाल के अनुसार सी.आई.डी. के डी.एस.पी. विश्वेश्वर सिंह ने पार्क से गुज़रते हुए आज़ाद को देखा और अपने साथ चल रहे कोर्ट इन्स्पेक्टर डालचन्द से कहा, ‘‘वह आदमी आज़ाद जैसा लगता है। उस पर नज़र रखो, हम अभी लौटते हैं।’’ और समीप ही सी.आई.डी. सुपरिण्टेण्डेण्ट नॉट बावर के बँगले पर आज़ाद के हुलिये से मिलते-जुलते आदमी की ख़बर दी। नॉट बावर ने पिस्तौल जेब में डाली, दो अर्दली साथ लिये और विश्वेश्वर सिंह के साथ ख़ुद अपनी कार चलाता सड़क पर पेड़ के समीप खड़ी कर दी।"
ReplyDeleteअब यशपाल के सिंहावलोकन से पढ़िए - "1931 के शुरू की बात कह रहा था. एक दिन आज़ाद ..... प. नेहरू से बात करने आनंद भवन गये.... आज़ाद एक बार मोतीलाल जी से मिल चुके थे...प.नेहरू ने आज़ाद से मुलाकात का अपनी आत्मकथा में जिक्र किया है - (मेरी कहानी- नेहरू पृष्ठ 269)...आज़ाद ने नेहरू जी से मुलाकात के बाद जब इस घटना की बात हम लोगों को कटरे के मकान में सुनायी, तो उनके होंठ खिन्नता से फडक रहे थे और उन्होंने कहा था, "साला हमें फासिस्ट कहता है."....आज़ाद को इस बात का बहुत कलख था कि नेहरू जी ने उन्हें फासिस्ट कहा. उन्होंने कहा, "सोहन,(यशपाल) एक दिन तुम जाकर प. नेहरू से मिलो." मैंने प्रायः फरवरी के दूसरे-तीसरे सप्ताह में शिवमूर्ति जी से कह कर नेहरू जी से मिलने का समय तय किया और संध्या समय आनंद भवन गया.....मैंने... रूस जाने और ... आर्थिक सहायता का अनुरोध भी किया. ...मैंने अनुमान से पाँच-छः हज़ार की रकम बता दी. नेहरू जी ने कहा, "इतना तो बहुत है पर मैं जो कुछ हो सकेगा, करूँगा." लौटने के बाद मैंने बातचीत का ब्यौरा आज़ाद को बताया तो उन्हें काफी सन्तोष हुआ.....लगभग तीसरे दिन शिवमूर्ति जी ने मुझे पन्द्रह सौ रुपये देकर कहा कि शेष के लिये नेहरू जी प्रबन्ध कर रहे हैं....कटरे के मकान में लौट कर मैंने यह रूपया आज़ाद को सौंप देना चाह तो उन्होंने कहा, "तुम्हीं रखो." इस विचार से कि किसी दुर्घटना में सभी रुपया एक साथ न चला जाये, पाँच सौ उनकी जेब में डाल दिया. ...दूसरे दिन २७ फरवरी को सुरेन्द्र पाण्डेय और मैं स्वेटरों के लिये चौक जाने के लिये तैयार हुए तो आज़ाद ने कहा, "मुझे अल्फ्रेड पार्क में किसी से मिलने जाना है. साथ ही चलते हैं. तुम लोग आगे निकल जाना." हम तीनो साईकिलों से अल्फ्रेड पार्क के सामने से जा रहे थे एक साइकिल पर सुखदेव राज पार्क में जाता दिखाई दिया. मैं समझ गया कि भैया (आज़ाद) को राज से ही मिलना है.... भैया पार्क में चले गये और पाण्डेय और मैं सीधे चौक की ओर."
और अब यह नया शिगूफा! धन्य हैं चरित्रहनन की राजनीति करने वाले. अरे समझदारों, आसमान पर थूकोगे, तो तुम्हारे ही मुँह पर गिर रहा है. लोग सब देख-जान रहे हैं. इतिहास के अपराधियों, इतिहास तुमको माफ नहीं करेगा. वह तुम्हारा ही भन्डाफोड करता रहेगा. और
ReplyDeleteसही समय आते ही तुमको तुम्हारे कुत्सप्रचार के अपराध की सज़ा भी ज़रूर देगा. सजग रहो. जन की नज़र और समझ को धोखा देना और वह भी आज के इन्टरनेट के युग में आसान नहीं रहा है अब. संभल कर लिखो. पकडे जाने पर जवाब देते नहीं बनेगा.
