Sunday, 29 July 2012

कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचन्द की प्रेरक स्मृति को नमन!





कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचन्द की प्रेरक स्मृति को नमन!

प्रेमचन्द का उदय ऐसे काल में हुआ था, जब विश्व में साम्राज्यवादी व्यवस्था चरमरा रही थी और हमारे पराधीन राष्ट्र के योद्धा भी प्रथम स्वाधीनता समर की पराजय के पश्चात पुनर्जागरण काल में रूढ़िवादी, सामन्तवादी परम्पराओं पर करारे प्रहार करने लगे थे। उपनिवेशवाद से मुक्ति की उग्र छटपटाहट से आभामण्डित कथा-सम्राट की विचार-यात्रा का प्रस्थान बिन्दु गाँधीवाद है। आदर्शवाद तथा यथार्थवाद की मोहक भूलभुलैया से होती हुई इस यात्रा का समापन जीवन के अन्तिम वर्षों में मार्क्सवाद पर पहुँच कर होता है।

प्रेमचन्द का युग समूची धरती पर परिवर्तन का युग था। दुनिया को लूटने में मशगूल साम्राज्यवादी लुटेरे दुनिया के बाज़ार को अपने-अपने उपनिवेशों में बाँटने-बदलने की साजिशों के चरम के तौर पर बार-बार विश्व-युद्धों के दावानल धधका रहे थे। दूसरी ओर पेरिस कम्यून के वीर शहीदों के महान वारिसों ने रूस की विराट जारशाही को ध्वस्त कर डाला था और शोषित-पीड़ितों के सपनों की समाजवादी समाज-व्यवस्था की रचना सोवियत-संघ में करते जा रहे थे। पड़ोस में नव जनवादी क्रान्ति का मन्त्र रचने वाले महान माओ लाल इलाकों की स्थापना करने में जुटे थे। एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के ग़ुलाम बेचैन थे। फ़िजाँ में साम्यवाद की सफलता के गीत गूँज रहे थे। राष्ट्र दासता की शृंखलाओं पर घन बरसा रहा था और गोरे-काले लुटेरे ज़ालिम ज़ुल्म और लूट की अन्धेरगर्दी बरपा किये हुए थे।

31 जुलाई, 1880 को लमही (वाराणसी) में जन्मे मुंशी प्रेमचन्द ने 36 वर्षों तक सतत उर्दू तथा हिन्दी साहित्य को माध्यम बना कर शोषितों, दलितों, उपेक्षितों, अनाथों की व्यथा तथा विद्रोह को स्वर दिया। नवाब राय के नाम से ‘सोज़-ए-वतन’ नामक क्रान्तिकारी रचना लिखने और उसके ज़ब्त होने के साथ ही धनपत राय वल्द अजायब राय को सरकारी नौकरी को लात मारने और प्रेमचन्द बन मैदान-ए-जंग में कूद पड़ने के अवसर ने कलम का सिपाही बना दिया।

