मैं अकेला लड़ रहा हूँ इस ज़माने से, ज़नाब!
आप बस देखें तमाशा ज़िन्दगी का - मौत का ।
यह अकेलापन मुझे भी तोड़ता है, जंग भी,
आप देते साथ फिर तो मज़ा ही कुछ और था ।
मेरा चलना, मेरा थमना, मेरा मुड़ना देख कर,
वाह कर लें - आह भर लें, फ़र्क क्या मुझ पर पड़ा ?
है अगर दम, साथ चल कर चख़ें चलने का नशा,
यह नशा पागल बना कर छोड़ देगा आपको ।
मेरी जु़र्रत देख कर भी आप ग़ुर्राते नहीं,
या तो हैं मासूम बेहद या बहुत चालाक हैं ।
आप कहते हैं मुझे पागल, दीवाना, जंगली,
मेरी फ़ितरत है कि मेरा हमसफ़र ख़ुदगर्ज़ है ।
आप मेरा मर्ज़ पहिचानें, सुझायें तब दवा,
मेरी नज़रों में ज़माना ला-इलाज-ए-मर्ज़ है ।
(ज़माने के मर्ज़ का इलाज खोजता ही रहा है इन्सान पुश्त-दर-पुश्त और इसी तलाश ने ज़माने और इन्सान दोनों को यहाँ तक पहुँचाया है।)
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