Amar Ujala, Hindi daily in one of its report today mentioned Shiv Verma, Comrade of Bhagat Singh as 'Approver'(Sultani Gawah), it is shame ful, to say the least.Shiv Verma dedicated all his life to socialist movement in India and went through all kinds of deprivations, still he went to London in 1992-93, almost at the age of 90 years and worked for five weeks in British Library to collect material for writing on Bhagat Singh/revolutionary movement.My response to news
आपके संवाददाता ने शिव वर्मा जैसे महान क्रन्तिकारी और भगत सिंह के विश्वासपात्र को सुल्तानी गवाह बता कर तथ्यों के साथ खिलवाड़ और जन भावनाओं का अपमान किया है, इसके लिया अमर उजाला को औपचारिक रूप से खेद व्यक्त करना चाहिए
चमन लाल , प्रोफ़ेसर भारतीय भाषा केंद्र जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय , नई दिल्ली
संपादक शहीद भगत सिंह;दस्तावेजों के आईने में-भारत सरकार प्रकाशन
और अब भगत सिंह के नाम पर यह नया शिगूफा!
-:Negi Revo - "BHagat Singh ka Bhagwakaran ki ek or koshish.. RAAMDEV DWARA...":-
धन्य हैं इतिहास की मन-गढन्त रचना करने वाले. अरे समझदारों, आसमान पर थूकोगे, तो तुम्हारे ही मुँह पर गिर रहा है. लोग सब
देख-जान रहे हैं. इतिहास के अपराधियों, इतिहास तुमको माफ नहीं करेगा. वह तुम्हारा ही भन्डाफोड करता रहेगा. और सही समय आते ही तुमको तुम्हारे कुत्सा प्रचार के अपराध की सज़ा भी ज़रूर देगा. सजग रहो. जन की नज़र और समझ को धोखा देना और वह भी आज के इन्टरनेट के युग में आसान नहीं रहा है अब. संभल कर लिखो. पकडे जाने पर जवाब देते नहीं बनेगा....
भगत सिंह भारतीय क्रान्ति के प्रतीक-पुरुष हैं. उनके जीवन का हर घटनाक्रम और उनके सारे लेख और बयान इतिहास के पन्नों के अन्दर सुरक्षित हैं. सारे लिंक उपलब्ध हैं. यह सब उलटा-पलटा जो आप कह रहे है, यह सब किस किताब में लिखा है? वह कौन-सा मुकदमा है जिसे आप भगत सिंह के नाम से जोड़ रहे है और क्यों जोड़ रहे हैं? किस पत्रकार से भगत सिंह ने अपनी 'यह' अंतिम इच्छा बतायी थी? कोई स्रोत है आपके पास? अगर नहीं है तो कृपया इतिहास के साथ मज़ाक मत कीजिए. ज़रा यह देखिए आप क्या लिख रहे हैं -
"अब सांड्र्स को सज़ा मिलनी चाहिए इसके लिये शहीदेआजम भगत सिंह ने आदलत में मुकद्दमा कर दिया । सुनवाई हुई । अदालत ने फैसला दिया कि लाला पर जी जो लाठिया मारी गई है वो कानून के आधार पर मारी गई है अब इसमे उनकी मौत हो गई तो हम क्या करे इसमे कुछ भी गलत नहीं है ।नतीजा सांड्र्स को बाईजत बरी किया जाता है ।
तब भगत सिंह को गुस्सा आया उसने कहा जिस अंग्रेजी न्याय व्यवस्था ने लालाजी के हथियारे को बाईज्जत बरी कर दिया । उसको सज़ा मैं दुंगा । और इसे वहीं पहुँचाउगा जहाँ इसने लाला जी पहुँचाया है । और जैसा आप जानते फ़िर भगत सिंह ने सांड्र्स को गोली से उड़ा दिया । और फ़िर भगत सिंह को इसके लिये फ़ांसी की सज़ा हुई ।
जिंदगी के अंतिम दिनो जब भगत सिंह लाहौर जेल में बंद थे तो बहुत से पत्रकार उनसे मिलने जाया करते थे । और भगत सिंह से पुछा उनकी कोई आखिरी इच्छा और देश के युवाओ के लिये कोई संदेश ?
शहीदेआजम भगत सिंह ने कहा कि मैं देश के नौजवानो से उम्मीद करता हूँ । कि जिस indian police act के कारण लाला जी जान गई । जिस indian police act के आधार मैं फ़ांसी चढ़ रहा हूँ । मै आशा करता हुं इस देश के नौजवान आजादी मिलने से पहले पहले इस indian police act खत्म करवां देगें ।ये मेरी भावना है | यही मेरे दिल की इच्छा है ।"