उपन्यास-सम्राट ने बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के उपनिवेशवाद विरोधी स्वाधीनता-समर को अपनी रचनाओं में मुखरित किया, असंख्य धार्मिक, सामाजिक, मानसिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, पारिवारिक, राजनैतिक, वैचारिक विकृतियों का पर्दाफ़ाश किया तथा बार-बार शासक वर्गों को बाँटने और राज करने की कुटिल साज़िशों को धूल-धूसरित किया। लोकजीवन के महान चितेरे ने स्पष्ट रूप से अपनी वर्गीय पक्षधरता चुनी। उन्हें पाखण्ड तथा लूट पर टिके ऐश्वर्यशाली वर्ग से तीखी घृणा थी और दीन-दुखियों, भूमिहीन किसानों, विधवाओं, कन्याओं तथा बच्चों से हार्दिक सहानुभूति। देशभक्ति, निस्पृहता, आदर्श, बलिदान, सेवा, समर्पण, संकल्प, संवेदना तथा विद्रोह ने प्रेमचन्द के शस्त्रागार को समृद्ध किया और किसानों के शोषण, चमारों की दुर्दशा, सवर्णों की क्रूरता, धर्म के ठेकेदारों की कृतघ्नता, राजनेताओं की कुटिलता, सूदखोरों की लालच, निकम्मों की काहिली, मक्कारों की बेहयाई और जीने में भी मुश्किलें पैदा करने को कटिबद्ध विषम आर्थिक परिस्थिति - सबको प्रेमचन्द के ज़मीर ने सदैव ललकारा और अपनी सतत साधना के प्रतिवाद का पात्र बनाया। ‘रंगभूमि’ के सूरदास के रूप में गाँधीवादी प्रेमचन्द, ‘प्रेमाश्रम’ में प्रेमशंकर के आदर्शवादी रंग में रंगता है और अन्ततः ‘गोदान’ तक आते-आते फिरंगी शोषकों के साथ ही गाँव की गलियों में रेंगती छोटी-बड़ी सभी तरह की जोंकों को चिह्नित कर ले जाता है। जीवन की संध्या में ‘महाजनी सभ्यता’ तथा ‘मंगलसूत्र’ लिखकर और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के संस्थापक अध्यक्ष बनकर वह पूँजीवाद की अमानवीयता के प्रति घृणा और सशस्त्र क्रान्तिकारी विद्रोह के औचित्य को पूरी स्पष्टता के साथ बेझिझक हो उकेरते हैं। इस तरह प्रेमचन्द का विराट व्यक्तित्व अपने चरम पर मार्क्स के साम्यवाद के साथ साफ-साफ जा खड़ा होता है और हम सबसे भी अपना पक्ष - क्रान्तिकारी जन-पक्ष चुनने का नित-निरन्तर आग्रह करता है, क्योंकि आज भी उनके विचार प्रासंगिक और प्रेरक हैं। ज़मींदार न रहे तो क्या? खेतिहर मज़दूर तो हैं। कल के किसान के पुत्र और सामन्त से भी अधिक बढ़ कर शोषण करने वाले नवधनवान कुलक किसान भी हैं। औपनिवेशिक दासता न रही तो क्या? वित्तीय नव-उपनिवेशवाद का डंकल छाप नाग-पाश तो है, राष्ट्रीय स्वाधीनता को बेच खाने वाले पतित पूँजीवादी राजनेता तो हैं। देशी और विदेशी पूँजी का गठबन्धन अपने नापाक मन्सूबों में कामयाब तो है। ग़रीब की ज़िन्दगी नरक तो है। ऐसे में, आइए, देखें प्रेमचन्द की कलम की मशाल से निकली चिनगारियों को और सोचें कि हमें क्या करना होगा! हमारा फर्ज क्या है!

(उद्धरण मित्र अमरनाथ मधुर के सौजन्य से)

'समाज का चक्र साम्य से शुरू होकर फिर साम्य पर ही ख़त्म हो जाता है एकाधिपत्य, रईसों का प्रभुत्व उसकी मध्यवर्ती दशाएं हैं. -[पशु से मनुष्य]

"संसार आदिकाल से लक्ष्मी की पूजा करता चला आता है. लेकिन संसार का जितना अकल्याण लक्ष्मी ने किया है, उतना शैतान ने भी नहीं किया. यह देवी नहीं डायन है. संपत्ति ने मनुष्य को क्रीतदास बना लिया है. उसकी सारी मानसिक, आत्मिक और दैहिक शक्ति केवल संपत्ति के संचय में बीत जाती है. मरते दम तक भी हमें यही हसरत रहती कि हाय, इस संपत्ति का क्या होगा. हम संपत्ति के लिए जीते हैं, उसी के लिए मरते हैं. हम विद्वान बनते हैं संपत्ति के लिए, गेरुए वस्त्र धारण करते हैं संपत्ति के लिए. घी में आलू मिलाकर हम क्यों बेचते हैं? दूध में पानी क्यों मिलाते हैं? भांति-भांति के वैज्ञानिक हिंसा-यंत्र क्यों बनाते हैं? वेश्याएं क्यों बनती हैं? और डाके क्यों पड़ते हैं? इसका एक मात्र कारण संपत्ति है. जब तक सम्पत्तिहीन समाज का संगठन नहीं होगा, जब तक संपत्ति-व्यक्तिवाद का अंत नहीं होगा, संसार को शांति नहीं मिलेगी." -"राष्ट्रीयता और अंतर्राष्ट्रीयता" लेख से

