मेरे प्यारे दोस्त,
आज मुझे Ashwini Aadam की यह पोस्ट पढ़ने को मिली, तो सोचा आपसे कुछ कहा-सुनी इसी बहाने हो जाये._______
Ashwini Aadam - "यारों!
मैं इस "आदम" से बेहतर सरनेम चाहता हूँ अपने लिए....
आदमियत का कोई गुण न हो तो ऐसा सरनेम रखने में शर्म भी आती है....
मेरे और भी कई मित्र हैं जिन्होंने अपने व्यक्तित्व के विरुद्ध नाम पाया है जैसे-
प्रशांत विप्लवी- बड़े ही शरीफ और भोले हैं लेकिन विप्लवी के साथ ही उपस्थित होते हैं....
Babu Shandilya - इनको जब भी पढता हूँ तो मुझे अपनी मूढमति पर शर्म आने लगती है कई जीवन एक साथ जी लेने के अनुभव को व्यक्त करने वाली शख्शियत का नाम "बाबू" कही से भी उचित नहीं लगता मुझे.....
सीमा संगसार- इतना कोमल और स्नेहमयी व्यक्तित्व का नाम ज़ख्मों से शुरू होता है....
Samar Anarya - ई तो बहुते विशेष हैं समर तक तो ठीक है लेकिन अनार्य होना भी तो आर्य होने जैसा ही अपनी वास्तविक पहचान का संकुचन ही है.......
Sanjay Kumar Avinash - अविनाश ,तो शब्द ही निरर्थक है, जो विनाश से परे हो उसके अस्तित्व की ही क्या विशेषता.....
और भी बहुत से मित्र हैं जो अंगार, बरफ, विद्रोही, तटस्थ, तरह तरह के वादी और भी न जाने क्या क्या हैं लेकिन उनपर कुछ कहा तो इनबॉक्स में पैर पकड़ कर माफ़ी माँगने की सहूलियत नहीं मिलेगी ,इसीलिए संकेतों में काम चला ले रहा हूँ......
आप सभी मित्र हैं एक मित्र के रूप में जाति वर्ग से परे मेरे व्यक्तित्व के अनुसार एगो नाम सुझाएँ हमको.........
वैसे हमारा फेवर "मंदबुद्धि" को जाता है।"
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तो यह तो रही आदम की पीड़ा और अब शुरू होने जा रही है आपके साथ कहा-सुनी....
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एक बार एक गाँव में एक श्री ठंठपाल जी रहते थे. अपने नाम के बदनाम हो जाने की इसी समस्या से बेतहाशा परेशान हो गये थे श्री ठंठपाल जी, उनको अपना नाम बदल देने की सलाह बिना माँगे इतने लोगों ने दे दी थी कि तंग आकर अपने लिये एक अदद नये नाम की तलाश में उन्होंने एक दिन सतुआ, लोटा और डोरी लेकर अपनी लाठी उठाया और सवेरे-सवेरे अपने घर से निकल पड़े. जैसे ही आगे बढ़े, महात्मा बुद्ध की तरह उनको भी एक शवयात्रा दिखाई दी. खैर उनको शव से तो कुछ भी लेना-देना नहीं था. उनका मकसद तो केवल नाम जानना भर था. सो लोगों से पूछते भये - "भैया, यह कौन सज्जन हैं जिनकी मौत हो गयी है ?"
शवयात्रा जुलूस की तरह लम्बी थी. चलते-चलाते एक ने 'राम-नाम-सत्त' करते-करते उनको उत्तर दे ही दिया - "अरे इनको नहीं जानते ? ये स्वनामधन्य श्री अमरनाथ जी हैं.”
श्री ठंठपाल शव का नाम सुनकर अवाक रह गये और कुछ भी न बोल कर और आगे बढ़े, तो उनको एक बुढ़िया भीख माँगते दिखाई दी. उसके उनसे कुछ माँगने के पहले ही उन्होंने झट से पहल ले ली और उसका नाम पूछने का अपना काम पूरा कर लिया. उसने धीरे-से कहा - "बेटवा, मेरा नाम है लछिमिनिया."
अब तक श्री ठंठपाल जी का जोश ठण्डा पड़ने लगा था. फिर भी बची-खुची उम्मीद के सहारे और आगे चले. आगे देखते क्या हैं कि चकरोट के बगल में एक खेत है और उस खेत में एक हरवाह हर जोत रहा है. श्री ठंठपाल जल्दी-जल्दी कदम फेंकते उसके खेत की मेंड़ पर खड़े हो गये और उससे भी तड़ाक से पूछ ही तो लिया - "दादा, आपका नाम क्या है ?" हरवाह ने सिर उठा कर उनसे कहा - "भाई मेरा नाम है धनपाल !"
