लड़ता रहा हूँ मैं
दाँत भींच, ओंठ काट,
जर्जर पहाड़ पाट,
जंगल में मंगल है,
मन-मयूर हुआ मस्त;
बाहर से फिर भी तो
दूर खड़े लोगों को,
दिखता रहा हूँ मैं
पूरा ही अस्त-व्यस्त;
कठिन युद्ध जारी है,
कितनी मक्कारी है;
मैं ही क्या प्रतिभट भी
होता है लस्त-पस्त;
जीवन जटिलता के
ताने को सुलझाता,
उलझा समाज सारा
आखिर है क्यों त्रस्त!
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