"...जब तक साहित्य का काम केवल मनबहलाव का साधन जुटाना, केवल लोरियां गाकर सुलाना, केवल आंसू बहकर जी हल्का करना था, तब तक इसके लिए कर्म की आवश्यकता नहीं थी. वह एक दीवाना था, जिसका ग़म दूसरे खाते थे, मगर हम साहित्य को केवल विलासिता की वस्तु नहीं समझते. हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो - जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं; क्योंकि अब और ज़्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है..." - प्रेम चंद (मोहन श्रोत्रिय के सौजन्य से)

जनता को आज संस्कृतियों की रक्षा करने का न अवकाश है न जरूरत | संस्कृति अमीरों का, पेट भरों का, बेफिक्रों का व्यसन है| दरिद्रों के लिए प्राण रक्षा ही सबसे बड़ी समस्या है . - [साम्प्रदायिकता और संस्कृति ]

अगर साम्प्रादायिकता अच्छी हो सकती है तो पराधीनता भी अच्छी हो सकती है .मक्कारी भी अच्छी हो सकती है. हम तो साम्प्रदायिकता को समाज का कोढ़ समझते हैं.- [ अच्छी और बुरी साम्प्रदायिकता ]

साम्यवाद का वही विरोध करता है जो दूसरों से ज्यादा सुख भोगना चाहता है.-[ हवा का रुखा ]

भाग्यवाद सरकार का सबसे बड़ा टैक्स कलक्टर है . - [बजट १९१४]

हार में हमें अपनी कमजोरियां सूझती हैं और जीत में खूबियाँ. -[ठेलमठेल] 

भेष और भीख में सनातन की मित्रता है . -[गबन ]

वियोगियों के मिलन की रात बटोहियों के पडाव की रात है जो बातों में कट जाती है .- [गबन ]

प्रेम सीधी सादी गौ नहीं शेर है जो अपने शिकार पर किसी की आँख भी नहीं पड़ने देता है . -[गोदान ]

जिस पेट के लिए रोटी मयस्सर नहीं उसके लिए मरजाद और इज्जत ढोंग है . -[ गोदान ]

मोटे वह होते हैं जिन्हें न ऋण का सोचा होता है न इज्जत का. इस जमाने में मोटे होना बेहयाई है. सौ को दुबला करके एक मोटा होता है. ऐसे मोटेपन में क्या सुख? सुख तो तब है जब सब मोटे हों. -[गोदान ]

बूढों के लिए अतीत के सुखों, वर्तमान के दुखों और भविष्य के सर्वनाश से ज्यादा मनोरंजक और कोई प्रसंग नहीं होता . -[गोदान ]

दरिद्रता और धरोहर में वही सम्बन्ध है जो कुत्ते और मांस में . -[ दो भाई ]

देहात का रास्ता सांझ होते ही बच्चों की आँख की तरह बंद हो जाता है . -[पंच परमेशवर ]

जब दूसरों के पांव के तले गर्दन दबी हो तो उन पांवों को सहलाने में ही सुख है .-[गोदान ]

यदि साहित्यकार ने अमीरों का याचक बनने को जीवन का सहारा मान लिया है और उन आन्दोलनों ,हलचलों , क्रांतियों से बेखबर हो, जो समाज में हो रही हों, तो इस दुनिया में उसके लिए कोई जगह न होने में अन्याय नहीं है.- प्रेमचन्द

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