Monday, 3 June 2013

शब्द-चित्र : मैं छोटू हूँ - गिरिजेश



मैं छोटू हूँ. 
मेरा चाहे जो भी नाम हो, मगर मुझे सभी छोटू ही कहते हैं.
सर्दी, गर्मी, बरसात - मेरी ड्यूटी डेली चलती है. 
कभी कोई छुट्टी नहीं. 
तब तक कोई छुट्टी नहीं, जब तक बेतहाशा बीमार ना पड़ जाऊँ.
मुझे आप हर शहर, हर कसबे, हर चट्टी-चौराहे की चाय की दूकान पर सुबह से शाम तक लगातार खटते देख सकते हैं. 
मेरा काम हर सुबह दूकान की भट्टी सुलगाने से शुरू होता है और सारे बर्तनों को मांजने और झाड़ू लगाने के बाद रात में खत्म होता है. 
मैं लगभग दस साल की उम्र में नौकरी करने के लिये अपना घर-बार, माँ-बाप, भाई-बहन - सबको छोड़ कर दुकान पर आ जाता हूँ. 
दिन के खाने की जगह मुझे दूकान में बेचने के लिये बनने वाले समोसे और ब्रेड-पकौड़े से काम चलाना पड़ता है. 
सबकी तरह खाना तो मुझे रात में ही मिल पाता है.
मैं बड़ा होने तक लगभग दस साल तक 'सेठ' के यहाँ नौकरी करता हूँ और जब खटते-खटते आख़िरकार किसी तरह बड़ा हो जाता हूँ, तो सड़क के किनारे किसी दूसरे नुक्कड़ पर अपनी खुद की गुमटी जुटाता हूँ. उसके सामने एक छोटा-सा छप्पर डालता हूँ. एक बेंच बनवाता हूँ. और इस तरह मैं भी अपनी खुद की चाय की दूकान खोल लेता हूँ और फिर मेरी भी दूकान पर एक नया छोटू खटने के लिये आ ही जाता है. 
तब जा कर मैं भी अपनी शादी करता हूँ और बच्चे पैदा करता हूँ. 
मैं खुद तो पढ़ नहीं सका था. 
आज भी मैं केवल हिसाब-किताब कर ले जाता हूँ. 
मगर मैं अपने बेटे का नाम पड़ोस के नर्सरी स्कूल में ही लिखवाता हूँ. 
अब हर दिन मैं अपने छोटू को खटा कर हर शाम अपने कमरे पर अपने बाल-बच्चों के साथ खाने-सोने जाने लगता हूँ. 
यह कहानी ऐसे ही चलती जा रही है. 
क्या आप इसमें कुछ फेर-बदल करने के चक्कर में हैं? 
नहीं न! 
करियेगा भी मत!
क्योंकि अगर कुछ हुआ, तो फिर आपको डेली चाय कौन पिलाएगा?
....सर जी....!!!

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