प्रश्न - क्या त्याग हमेशा दूसरों के लिए ही किया जाता है? क्या त्याग का मतलब ही परहित होता है? लाखों क्रांतिकारियों ने प्राणोत्सर्ग किसके लिए किया? क्या उनके लिए जो या तो उनसे सहमत नहीं थे या उनके विरोधी थे?
उत्तर - "सकारात्मक पहलू और वैज्ञानिक द्रष्टिकोण ही मुझे मान्य है ......" इस अंश से मैं भी सहमत हूँ. मगर विचारणीय है कि क्या त्याग केवल 'परहित' ही किया जाता है. मेरी मान्यता है कि चाहे कितना ही छोटा हो या बहुत बड़ा - कोई भी त्याग किसी और के लिये नहीं, बल्कि अपने खुद के विचारों को रूपायित करने के लिये किया जाता है.
अब यह अलग प्रश्न है कि वे विचार कैसे हैं. हो सकता है कि वे विचार मानवता के लिये हितकर हों (जैसे वैज्ञानिकों, फकीरों और क्रांतिकारियों के) और यह भी हो सकता है कि वे विचार मानवता के लिये कष्टकर हों (जैसे हिटलर जैसे तानाशाहों, तालिबानियों, दंगाइयों, अपराधियों, जातिवादियों, धर्मान्धों, अन्ध-राष्ट्रवादियों, साम्राज्यवादियों के). मगर व्यक्ति उन विचारों से ही प्रेरित होकर कोई आचरण करता है, जिनके सम्पर्क में वह आता है और जिनको सही मानता है.
वही व्यक्ति नये विचारों के सम्पर्क में आने पर और अपने पुराने विचार बदल जाने पर अपने अतीत के आचरण को गलत मानता है और अपने आचरण में आगे चल कर आमूल-चूल बदलाव भी कर डालता है (जैसे रत्नाकर डाकू से वाल्मीकि, चण्ड अशोक से अशोक प्रियदर्शी, राजकुमार सिद्धार्थ से भगवान बुद्ध, कांग्रेस के सुभाष से आज़ाद हिंद फौज़ के सुभाष,).
परिवर्तन की प्रक्रिया में नूतन के सायास ग्रहण और पुरातन के सहज त्याग की इस अवधारणा को 'निषेध का निषेध' कहते हैं. प्रशंसा ग्रहण की होनी चाहिए. किन्तु लोकरूढ़ होने के चलते उसके बजाय त्याग की ही प्रशंसा की जाती रही है. जो बहुत उचित नहीं प्रतीत होता. क्योंकि जो नित नूतन विचारों को ग्रहण करने का प्रयास करता है, वही जड़ हो चुके विचारों का त्याग भी निःसंकोच कर सकता है.
राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं कि विचारों को बोझ बना कर सिर पर ढोने के बजाय बेड़े की तरह पार उतरने के लिये प्रयोग किया जाना चाहिए. चाहे आप्त वचन हों या हमारे खुद के - विचार हमें अपनी और दूसरों की जिन्दगी की समस्याओं के हल सुझाते हैं. मगर कई बार हम अपनी जड़ता में अतीत के विचारों को वर्तमान तथ्यों पर ज़बरदस्ती आरोपित करने के चक्कर में असह्य बना बैठते हैं. और समस्याओं का हल देने के बजाय और भी जटिल समस्याएँ पैदा कर बैठते हैं.
ऐसे में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की मान्यता है कि जगत और जीवन में सबकुछ परिवर्तनशील है. केवल परिवर्तन ही शाश्वत है और हर व्यक्ति के विचारों और आचरण दोनों में ही परिवर्तन सतत जारी रहता ही है. कभी-कभी यह इतना धीमे होता है कि महसूस नहीं हो पाता और कभी-कभी तूफानी रफ़्तार से होता है और देखते ही देखते समग्रता में प्रभावी हो जाता है. ये दोनों ही परिवर्तन की सतत जारी प्रक्रिया के दो चरण हैं. एक का नाम है परिमाणात्मक परिवर्तन और दूसरे का गुणात्मक परिवर्तन. जैसे धीरे-धीरे गरम होता हुआ पानी शून्य डिग्री पर ठोस और फिर द्रव और सौ डिग्री पर गैस होता है. मगर मूलतः वह रहता वही है - चाहे बर्फ हो या पानी हो या फिर भाप हो. पानी की इन तीनों अवस्थाओं को हम केवल क्रान्तिक बिन्दु पर गुणात्मक परिवर्तन हो जाने के बाद ही चिह्नित कर सकते हैं.
ऐसे ही प्रकृति की ही तरह समाज और व्यक्ति में भी प्रकृति की तरह ही परिवर्तन होता रहता है. मेरा अनुरोध है कि लगातार और विविधता के साथ पढ़िए, लगातार नयी-नयी चीज़ें सीखिए, मगर जो आपको तर्क-सम्मत और तथ्य-परक लगे और मानवता के लिये हितकर प्रतीत हो, केवल उन्हीं विचारों को मानिए और फिर चाहे जो भी कीमत अदा करनी पड़े उनको ही लागू कीजिए.
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