इतने लोगों के नाम जान कर अब तो श्री ठंठपाल के ज्ञान-चक्षु खुल गये और उनको बुद्ध की तरह ही सत्य का बोध हो गया. आगे और जाने की ज़रूरत ही नहीं रही. वापस घर की ओर चल पड़े. और घर लौटते समय उन्होंने जो गीत गाया, वह मुझे मेरे हिन्दी के गुरुजी दिवंगत श्री मुखराम सिंह जी ने तब सुनाया था, जब वह मुझे इन्टर में हिन्दी पढ़ाया करते थे. उनके जैसा हिन्दी पढ़ाने वाला कोई शिक्षक मुझे उनके बाद मिल नहीं सका. अब आज इस मौके पर वह गीत दोस्तों-साथियों की ख़िदमत में पेश है ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आये.
"अमरनाथ के मूवल देखलीं,
खेत जोतत धनपाल;
भीख माँगत लछिमिनिया के देखलीं,
सबसे नीक ठंठपाल रे भइया,
सबसे नीक ठंठपाल... "
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तो यह तो रही कहानी श्री ठंठपाल की.
अब तक जैसे आप धीरज के साथ बाँचते गये वैसे ही आगे नाम बदलने के काम पर ही लिखी गयी यह कविता भी हिम्मत जुटा कर बाँच ही लीजिए, ताकि आपके पूरे दिमाग की सारी बत्ती एक साथ भक से जल जाये. पक्का-पक्का गारन्टी वाली कविता है. इसी तरह से अपना नाम बदलने के सवाल पर कभी-कभार मिल जाने वाले ऐसे ही अतिशय दुर्लभ मौके पर सुनाने-पढ़ाने के लिये ही यह लिखी गयी थी.
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"जाति बुरी है, सभी कह रहे, नाम बदल दो सभी कह रहे;
मेरा भी अब नाम बदल दो, मेरा भी अब काम बदल दो !
बहुत ही बुरा ‘जातिवाद’ है सभी कह रहे,
मगर जाति में ‘रोटी-बेटी’ सभी कर रहे !
सभी जाति के ही नेता को वोट दे रहे,
सभी वोट के बदले में हैं नोट ले रहे !
जाति पूछने पर शरमाते, लाभ रिज़र्वेशन का पाते;
जातिवाद का दंश झेलते इस समाज में सभी सह रहे |
इसने नाम बदल कर देखा, उसने जाति उठा कर फेंका;
इसने-उसने अपना-अपना रंग बदल कर जो भी देखा,
इसने-उसने अपना-अपना ढंग बदल कर जो भी देखा;
मैंने, तुमने, सब ने इसको-उसको ऐसा करते देखा |
कपड़े रोज़ बदलते हैं हम, कभी शकल भी बदल सके हो !
शकल अगर बदली भी है, तो कहाँ अकल को बदल सके हो ?
अगर कहीं जो यही अकल है, बनी रह गयी - तो क्या होगा ?
जातिवाद के चलते झगड़ा फिर-फिर होगा,
नाम मगर उस झगड़े का भी रगड़ा होगा;
काम सुनो इस अकल-शकल का और भी कहीं तगड़ा होगा |
मुझे सभी के सभी हर तरफ़ तुम भी देखो धकियाते हैं,
काम नहीं पूछा करते हैं, जाति पूछ कर रह जाते हैं;
जाति जान कर गाली देते, जाति पूछ कर पानी देते,
जातिवाद की बातें करते, जातिवाद का ही विष भरते |
अभी बचा मैं भी हूँ ज़िन्दा, अभी बचे हो तुम भी ज़िन्दा !
ज़िन्दा लोगों को तो छोड़ो, ये मुर्दे भी बाँटा करते !
कोई तिलक-तराजू तोले, कोई अपना पटेल बोले;
कोई गाँधी को आँधी-सा अपनी जाति बताता डोले,
कोई शास्त्री जी को तारे, कोई फिर सुभाष को मारे;
भगत सिंह-आज़ाद सरीखे जातिवाद में जाते घोले !
अभी धरा पर साफ़ दिख रहा, दो ही नस्लों की बस्ती है,
एक और कंगाल बिलखते, चारों ओर बहुत पस्ती है;
इक्का-दुक्का ही अमीर हैं, मुट्ठी भर में ही मस्ती है,
दुनिया भर में राज कर रही अभी विषमता की हस्ती है |
इनका जन्म कहीं भी होता, इनका धर्म एक ही रहता,
इनका रंग अलग चाहे है, इनका ढंग एक ही रहता;
इनके जीने का ढर्रा भी एक सरीखा ही है रहता,
अभी धरा पर कहाँ बस सकी सबकी समता की बस्ती है ?
तुम अमीर हो, जाति तुम्हारी धनपशुओं वाली ही तो है !
