Friday, 28 June 2013

शिक्षक - गिरिजेश

प्रिय मित्र, एक ईमानदार शिक्षक सीढ़ी और पुल की तरह होता है. उसके पास उस पार जाने वाले ही अधिक संख्या में आते हैं. वैचारिक स्तर पर एक और मज़बूत स्तम्भ बन कर आजीवन उसका साथ देने वाले मुट्ठी भर ही निकल पाते हैं. दुर्दिन में साथ देना कम ही लोगों का दायित्व बन पाता है. 

अगर उस पार जाकर ज़िन्दगी की आपाधापी में गुम हो जाने वाला कोई इक्का-दुक्का छात्र जीवन के किसी अगले मोड़ पर सम्मानपूर्वक अपने पूर्व शिक्षक से मिलता है, तो शिक्षक को उसकी सफलता अपनी ही महसूस होती है और वह अपने श्रम और दक्षता पर गौरवान्वित होता है. 

और अगर वह अपनी किसी समस्या के समाधान में मार्गदर्शन की अपेक्षा करता है, तो शिक्षक ख़ुद को अपनी उस परिस्थिति में भी समाज के लिये उपयोगी महसूस करके सार्थकताबोध से जिजीविषा की नयी ऊर्जा से एक बार फिर से भर उठता है. 
ऐसे कई अवसर मुझे भी बार-बार मयस्सर होते रहते हैं. 

आज बाज़ार के अधीन शिक्षा अलग-अलग दामों पर बिक रही है. सरकारी विद्यालय संस्था के तौर पर ध्वस्त होते जा रहे हैं. अर्धबेरोज़गार युवक ट्यूशन की भाग-दौड़ के सहारे चरम ग़रीबी में जीते हुए हर अगली प्रतियोगिता का फॉर्म भरने और उसकी तैयारी करने में जुटे हैं. कोचिंग के छोटे-बड़े दूकानदार तरह-तरह का माल बेच कर मुनाफ़ा बटोरने में जुटे हैं. प्राइवेट विद्यालयों की नज़र केवल ग्राहक की जेब पर होती है. वहाँ शिक्षक ह्वाइट कालर मज़दूर बनने को अभिशप्त है. बाज़ार की मार के सामने ऐसा ग़रीब शिक्षक पूरी तरह से बेचारा हो चुका है. 

किसी तरह अपने और अपने बाल-बच्चों के लिये जीवन-यापन भर को जुटा पाने के दबाव में अपनी भरी जवानी से लाचार बुढ़ापे तक जीवन भर प्रतिदिन जल्दी सुबह से देर शाम तक एक घर से दूसरे घर तक घूम-घूम कर दूसरों के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने वाला प्राइवेट विद्यालय का कम वेतन पाने वाला शिक्षक जब अपने ख़ुद के बच्चों को पढ़ाने के लिये समय नहीं निकाल पाता, तो और भी पस्त हो जाता है. 

परन्तु रिटायर होने के बाद भी अपना श्रम बेचने को बाध्य ऐसा गरीब शिक्षक अगर पूरी ईमानदारी से अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए जीवन भर जिया है, तो उसकी आत्मसंतुष्टि और आत्मगौरव अतुलनीय होती है. शिक्षा ही 'बाइलाजिकल ऐनिमल' को संस्कार देकर मानवीय गरिमा से लैस करती है. परन्तु आज की अत्यन्त दारुण विडम्बना है कि समाज के मानवीय घटक को तैयार करने की इस विधा का शिल्पी ही सबसे बुरी ज़िन्दगी जीने और सबसे अपमानित मौत मरने को इस लुटेरी व्यवस्था में बाध्य है. 

क्रान्ति के बाद ही हमें जनपक्षधर और वैज्ञानिक दृष्टि से लैस करने वाली शिक्षा और शिक्षक का सम्मान एक बार फिर से करने का अवसर मिल सकेगा. उस सुन्दर सुखद सुबह को जल्दी और जल्दी देखने के लिये और उस दिन को नज़दीक और नज़दीक लाने के लिये परस्पर वैमनस्य और दम्भ से ऊपर उठ कर आपस में मिल-जुल कर युवा जागरण के लिये अनवरत अथक श्रम करना ही हम सब के सामने आज का ऐतिहासिक कार्य-भार है. मुझे इस अभियान में आप सब से हर तरह के सहयोग की अपेक्षा है.
इन्कलाब ज़िन्दाबाद ! बाज़ारवाद मुर्दाबाद !!
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश

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