मेरे प्यारे दोस्त, ख़ुदा कसम, बेशक ख़ुद ख़ुदा ने ही अपने पाक़ हाथों से इस फानी दुनिया को बनाते समय इन्सानियत की ख़िदमत के लिये जो सबसे शानदार तोहफ़ा बनाया था, उसका नाम तम्बाकू ही है.
बकौल रसूल हमज़ातोव के खुदा ने भी दुनिया बनाने के बाद तम्बाकूनोशी कर के ही सुकून महसूस किया था और यही वजह है कि ख़ुदा के नेक बन्दों को भी जल्दी से जल्दी ख़ुदा का 'प्यारा' होने के लिये इसी शगल का सहारा लेना ही पड़ता है.
समूची दुनिया-जहान में यह इकलौती ऐसी नायाब शै है, जो देखते-देखते हमारे शौक से हमारी आदत तक जा पहुँचती है. इसका सोंधा-सोंधा धुँवा हमको इस कदर बेतहाशा पसन्द आता है कि नाक और मुँह के रास्ते फेफड़ों और आमाशय तक ही नहीं जाता, हौले-हौले दिल-ओ-दिमाग तक चलता चला जाता है. तब फिर तरन्नुम का आलम यह होता है कि बेहद मज़ेदार सुरूर बरपा हो जाता है हमारे ऊपर.
और फिर बार-बार और अन्दर और और भी अन्दर तक जा पहुँचने वाला और ख़रामा-ख़रामा सुकून देने और चुपके-चुपके, चोरी-चोरी पहले फ़कत सेहत और फिर आख़िरकार ज़िन्दगी भी चुरा लेने लेने वाला यह मर्ज़ राज कपूर की 'तीसरी कसम' की तरह ही लज्ज़तदार और मज़ेदार है.
कमबख्त किसी तरह छूटता ही नहीं. सिगरेट छोड़ने के वायदे हैं कि बार-बार इस मासूम दिल की तरह टूटते रहते हैं. अब ऐसे में आप ही बताइए कि भला किया भी क्या जाये और कैसे किया जाये ! ले-दे कर यह मामला दिल का है और दिल है कि जानता तो है मगर मानता ही नहीं....
एक सिगरेट ही तो है, जो पढ़ते समय-लिखते समय, सोचते समय-बोलते समय, अकेले में-भीड़ में, गम में-ख़ुशी में, दिन की शुरुआत करते समय-दिन का अंत करते समय, काम शुरू करने के पहले-काम ख़त्म करने के बाद, दोस्तों के मिलने पर-दोस्तों के बिछड़ने-पिछड़ने पर, बहसों में शानदार तर्क जुटाने में-धारदार तर्कों का पूरी आन-बान-शान के साथ मुकाबला करने में, बिस्तर से सफ़र तक हर जगह हमेशा ही साथ देती रही है.
यूँ ही तो नहीं कहा गया है कि 'हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाते चले गये...'. और फिर इस नामाकूल ज़िन्दगी का क्या भरोसा! 'यह जान तो आनी-जानी है...' ख़ुदा की कसम दोस्त, यकीन मानिए कि चाहे यह ज़िन्दगी रहे, चाहे जाये. मगर 'ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे, छोड़ेंगे जग मगर तेरा साथ न छोड़ेंगे' वाला सिगरेट से तह-ए-दिल से किया जाने वाला हमारा परम पवित्र वायदा किसी भी कीमत पर कभी भी नहीं ही टूटने वाला है.
इस बेदर्द ज़ालिम दुनिया में जलती सिगरेट के आख़िरी कश से अधिक लज़ीज़ और सुकूनदेह और कुछ भी है क्या भला? ज़िन्दगी की आख़िरी साँस तक साथ निभाने वाले ऐसे वफ़ादार साथी को भला छोड़ा भी कैसे जा सकता है!
और फिर 'तम्बाकूनोशी' जैसे अहम और फैसलाकून मामले में फ़कत खुदा पर ख़ालिस यकीन के अलावा मेरे जैसे घोषित नास्तिक के पास क्या विकल्प है! जब मैं ही नहीं मेरे बहुत-से प्यारे दोस्त इस बेतहाशा बदनाम शगल की गिरफ़्त में हैं, तो ऐसे में महज़ "ख़ुदा-ख़ुदा" करने के अलावा मैं भला और क्या कर सकता हूँ!
इस वजह से ही मेरे पास उन सब की ओर से ख़ुदा के नाम पर पैरवी करने के अलावा और कोई ज़रिया बचा ही नहीं है. और मेरा तो ख़याल यही है कि इस नामाकूल पैरवी में दूसरे किसी की औकात ही क्या है! ख़ुद ख़ुदा भी इस मामले में न तो मेरी कोई मदद कर सकता है और न ही मेरे दोस्तों की किसी भी तरह से मदद करना उसे पसन्द आयेगा...
मगर कत्तई ज़रूरी नहीं है कि आप भी इस बात से सहमत हों. आपकी मर्ज़ी जो चाहें, पूरी आज़ादी से करें.
Har Fikr Ko Dhue Mein... Dev Anand, an inspirationwww.youtube.com
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