हम ग़रीब हैं, जीवन अपना तो पशुओं से भी बदतर है !
कब तक तुम अपनी छीनी-झपटी खुशियों में मस्त रहोगे ?
कब तक हम अपनी पीड़ा से जीवन भर ही त्रस्त रहेंगे ?
इनको अलग-अलग पहिचानो, अपनी असली जाति जना लो,
जाति एक है अगर हमारी, तो फिर तो एकता बना लो;
क्या हम केवल जातिवाद के टुकड़ों में ही बंटे रहेंगे ?
असली जाति हमारी मानव, कब हम सब उसको समझेंगे ?
अगर हमारी जाति कमेरों की जग जाये,
अगर हमारी सारी ताकत मिल कर आये;
अगर स्वर्ग पर धावा करने निकल पड़े माटी का बेटा,
‘महाबली’ कहलाने वालो, तब फिर सोचो कहाँ बचोगे ?"
______बकलम ख़ुद
______बकलम ख़ुद
ढेर सारे प्यार के साथ आपका - गिरिजेश______ (9.6.14. 9p.m.)
ReplyDeleteनामी का नाम
समाज में बहुमत मान्यता है कि यथा नाम तथा गुणः।इसके चलते नवजात के सुंदरतम एवं मनभावन नाम रखने की होड़ रहती है ।अप्रतिम नामकरण के लिए लोग पुरोहितों से लेकर इन्टरनेट एवं साहित्यकारों तक की मदद ले रहे हैं ।ऐसे ऐसे अभिनव शब्दप्रयोग सामने आ जाते हैं कि भाषा -विज्ञानी भी वाह-वाह कर उठते हैं । फिर भी यह तो बिडम्बना ही है कि नाम जैसा गुण विरले ही लोगों में देखने को मिलता है ।समाज बहुत सभ्य हो गया है ।कोई भी माँ -बाप अपने बेटे या बेटी का नाम रावण,कंस ,दुर्योधन ,सुर्पनखा,पूतना या विषकन्या नहीं रखता फिर भी इनके गुणों के प्रतिनिधित्व करने वाले लोग हर काल मे कहाँ से पनप जाते हैं ।मानना होगा कि शत प्रतिशत धनात्मक नाम रख कर भी ऋणात्मक प्रवित्तियों का फलना फूलना नहीं रोका जा सकता है ।यही कारण है कि गुण विशेष से स्थापित लोगों को समाज संस्कारी नाम से इतर ' यथा गुण तथा नामः ' से पुकारने एवं पहचानने लगता है।यह गुण कर्म विभाग से अलंकृत नामकरण ही स्वाभाविक लगता है ।नामी का नाम होता है वरना नाम मे रखा ही क्या है ।इतिहास मे आम्रपाली ,चित्रलेखा , उमराव जान का नाम ले लें अथवा आज क़ी मुन्नी,शीला या जलेबीबाई का उदाहरण लें ;सबमें नामी का नाम है । मेरे अग्रज श्री ,नाम मे कुछ नहीं रखा है ,पर कभी एक लघु कथा सुनाए थे कि एक दम्पति ने अपने बेटे का नाम बड़े लाड़-प्यार से ठंठपाल रखा ताकि बेटा बुरी नजरों से बचा रहे ।बड़ा होने पर बेटे को यह नाम बड़ा खलने लगा-- कहाँ मित्रों के नाम कुबेर ,नरेश ,धनेश कहाँ वह ठंठपाल।एक दिन वह नाम एवं गुण का ताल -मेल जानने गाँव से दूर निकल पड़ा ।रास्ते में एक घास करने वाली ने पूछने पर उसे अपना नाम धनवंती बताया ,एक खेत जोत रहे फटेहाल हलवाहे ने अपना नाम धनपाल बताया ।आगे बढ़ा तो उसे एक शवयात्रा मिली ।पूछने पर उसे बताया गया कि मृतक का नाम अमरदेव था ।वह चौंक गया कि क्या अमरदेव भी मर सकता है ।ठंठपाल भावुक हो उठा ,लौट कर माँ -बाप का चरण स्पर्श किया एवं उन्हें आप बीती सुनाया -- "घास करत धनवंती देखा ,हल जोतत धनपाल । टिकठी पर अमरदेव को देखा ,सबसे भला ठंठपाल।" अंततः -- यदि सीता शोकाकुल हों ,तो अशोक जैसे वृक्ष का सानिध्य हो ताकि सीता विनती तो कर सकें कि "सुनहु विनय मम विटप अशोका ,सत्य नाम कर हरु मम शोका।"(धरती से उत्पन्न होने के कारण सीता और अशोक भाई -बहन जैसे हैं ।) सीता की अशोक से यथा नाम तथा गुणः की अभिलाषा है ।
http://m.jagranjunction.com/2012/04/01/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AE/